दारुल मुसन्निफ़िन शिबली अकादमी (Darul Musannefin Shibli Academy), एक ऐसी इंडो-इस्लामिक शोध संस्थान, जिसकी स्थापना ऐसे समय में हुई जब यूरोप जैसी साहित्यिक अकादमियाँ भारत में ना के बराबर थी। इसके संस्थापक मुहम्मद अल्लामा शिबली नोमानी (Allama Shibli Nomani) को इसका विचार तब आया, जब उन्होंने कॉन्स्टेंटिनोपल नामक शहर का दौरा किया। बमुश्किल कुछ दर्जन किताबों से शुरू हुई लाइब्रेरी आज इसमें डेढ़ लाख से ज़्यादा किताबें हैं। इतिहास और इल्म के इस खज़ाने को सौ से ज़्यादा साल पूरे हो गए हैं।

आप जाते तो हैं उस बज़्म में ‘शिबली’ लेकिन,
हाल-ए-दिल देखिए इज़हार न होने पाए।
ये शेयर मुहम्मद शिबली नोमानी साहब का है। उत्तर प्रदेश के पश्चिम के जो रसूक अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का है, पूर्वांचल में शिबली नेशनल कॉलेज वही हैसियत रखता है। इस कॉलेज या अकादमी के जर्रे जर्रे ने आज़ादी की तदबीर सुनी है। जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी जैसी महान शख्सियत यहां पहुंची और आज़ादी की लड़ाई कैसे लड़ी जाए उनकी योजनाओं पर चर्चाएं की।
शिबली अकादमी
शिबली अकादमी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में स्थित एक शोध अकादमी है। सन 1914 में इस अकादमी की बुनियाद रखी गई थी। मौलाना उमैर अल सिद्दीकी नदवी (Maulana Umair Al Siddiqui Nadvi) शिबली अकैडमी में एक स्कोलर है उन्होंने DNN24 को बताया कि साल 2023 चल रहा है किसी भी संस्था के या किसी इंस्टिट्यूट के लिए इतने दिनों तक जिंदा रहना यह बहुत बड़ी बात है और इस सूरत में जबकि बिना किसी सरकारी मदद और किसी चंदे के बिना, इसके लिए किसी आम आदमी से पैसा नहीं लिया गया। ये अकादमी सिर्फ चंद लोगों की मदद से चलती है।

जब लोगों को इस आकदमी के बारे में पता चला तो सबने स्वागत किया। उससे पहले शिबली की किताबों ने तहलका मचाया हुआ था। उस समय ज्यादातर लोग उर्दू जानते थे और सब शिबली के नाम से वाकिफ थे। इसीलिए हम कहते है कि पूरे इस्लामिक दुनिया में इस तरह की कोई भी अकादमी मौजूद नहीं है जिसने इस्लाम का इतिहास और अपने देश के इतिहास को पेश किया हो। ऐसा नहीं था कि जो आया वो लिख दिया गया। यह तय किया गया कि सारी चीजें तथ्यों पर आधारित होंगी तभी लिखी जाएगी और वहीं किताबे यहां होनी चाहिए जो सही मायनों में प्रमाणिक है। शिबली साहब की टीम ने दिल्ली, लखनऊ, हैदराबाद, मुंबई, कलकत्ता, भोपाल और पटना जैसी जगहों पर काम किया।

