बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला’’ ये लाइन है देश के प्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन की जिन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी में पीएचडी की थी लेकिन अपनी लेखनी से हिन्दी कविताओं को नए आयाम दिये। इनका जन्म 27 नवंबर 1907 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद के एक छोटे से क़स्बे प्रतापगढ़ में हुआ। उनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव था। एक मध्यम वर्गीय परिवार में पैदा हुए बच्चन साहब ने अपनी शुरुआती तालीम इलाहाबाद में ही हासिल की। उनका असली नाम ‘हरिवंश राय श्रीवास्तव’ था, लेकिन उन्होंने “बच्चन” तख़ल्लुस अपनाया, जो बाद में उनकी पहचान बन गया।
तालीम और अदबी सफ़र
हरिवंश राय ने अपनी तालीम इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पूरी की। उन्होंने इंग्लिश में मास्टर्स की डिग्री हासिल की। बाद में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से पीएचडी की। वे पहले ऐसे हिंदुस्तानी थे जिन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से इंग्लिश लिटरेचर में डॉक्टरेट हासिल की। हरिवंश साहब की शोहरत उनके मफ़हूमी ( समझ में आने वाली) और जज़्बाती शायरी की वजह से हुई। उनकी सबसे मशहूर किताब मधुशाला 1935 में पहली बार शाया हुई। इस किताब ने हिंदुस्तानी अदब में एक नया इंक़लाब लाया।
मुसलमान औ’ हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला
हरिवंश राय बच्चन
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला
ज़िंदगी के ख़ास मोड़
हरिवंश राय की पहली पत्नी श्यामा देवी थीं, जिनसे उन्होंने 1926 में शादी की। श्यामा देवी का इंतक़ाल 1936 में तपेदिक (tuberculosis) की वजह से हो गया। उनकी मौत ने बच्चन साहब को तोड़ दिया। श्यामा देवी की मौत के बाद, बच्चन साहब ने एक बार इलाहाबाद में मशहूर वकील और सियासी शख़्सियत तेज बहादुर सप्रू से मुलाक़ात की। सप्रू ने उनसे कहा, “आपकी शायरी में दर्द और सच्चाई की एक अलग ही ख़ुशबू है।
1938 में तेजी सूरी से दूसरी शादी की। तेजी साहिबा एक खुले ख़्यलात और मॉडर्न सोच की मालकिन थी। तेजी बच्चन के साथ उनके रिश्ते ने शायरी और ज़िंदगी में एक नई लौ रौशन कर दी।
मधुशाला की शायरी शराब की तारीफ़ नहीं करती, बल्कि ज़िंदगी के तल्ख़ हक़ीक़तों का बयान है। इसमें इश्क़, ग़म, और उम्मीद के जज़्बात बयां हुए हैं।
राजनीति और सियासत से ताल्लुक़ात
हरिवंश राय बच्चन जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी जैसे सियासी रहनुमाओं के क़रीबी थे। उन्होंने कई अहम मौक़ों पर हुकूमत की तर्जुमानी की। हरिवंश राय बच्चन ने 1930 के दशक में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर अपनी नौकरी छोड़ दी थी। वे अदबी तहरीक और आज़ादी के आंदोलन दोनों से जुड़े हुए थे।
किताबों का शौक़
बच्चन साहब को नई किताबें खरीदने का शौक़ था। वे अक्सर अपनी तनख़्वाह का बड़ा हिस्सा किताबों पर खर्च कर देते थे। हरिवंश राय बच्चन की ज़िंदगी के आख़िरी सालों में उनकी तबीयत ख़राब रहने लगी। उन्हें सांस की बीमारी हो गई थी। 18 जनवरी 2003 को उन्होंने इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह दिया। हरिवंश राय बच्चन ने शायरी और अदब में जो मक़ाम हासिल किया, वह बेमिसाल है। उनकी किताबें, जैसे निशा निमंत्रण, मधुबाला, और दो चट्टानें, आज भी पढ़ी जाती हैं। उनकी शायरी ने न सिर्फ़ हिंदुस्तान, बल्कि पूरी दुनिया में शोहरत पाई।
हो जाए न पथ में रात कहीं,
हरिवंश राय बच्चन
मंजिल भी तो है दूर नहीं
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
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