अलीगढ़ सिर्फ़ एक शहर नहीं, बल्कि एक अदबी कारवां है जिसने उर्दू शायरी और तहज़ीब को नई रोशनी दी है। यह वह सरज़मीन है जहां से न सिर्फ़ मशहूर शायर निकले, बल्कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) ने उर्दू अदब को मुकम्मल शक्ल देने में अहम किरदार अदा किया।
सदियों से इस शहर की गलियों में ग़ज़लें गूंजी हैं। AMU का इल्मी और तहज़ीबी माहौल, किताबों की महफ़िलें, मुशायरे और अदबी रौनक ने न जाने कितने शायरों और अदीबों को जन्म दिया।
अलीगढ़ की अदबी विरासत
अलीगढ़ की अदबी फ़ेहरिस्त में कई चमकते सितारे शामिल हैं। राही मासूम रज़ा, हसरत मोहानी, अली सरदार जाफ़री, जां निसार अख़्तर, शहरयार, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी।
इनमें एक ऐसा नाम भी है जिसने अपनी इंक़लाबी और रूमानी शायरी से नौजवानों के दिलों पर राज किया—असरारुल हक़ मजाज़, जिन्हें दुनिया ‘मजाज़ लखनवी’ के नाम से जानती है। उनकी शायरी का रंग और अंदाज़ अलीगढ़ की तालीमी और अदबी फ़ज़ा का ही नतीजा था। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी सिर्फ़ एक तालीमी इदारा नहीं; यह उर्दू अदब का लाल क़िला और तहज़ीब-ओ-तमद्दुन का गहवारा है। यहां का माहौल छात्रों में न सिर्फ़ ज्ञान बढ़ाता था, बल्कि उन्हें इंसानियत, तहज़ीब और शख़्सियत-साज़ी का पाठ भी पढ़ाता था।

डॉ. शारिक अक़ील की नज़र
डॉ. शारिक अक़ील बताते हैं कि उनका AMU से रिश्ता 1982 में शुरू हुआ। एमबीबीएस का एंट्रेंस क्वालीफ़ाई किया। पहले 9 साल एमबीबीएस और एमडी किया, और फिर फरवरी 1992 से यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल में हूं।, आज चीफ़ मेडिकल ऑफ़िसर है। यह सब अलीगढ़ की इल्मी और अदबी फ़ज़ा का फ़ैज़ है।” यूनिवर्सिटी हेल्थ सर्विस (UHS) 1901 में बनाई गई थी। 1920 में AMU बनने के बाद इसे यूनिवर्सिटी हेल्थ सर्विस कहा गया। आज भी यह हॉस्पिटल छात्रों की तिब्बी ज़रूरतें पूरी करता है।
डॉ. अक़ील कहते हैं, “अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी कोई ईंट और गारे की इमारत नहीं है। यह इल्म-ओ-अदब का लाल क़िला और तहज़ीब का ताजमहल है। यहां सिर्फ़ डिग्री नहीं, इंसानियत और शख़्सियत पैदा की जाती है।” यहां सिर्फ़ डॉक्टर, इंजीनियर या वकील नहीं बनाए जाते थे। सर सैयद का मक़सद था कि हर छात्र फ़र्ज़-शनास, ज़िम्मेदार और इंसाफ़ का हक़दार बने।
सर सैयद का इंक़लाब और जदीद उर्दू नसर
सर सैयद अहमद ख़ान ने उस दौर की कठिन और मुश्किल उर्दू नसर को आम-फ़हम और सरल बनाने का बड़ा इंक़लाब किया। सर सैयद ने वो ज़बान इस्तेमाल की जो खोमचों, ढाबे और रिक्शा वालों तक आसानी से पहुंच सके। इसलिए उन्हें ‘जदीद उर्दू नसर का बानी’ कहा जाता है। उनकी तहरीरें, ख़ासकर ‘तहज़ीबुल अख़लाक़’, आम जीवन और सामाजिक आदब पर आधारित थीं। इससे उर्दू अदब को एक नया और समाजिक रूप मिला।
डॉ. अक़ील बताते हैं कि अलीगढ़ की अदबी फ़ज़ा को बनाए रखने में चार मुख्य अनासिर अहम थे
- सर सैयद का इख़लास (Sincerity): बानी-ए-दर्सगाह का ख़ुलूस और जुनून।
- अकामती ज़िंदगी (Hostel Life): छात्र अलग-अलग फ़ैकल्टीज़ में रहते, साथ में पढ़ते और एक-दूसरे की सोच और तहज़ीब से प्रभावित होते थे।