यहां आपको नॉवल नहीं मिलेगे, कहानी या फिर अफसाना नहीं मिलेगा, यहां सिर्फ वो किताबें मिलेगी जो बुनियादी किताबें है। यहां वो किताबें मौजूद है जिनका इतना बड़ा कलेक्शन कहीं नहीं मिलेगा। ढे़ड लाख किताबें यहां मौजूद है। शिबली अकादमी एक छोटा हिंदुस्तान है, एक वो हिंदुस्तान जिसकी तहजीब, जिसके इल्म को दुनियां मानती थी। वो हिंदुस्तान जिसने दूसरी दुनिया के साहित्य को जिंदा किया, वो हिंदुस्तान जिसने ताजमहल, लाल किला जयपुर का आमेर किला दिया, उस हिंदुस्तान की झलक देखनी है तो आप इस मामूली से कैम्पस में य देख सकते है।
अंग्रेजों ने मध्यकालीन भारत का इतिहास जो लिखा है वह सब जानते हैं कि किस तरह उन्होंने झूठ और सच मिलाकर कहानी तैयार कर दी, क्योंकि उन लोगों के द्वारा लिखा गया था इसलिए सभी लोगों ने उसे पढ़ा भी और उसी को माना भी। ऐसे में शिबली ने देखा की जो नई पीढ़ी है वो भूल जाएगी कि हम किसकी औलाद है और भारत में हमने क्या-क्या किया है। भारत में सिर्फ अंग्रेजी की वजह से तरक्की नहीं है भारत की मज़बूती को लेकर कौन लोग रहे हैं, उनकी यही सोच थी।
महीने का 6 से 7 लाख रूपये खर्चा
शिबली का मकसद था कि इतिहास की जो सच्चाइयां है उनको इसलिए लेकर आया जाए जो बाहर से लोग आए है उनका प्रभाव देश में गलत तरीके से ना फैले। उसका जवाब देने के लिए एक अकादमी ऐसी हो जहां सुकून से बैठकर और यूरोप का रिसर्च करने का जो को अंदाज है, ऑब्जेक्टिव जो स्टडीज होती है उसे यहां पर भी इस्तेमाल किया जाए।

अकादमी में जॉइंट डायरेक्टर फाकरूल इस्लाम कहते है कि आज पूरी दुनिया उंगलियों पर सिमट आई है। यहां जो लिखा जाता था उसकी पूरी दुनिया में गूंज होती थी। आज जिस तरह से रिसर्च को लेकर जितनी आसानी है उस जमाने में उतनी नहीं थी। शिबली ने हर जगह का दौरा किया जहां जाते थे वहीं के कल्चर और तहजीब को देखते है। अकादमी में जितने लोग भी आए है वो मुफ्त में काम करते है और इसी के बारे में सोचते है यहां 30 से 32 लोग काम कर रहे है और महीने का 6 से 7 लाख रूपये खर्चा है।
शिबली कौन थे
शिबली नोमानी का जन्म 4 जून 1857 में हुआ। वह एक इस्लामी विद्वान, कवि, दार्शनिक, इतिहासकार, शैक्षिक विचारक, लेखक, वक्ता, सुधारक थे। शुरू से ही उनके खून में इंकलाबी आ गई थी। उन्हें उर्दू इतिहास लेखन का जनक माना जाता है। वह अरबी और फ़ारसी भाषाओं में भी पारंगत थे। शिबली इस क्षेत्र के दो प्रभावशाली आंदोलनों, अलीगढ़ और नदवा आंदोलनों से जुड़े थे। अतीत और आधुनिक विचारों के उनके संश्लेषण ने 1910 और 1935 के बीच उर्दू में लिखे गए इस्लामी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया। शिबली ने इस्लामी छात्रवृत्ति को बढ़ावा देने के लिए 1914 में दारुल मुसन्नेफिन शिबली अकादमी की स्थापना की और 1883 में शिबली नेशनल कॉलेज की भी स्थापना की।
उन्होंने सोलह वर्षों तक अलीगढ़ में फ़ारसी और अरबी भाषाएँ सिखाईं, जहाँ उनकी मुलाकात थॉमस अर्नोल्ड और अन्य ब्रिटिश विद्वानों से हुई, जिनसे उन्होंने पहली बार आधुनिक पश्चिमी विचारों और विचारों को सीखा। उन्होंने 1892 में थॉमस अर्नोल्ड के साथ सीरिया, तुर्की और मिस्र सहित ओटोमन साम्राज्य और मध्य पूर्व के अन्य स्थानों की यात्रा की और उनके समाजों का प्रत्यक्ष और व्यावहारिक अनुभव प्राप्त किया।

