उर्दू अदब की दुनिया में कुछ नाम ऐसे हैं जो सरहदों से परे जाकर अपने लफ़्ज़ों की रोशनी से कई मुल्कों के दिलों में जगह बना लेते हैं। साक़ी फ़ारूक़ी ऐसा ही एक नाम है एक बाग़ी, बेबाक और जज़्बाती शायर, जिसने उर्दू को लंदन की सर्द हवाओं में भी ज़िंदा रखा। उनका असली नाम क़ाज़ी मुहम्मद शमशाद नबी फ़ारूकी था, मगर दुनिया उन्हें साक़ी फ़ारूक़ी के नाम से जानती है। वो ब्रिटिश-पाकिस्तानी शायर थे जिन्होंने उर्दू और अंग्रेज़ी दोनों में लिखा और दोनों ही ज़बानों में अपनी पहचान छोड़ी।
‘मुझे ख़बर थी मिरा इंतिज़ार घर में रहा
साक़ी फ़ारूक़ी
ये हादसा था कि मैं उम्र भर सफ़र में रहा’
गोरखपुर से लंदन तक का सफ़र
साक़ी फ़ारूक़ी की पैदाइश 21 दिसंबर 1936 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में हुई। उस दौर का हिंदुस्तान उथल-पुथल से गुज़र रहा था। लोगों के दिलों में बेचैनी थी। इसी माहौल में एक बच्चे ने पहली बार आंखें खोलीं, जो आगे चलकर उर्दू अदब का एक अहम नाम बना।
‘मुद्दत हुई इक शख़्स ने दिल तोड़ दिया था
साक़ी फ़ारूक़ी
इस वास्ते अपनों से मोहब्बत नहीं करते’
बंटवारे के बाद उनका परिवार पहले पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) और फिर कराची चला गया। वहीं साक़ी ने अपनी शुरुआती पढ़ाई उर्दू कॉलेज से की और बाद में कराची यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन पूरा किया। लेकिन साक़ी सिर्फ़ पढ़ाई तक महदूद नहीं रहे। उनके अंदर एक बेचैनी थी समाज, ज़ुबान और सोच की बंदिशों से आज़ादी की बेचैनी।
1958 में उन्होंने पाकिस्तान छोड़ लंदन का रुख़ किया। वहां जाकर उन्होंने कंप्यूटर प्रोग्रामिंग की ट्रेनिंग ली, मगर उनकी असली दुनिया अब भी लफ़्ज़ों और एहसासों की थी। लंदन में उन्होंने उर्दू शायरी को एक नया रंग दिया और अंग्रेज़ी में भी अपनी पहचान बनाई।
‘अब घर भी नहीं घर की तमन्ना भी नहीं है
साक़ी फ़ारूक़ी
मुद्दत हुई सोचा था कि घर जाएंगे इक दिन’
लंदन में उर्दू का परचम
साक़ी फ़ारूक़ी ने उर्दू अदब को रिवायत से हटकर देखा। उन्होंने ग़ज़ल और नज़्म को एक आधुनिक अहसास दिया। उनकी लिखी ‘बेहराम की वापसी’ और ‘रज़ून से भरा बस्ता’ उर्दू अदब की दुनिया में फेमस रहा। वहीं अंग्रेज़ी में उनका कविता संग्रह ‘Nailing Dark Storm’ भी खूब सराहा गया।
उनकी शायरी में एक अजीब सी बेचैनी थी जैसे वो हर लफ़्ज़ में अपनी रूह का बोझ उतारते हों। वो इंसान, जानवर, परिंदे और प्रकृति। हर चीज़ में एक रूह तलाशते थे। यही वजह थी कि उनकी कविताएं किसी एक जज़्बे या विषय में कैद नहीं रहतीं। उनमें मोहब्बत थी, दर्द था, बग़ावत थी और इंसानियत की गहराई भी।
साक़ी फ़ारूक़ी उन शायरों में से थे जिन्होंने उर्दू को सिर्फ़ अतीत की ज़ुबान नहीं माना, बल्कि उसे आज और आने वाले कल की ज़ुबान के तौर पर देखा। उन्होंने समाज के उन हिस्सों पर लिखा जिनकी आवाज़ अक्सर दबा दी जाती है। उनकी नज़्में और ग़ज़लें समाज के तंग ढांचों के खिलाफ़ थीं।
‘मुझ में सात समुंदर शोर मचाते हैं
साक़ी फ़ारूक़ी
एक ख़याल ने दहशत फैला रक्खी है’
वो खुले विचारों के शायर थे, जिनके लफ़्ज़ों में न कोई डर था और न झिझक। यही वजह थी कि उन्हें कभी-कभी विवादास्पद भी कहा गया, मगर साक़ी ने हमेशा कहा कि “शायरी वो नहीं जो सिर्फ़ तारीफ़ बटोरे, बल्कि वो जो सोचने पर मजबूर करे।”
एक किस्सा, एक मुलाक़ात
साक़ी फ़ारूक़ी की ज़िंदगी में कई दिलचस्प किस्से हैं। 1994 में उनका इलाहाबाद दौरा यादगार रहा। वहां उनका स्वागत एक “लंदन से आए शायर” के तौर पर हुआ। लोगों में उत्सुकता थी कि ये शख़्स कैसा होगा जो लंदन में रहकर भी उर्दू की बातें करता है।
जब वो पहुंचे, तो सबको चौंका दिया। सफ़ेद शर्ट, लाल सस्पेंडर, और तेज़, भारी आवाज़ जैसे कोई मंच पर नहीं, ज़िंदगी के बीचोंबीच खड़ा हो। उन्होंने अपने दोस्तों से मिलते ही कहा, “चलो, वक्त ज़ाया मत करो, सीधी बातें करो।”
