पाकिस्तान के पंजाब सूबे में एक जिला है मियांवाली। ईसाखेल इस जिले में एक छोटा सा कस्बा है। इस कस्बे को पाकिस्तान के मशहूर गायक अताउल्लाह खान का जन्मस्थान होने के कारण इधर के सालों में खूब ख्याति मिली है। वही अताउल्लाह खान जिनके कैसेट अस्सी के दशक में भारत के हर ट्रक में अनिवार्य रूप से बजा करते थे। इसी ईसाखेल में 5 दिसंबर को 1918 जगन्नाथ आज़ाद का जन्म हुआ था। सत्तर किताबों के लेखक आज़ाद उर्दू के बड़े कवि-लेखक तो थे, एक बड़े शिक्षाशास्त्री के रूप में भी उनका बड़ा नाम है।
अल्लामा इकबाल की शायरी और उनके दर्शन के गहरे जानकार और अध्येता जगन्नाथ आज़ाद को 1989 में भारत में उर्दू के विकास के लिए गठित संगठन अंजुमन तरक्की-ए-उर्दू का उपाध्यक्ष चुना गया। 1993 में वे इसके अध्यक्ष बने और 24 जुलाई 2004 को हुई अपनी मृत्यु तक इस पद पर बने रहे।
दिल्ली की जामा मस्जिद को विषय बनाकर लिखी गयी उनकी एक रचना बहुत मशहूर हुई. इसकी शुरुआत में वे इस मस्जिद को पवित्र भावनाओं की अमानत भी बताते हैं और दिल्ली नाम की अंगूठी में जड़ा नगीना भी –
अय जज्बे-तहारत की अमी मस्जिदे-जामा
रौशन दिल-ओ-ताबिंदा जबीं मस्जिदे-जामा
अय जल्व-ए-अनवारे-यकीं मस्जिदे-जामा
अय खातिमे-देहली की नगीं मस्जिदे-जामा
इसी कविता में वे आगे कहते हैं कि जामा मस्जिद इंसान के जिगर के खून का दिलफरेब नक्श है जिसके दर्शन में भोर की रोशनी का नज़ारा मिलता है। मस्जिद के वास्तुशिल्प और उसकी कलात्मकता की तारीफ में जगन्नाथ आज़ाद लिखते हैं –
तू फन की है तस्वीर नमूना है हुनर का
शहपारा-ए-जावेद है तू जौक-ए-नज़र का
जामा मस्जिद के भीतर उन्हें जो आध्यात्मिक प्रकाश दिखाई देता है वे उसके अनंत काल तक बने रहने की बात करते हैं –
दुनिया है तेरी नूरफिज़ा रोज़े-अबद तक
है साज़ तिरा नगमा सरा रोज़े-अबद तक

एक और बड़े शायर हुए सीमाब अकबराबादी. 5 जून 1882 को आगरे में मौलवी मोहम्मद हुसैन के घर जन्मे इस बेहतरीन कवि का असल नाम सैयद आशिक़ हुसैन सिद्दीकी था। उन्हें दाग़ देहलवी जैसे बड़े शायर से कविता सीखने का मौक़ा मिला और एक ज़माने में सीमाब अकबराबादी देश भर में पढ़े-सुने जाते थे। उनके हज़ारों शागिर्द और मुरीद हुआ करते थे।
रेलवे के मुलाज़िम रहे सीमाब अकबराबादी ने कुरआन का अनुवाद किया, अखबार और रिसाले निकाले और जैबुन्निसा बेगम पर एक महत्वपूर्ण किताब लिखी. 1951 में उनकी मृत्यु के बाद पाकिस्तान में सीमाब अकादमी गठित हुई जो आज भी काम कर रही है. उन्होंने अपने काव्यक्षेत्र को खूब विस्तार दिया और बड़ी तादाद में गज़लें और नज्में लिखीं.

मुग़ल सम्राट अकबर की पत्नी जोधाबाई के मंदिर पर लिखी उनकी एक ग़ज़ल को उनके चाहने वालों के बीच बहुत मोहब्बत हासिल हुई। इस ग़ज़ल की शुरुआत में सीमाब लिखते हैं –
बुतशिकन भी हिम्मते-इस्लाम है, बुतगर भी है
किले-शाही में मस्जिद है जहां मन्दर भी है
यानी एक ही आस्ताने में मंदिर और मस्जिद का होना उसी तरह है जैसे एक ही छत के नीचे मूर्ति बनाने वाला भी रह रहा हो और उसे न मानने वाला भी। मंदिर की तारीफ़ में वे आगे फरमाते हैं –
मावरा कैद-ए-तअय्यु से है नैरंगे-जमाल
मजहर इसका आग भी है, ख़ाक भी, पत्थर भी है
अय अबूदियत नज़र में वुसअत-ए-दरकार है
बुतकदा कहते हैं जिसको वो खुदा का घर भी है
मन्दिर और मस्जिद के इस तरह एक साथ अस्तित्व बने रहना सीमाब अकबराबादी की निगाह में बहुत बड़ी बात है जिसके आगे पारम्परिक तरीके से धर्म का पालन करने करने वालों का कद छोटा पड़ जाता है। वे कहते हैं कि पंडित और मुल्ला दोनों ही रस्मों और अनुष्ठानों की पाबंदी का ख़याल रखते हैं जबकि जोधाबाई के मंदिर में अपनाया जाने वाला भक्ति का समभावपूर्ण तरीका इन दोनों से कहीं ऊंचा है –
बिरहमन और शैख़ हैं पाबन्दे-औहाम-ओ-रसूम
इस परस्तिश का तरीका इससे बालातर भी है
मिट्टी-पत्थर की बनी धार्मिक इमारतों के भीतर भी हमारे महादेश के कवियों ने आपसी सौहार्द की अभिव्यक्ति की मिसालें खोजीं। उन मिसालों का प्रसार करने का कोई तरीका उन्होंने नहीं छोड़ा। उन्हें जहाँ भी जिस रूप-रंग में ऐसी कोई छवि हासिल हुई उसे उन्होंने भरसक अपने रचनाकर्म का हिस्सा बनाया और आने वाली नस्लों के लिए ज़रूरी सबक दर्ज किये।
अशोक पांडे चर्चित कवि, चित्रकार और अनुवादक हैं। पिछले साल प्रकाशित उनका उपन्यास ‘लपूझन्ना’ काफ़ी सुर्ख़ियों में है। पहला कविता संग्रह ‘देखता हूं सपने’ 1992 में प्रकाशित। जितनी मिट्टी उतना सोना, तारीख़ में औरत, बब्बन कार्बोनेट अन्य बहुचर्चित किताबें। कबाड़खाना नाम से ब्लॉग kabaadkhaana.blogspot.com। अभी हल्द्वानी, उत्तराखंड में निवास।
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