हैदराबाद और लखनऊ में शिबली
1898 में सर सैयद अहमद की मृत्यु के बाद उन्होंने अलीगढ़ विश्वविद्यालय छोड़ दिया और हैदराबाद राज्य के शिक्षा विभाग में सलाहकार बन गये। उन्होंने हैदराबाद शिक्षा प्रणाली में कई सुधारों की शुरुआत की। उनकी नीति से, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय ने उर्दू को शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाया। इससे पहले, भारत के किसी भी अन्य विश्वविद्यालय ने उच्च अध्ययन में शिक्षा के माध्यम के रूप में किसी भी स्थानीय भाषा को नहीं अपनाया था। 1905 में, उन्होंने हैदराबाद छोड़ दिया और नदवत तुल-उलूम द्वारा स्थापित एक मदरसा, दारुल उलूम नदवातुल उलमा के प्रमुख और प्रेरक शक्ति के रूप में लखनऊ चले गए। उन्होंने स्कूल के शिक्षण और पाठ्यक्रम में सुधार पेश किए।
विचारधारा
उस जमाने के जो उलमा लोग थे या जो मुस्लिम लीडरशिप थी शिबली उनसे कुछ हटकर सोचते थे। इंकलाबी होने का मतलब ही यही है कि डगर से हट कर सोचा जाए। शिबली मुसलमानों के कल्याण की कामना करते थे और चाहते थे कि पश्चिमी सोच और शैली भी इसके साथ आये। हालाँकि, सर सैयद 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी के बाद मुसलमानों को ब्रिटिश शासकों के क्रोध से बचाना चाहते थे, जिसे ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासकों ने 1857 का “सिपाही विद्रोह” कहा था, जबकि शिबली उन्हें आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे। मौलाना उमैर अल सिद्दीकी कहते है कि सबसे पहले इंसान जिसने मुस्लिम लीग की मुखालफत की और अपनी शायरी के जरिए इसके परखच्चे उड़ाये वो शिबली थे.
उनका मानना था कि मुसलमान हिंदू के बिना नहीं रह सकता और हिंदू मुसलमान के बिना इस समय पाकिस्तान नहीं बना था तब तक Two-nation theory नहीं आई थी लेकिन Two-nation theory को बर्बाद कर देने वाला पहला शख्स जो था वो शिबली ही थे। हमारे ऊपर ये इल्ज़ाम लगाया जाता रहा है कि हम एक तरफा है कहा जाता है कि ये लोग सब अच्छी अच्छी चीजें दिखाते है बुरी नहीं दिखाते है तो ये हमारा बुनियादी ऊसूल है वो लिखो जो लोगों के काम आए, लोगों को इंसान बनाने की तरफ लाये ये नहीं की हम अपने धर्म की तारीफ करने लगे तो दूसरे धर्म को भला बुरा कहने लगे। उनका मानना था कि सच्चाइयों को लेकर आओ और इस तरह से लो जिससे लोग आपकी बात को सुने और समझे और दिलों को जोड़ने का काम करें।