‘ख़ुदा के वास्ते मौक़ा न दे शिकायत का
साक़ी फ़ारूक़ी
कि दोस्ती की तरह दुश्मनी निभाया कर’
शाम को जब मुशायरा हुआ, तो माहौल बदल गया। दो घंटे तक उन्होंने पढ़ा कभी बिल्ली पर, कभी मेंढक पर, कभी इंसान के भीतर के डर पर। उनकी नज़्मों में जो जज़्बात थे, वो सुनने वालों के दिल में उतर गए। लोग वाह-वाह करते रहे और वो मुस्कुराते रहे।
शख़्सियत का दूसरा पहलू
साक़ी फ़ारूक़ी की ज़िंदगी में सख़्ती और नरमी दोनों थी। वो ग़ुस्सैल भी थे और बेहद दिलदार भी। उनके दोस्त बताते हैं कि वो अक्सर बहस करते-करते झगड़ा कर बैठते, मगर अगले ही पल किसी बच्चे या जानवर को दुलारते नज़र आते।
उनका घर लंदन में था, मगर माहौल पूरी तरह उर्दू का किताबें, तस्वीरें, ग़ज़लों की रिकॉर्डिंग और दोस्तों की चिट्ठियां। वो खाना खुद बनाते थे और कहते थे, “पकाने और लिखने में फ़र्क नहीं, बस ज़ायका सही होना चाहिए।”
शायरी की थीम और सोच
साक़ी की शायरी इंसान की रूह की तलाश है। उनकी नज़्में ‘ज़िंदगी’ और ‘मौत’ के बीच की उस पतली रेखा पर चलती हैं, जहां उम्मीद और मायूसी दोनों साथ रहते हैं। वो अपने दौर के शायरों से बिल्कुल अलग थे। उनकी सोच आधुनिक थी लेकिन जड़ें उर्दू की परंपरा में गहरी थीं। उन्होंने इश्क़ को सिर्फ़ रूमानी नहीं बल्कि सामाजिक और आत्मिक अनुभव के रूप में देखा। उनकी नज़्में यह दिखाती हैं कि उर्दू अदब किसी एक ज़माने में बंद नहीं, बल्कि हमेशा बदलती रहती है।
ज़िंदगी के आख़िरी सालों में साक़ी फ़ारूक़ी की तबीयत बिगड़ती चली गई। कई बार उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। उनकी पत्नी भी बीमार थीं, इसलिए वो एक वृद्धाश्रम में रहने लगे। 19 जनवरी 2018 को लंदन में उनका इंतक़ाल हुआ। वो 81 साल के थे। उनकी मौत की ख़बर ने उर्दू दुनिया को गमगीन कर दिया। बहुतों ने कहा कि “साक़ी गया, मगर उसकी आवाज़ रह गई।”
साक़ी और उर्दू का रिश्ता
साक़ी फ़ारूक़ी ने उर्दू को सिर्फ़ लफ़्ज़ों की ज़ुबान नहीं, बल्कि सोच की ज़ुबान माना। उन्होंने उर्दू की दुनिया को दिखाया कि यह भाषा सिर्फ़ महफ़िलों में पढ़ी जाने वाली ग़ज़ल नहीं है, बल्कि ज़िंदगी का दस्तावेज़ है। उन्होंने उर्दू और अंग्रेज़ी के बीच एक पुल बनाया। उनकी कविताएं यह साबित करती हैं कि जब दिल सच्चा हो तो ज़ुबान कोई रुकावट नहीं होती। उन्होंने पश्चिमी दुनिया में रहते हुए भी अपनी जड़ों से रिश्ता कभी नहीं तोड़ा।
विरासत
साक़ी फ़ारूक़ी ने अपने दौर के कई शायरों को प्रभावित किया। वो उन शख़्सियतों में से थे जो परंपरा से टकराने की हिम्मत रखते थे। 1980 और 90 के दशक में उनकी शायरी ने उर्दू अदब में नई जान डाल दी।
2011 में उनके कुछ चुनिंदा काम “रात के मुसाफ़िर” नामक संग्रह में शामिल किए गए। उसमें उन्होंने खुद लिखा था कि “मैं तन्हा हूं, मगर जानता हूं कि मेरे अल्फ़ाज़ किसी न किसी तक ज़रूर पहुंचेंगे।” यही यक़ीन शायद उन्हें आख़िरी सांस तक लिखते रहने की ताक़त देता रहा।
साक़ी का असर आज भी बाक़ी है
आज जब उर्दू अदब पर बात होती है, तो साक़ी फ़ारूक़ी का नाम इज़्ज़त और अपनापन दोनों के साथ लिया जाता है। वो उन लोगों में से थे जिन्होंने हमें याद दिलाया कि शायरी सिर्फ़ लफ़्ज़ों का खेल नहीं, बल्कि ज़िंदगी से मुठभेड़ है।
उनकी ज़िंदगी का सफ़र गोरखपुर से कराची, कराची से लंदन सिर्फ़ जगहों का नहीं बल्कि पहचान का सफ़र था। उन्होंने हर मुक़ाम पर उर्दू को जिया, महसूस किया और उसे अपनी शायरी में ढाला।
‘प्यास बढ़ती जा रही है बहता दरिया देख कर
साक़ी फ़ारूक़ी
भागती जाती हैं लहरें ये तमाशा देख कर’
साक़ी फ़ारूक़ी आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी तख़लीक़, उनकी आवाज़ और उनका जज़्बा अब भी ज़िंदा है। उन्होंने हमें यह सिखाया कि ज़ुबान चाहे कोई भी हो, अगर उसमें सच्चाई और एहसास है, तो वो हमेशा जिंदा रहती है।
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