- असातिज़ा की सरपरस्ती (Mentorship of Teachers): प्रोफ़ेसर और शिक्षक 24 घंटे छात्रों के साथ रहते और उन्हें अदबी और इल्मी दिशा दिखाते थे।
- अदबी माहौल (Literary Environment): मुशायरे, किताबों की महफ़िलें और साहित्यिक चर्चाएं छात्रों में जज़्बा पैदा करती थीं।
मजाज़ लखनवी: अलीगढ़ से इंक़लाब और इश्क़ तक
मजाज़ का अलीगढ़ से रिश्ता किसी रूमानी अफ़साने से कम नहीं। वह अलीगढ़ के आशिक़ और माशूक़ दोनों थे। उनके नज़्म-ए-आवारा और हॉस्टलों की गलियों में गूंजती शायरी ने युवाओं की धड़कन बन गई। नाकामी और बेवफ़ाई ने उनकी शायरी में गहराई और रूमानी जज़्बा भरा।
उनकी नज़्म ‘नज़र-ए-अलीगढ़’ (1936) यूनिवर्सिटी के रूहानी तराने की शक्ल में अमर हो गई। मजाज़ की हाज़िर-जवाबी और मज़ाकिया अंदाज़ भी बेमिसाल था। उनके कैफ़े फ़ूस की महफ़िलों में गूंजती हंसी और चुटकुले आज भी अलीगढ़ की तहज़ीब की मिसाल हैं।
AMU के अदबी मुशायरे और किताबों की महफ़िलें
अलीगढ़ की अदबी फ़ज़ा सिर्फ़ शायरी तक महदूद नहीं थी। किताबों की महफ़िलें- AMU के पुराने लाइब्रेरी हॉल और हॉस्टल लाइब्रेरी में साहित्यिक चर्चा का सिलसिला चलता था। मुशायरे और अदबी इवेंट्स पुराने ज़माने में हर साप्ताहिक या मासिक मुशायरे छात्रों की जान हुआ करते थे। और छात्र रात-दिन एक-दूसरे की शायरी सुनते, आलोचना करते और परखते थे।
डॉ. अक़ील बताते हैं, यहां की अदबी माहौल ने शायरों को न सिर्फ़ लिखने की प्रेरणा दी, बल्कि अपने इरादों में मजबूती भी दी। अलीगढ़ ने उर्दू अदब को बेशुमार रौशन सितारे दिए। हसरत मोहानी, जोश मलीहाबादी, मजाज़ लखनवी, अली सरदार जाफ़री, जानिसार अख़्तर, शहरयार, मौलवी अब्दुल हक़, रशीद अहमद सिद्दीक़ी, आलिम सुरूर, ख़लीलुर्रहमान आज़मी इस्मत चुग़ताई, क़ुर्रतुलऐन हैदर, राही मासूम रज़ा, ख़्वाजा अहमद अब्बास आदि ‘वॉल ऑफ़ फ़ेम’ में इन महान शायरों और अदीबों का ज़िक्र है, ताकि नई पीढ़ी अपने अजदाद पर फ़ख़्र कर सके।
वर्तमान दौर में अदबी रिवायत
आज के कमर्शियलाइज़ेशन के दौर में, जहां छात्र जल्दी से जल्दी नौकरी हासिल करना चाहते हैं, वहां ‘तरबियत वाला उनसुर’ और अदब का शौक़ कम हुआ है। डॉ. अक़ील कहते हैं, अलीगढ़ आज भी बहुत से इदारों से मुम्ताज़ है। इसका तहज़ीबी विरसा आज भी छात्रों की पहचान बनाता है।
उनका पैग़ाम वाज़ेह है अलीगढ़ आएं, लेकिन सिर्फ़ डिग्री लेने न आएं। इंसान बनने आएं। अदब से वाबस्तगी ज़रूरी है। अगर आप अदब नहीं पढ़ेंगे, तो आप अच्छे इंसान नहीं बन पाएंगे। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और मजाज़ लखनवी का यह रूहानी रिश्ता सिखाता है कि अदब, इल्म और तहज़ीब किसी भी शख़्सियत-साज़ी के लिए ज़रूरी हैं।
अलीगढ़ की सरज़मीन पर फ़ज़लुल हसन, हसरत मोहानी और मजाज़ जैसे सितारे उभरे। यही अलीगढ़ की अदबी विरासत का असली फ़ैज़ है जहां शायरी सिर्फ़ कलम में नहीं, बल्कि दिल और ज़िंदगी में भी जीती है।
ये भी पढ़ें: मजाज़ की आवाज़ बनी अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की पहचान
आप हमें Facebook, Instagram, Twitter पर फ़ॉलो कर सकते हैं और हमारा YouTube चैनल भी सबस्क्राइब कर सकते हैं।