शिबली अकादमी के जॉइंट डायरेक्टर डॉ. फाकरूल इस्लाम ने DNN24 ने बताया कि सर सैयद के साथ जरूर थे लेकिन एक दूसरे के साथ कुछ असहमती थी। सर सैयद ये चाह रहे थे कि अंग्रेजों की तहजीब और जुबान अपना कर हम हिंदुस्तानियों का भला कर सके लेकिन अल्लामा शिबली का यह ख्याल था कि हम उनसे इल्म हासिल करेंगे.
शिबली ने अरबी में लिखी मोहम्मद साहब की सबसे बड़ी जीवनी
फाकरूल इस्लाम कहते है कि आजमगढ़ में एक हार्मनी है गंगा जमुनी तहजीब है यहां का हिंदू अभी तक इतना कम्युनल नहीं हुआ है या यहां का मुसलमान इतना कम्युनल नहीं हुआ है यह सब शिबली की देन है और उनके साथियों की। यहां की फिजा उसी तरह से कम्युनल नहीं हुई है जिस तरह से आप दुनिया भर में देख रहे हैं अपने वतन से मोहब्बत यह हमारे मजहब का एक हिस्सा है। अल्लामा शिबली का यही पैगाम है की किताबों और कलम से रिश्ता जोड़ा जाए, दुनिया में शांति फैलाई जाए, हिंदुस्तान में जो लोगों के बीच फासले बड़े हैं उन्हें कम किया जाए।
सारी चीज समाज की बुनियाद पर होती है हम उसे समाज की तलाश में है जो इंसानों का समाज हो जो यह जानता हो जो अच्छाई क्या है और बुराई क्या है मोहम्मद साहब की जीवनी अरबी भाषा में भी इतनी बड़ी नहीं लिखी गई है जितनी बड़ी शिबली ने लिखी।
1916 में जारी हुई ‘मारिफ पत्रिका’ जो आज भी निकल रही है
उर्दू गालिब और जौक की शायरी की जुबान थी वो आकदमी या ज्ञान की जबान नहीं हुई थी। शिबली ने इस आकदमी के जरिए से उर्दू जबान को एक आकदमी जबान बना दिया। ईरान की फारसी शायरी जिसकी ईरान में उसका इतिहास नहीं लिखा गया, इसे शिबली ने आकदमी में लिखा और ये पूरे भारत के लिए बहुत गर्व की बात है। वो चाहते थे कि ये काम आगे भी बढ़े लेकिन आगे बढ़ने के लिए एक टीम होनी चाहिए इसकी वजह से उनके खानदान के लोगों ने उस ज़माने में जमीन वक्फ कर दी ले जाइये और बनाइये क्योंकि उस समय जमीन को लेकर इतनी लालच नहीं हुआ करती थी.
जब ये आकदमी में बनी तो 1916 में इसके नाम की एक मारिफ नाम की पत्रिका निकली ये पत्रिका सन् 1916 से लेकर आज तक जारी उसका निकलना बंद नहीं हुआ। इन बीच World War हुआ, विभाजन हुआ, कोरोना आया, सैलाब आए, तूफान आए सब कुछ हुआ लेकिन मारिफ पत्रिका किसी भी महीने नहीं रूकी।
डॉ अहमदुल्ला साहब बहुत बड़े पैरिस में स्कॉलर थे करीब 27 भाषाओं के मालिक थे। उन्होंने यहां खत लिखा “आज भी हमारे पास पूरी दुनिया से पत्रिकाएं आती है। ख़ासतौर से इस्लाम धर्म से संबंधित लेकिन आज भी नंबर एक पर मारिफ पत्रिका ही है।” ये हमारे लिए बहुत बड़ी बात है हमने उर्दू जबान को एक वो पत्रिका दी है, जो सबसे पुरानी है और जिंदा है।

महात्मा गांधी का उर्दू में लिखा गया पत्र है मौजूद
सन 1922 – 23 तक महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय जितने भी उस समय टॉप क्लास लीडर थे सब यहां आने लगे थे। नेहरू यहां एक एक हफ्ते रूका करते थे। मह के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद यहां आकर उर्दू में खत लिखते थे। आजमगढ़ जिले से महात्मा गांधी का गहरा रिश्ता रहा है। देश को आजाद कराने के उद्देश्य से गांधी जी कई बार आजमगढ़ के दौरे पर आए। देश को आजाद कराने के लिए जिले की शिबली एकेडमी स्वतंत्रता आंदोलन का केन्द्र रही। पूरे पूर्वांचल में यहीं बैठक कर संदेश दिया जाता था। महात्मा गांधी पांच फरवरी 1913 में उर्दू में लिखा गया पत्र आज भी शिबली एकेडमी में सुरक्षित रखा गया है। इस पत्र को एकेडमी के लोग अपनी धरोहर की तरह संजो कर रखे हैं। अकादमी का उद्देश्य था कि एक जो असली हिंदुस्तान था जिसके पीछे बहुत सी परपंराएं थी, हमारी जो हिंदुस्तानियत जो है वो सिर्फ जिंदा ही नहीं रहे बल्कि वो मज़बूत हो जाए इसके लिए ये अकादमी कायम हुई।
अगस्त 1914 में अल्लामा शिबली नोमानी अपने बड़े भाई की बीमारी की खबर सुनकर इलाहाबाद गये। दो सप्ताह बाद उनके भाई की मृत्यु हो गई। इसके बाद वह आज़मगढ़ चले गए जहां उन्होंने दारुल मुसन्निफ़िन की मूल अवधारणा विकसित की। 18 नवंबर 1914 को उनका निधन हो गया।
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