तुम जो इतना मुस्कुरा रहे हो, क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो… उर्दू के मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी के लिखे शेरो-शायरी आज आम जिंदगी का हिस्सा है। भले ही उन्हें गुज़रे हुए दो दशक हो चुके हैं, लेकिन उनके गांव मिजवां ने अब भी उनकी यादों को सजों कर रखा है। कैफ़ी की कैफियत को गुलज़ार रखा है। 1993 में गांव की औरतों को एक अलग पहचान देने के लिए कैफ़ी आज़मी साहब ने एक कमरे से मिजवां वेलफेयर सोसाइटी (Mijwan Welfare Society) की शुरूआत की। जो महिलाओं के लिए रोज़गार (Girl Child Empowerent) का केंद्र बन रही है। आज यहां काम करने वाली लड़कियां इंटरनेशनल लेवल पर अपनी पहचान बना रही है। यहां से बनाए गए कपड़े बड़े बड़े सेलेब्रिटीज पहन चुके हैं।

भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद छोड़ा अपना गांव
कैफ़ी साहब का असली नाम अख्तर हुसैन रिजवी था। उनकी पैदाइश उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के छोटे से गांव मिजवां में 14 जनवरी 1919 में हुई। बचपन में कविताएं पढ़ने का शौक लगा। 11 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली गज़ल लिखी। कैफ़ी साहब 20वीं शताब्दी के सबसे प्रसिद्ध भारतीय कवियों में से एक रहे। 1943 में कैफी साहब मिजवां से मुंबई पहुंचे चार साल में ही शायरी की दुनिया में मशहूर हस्ती बन चुके थे।
50 के दशक में उन्होंने फिल्मों में गीत लिखने शुरू किए। उन्होंने हिंदी सिनेमा के लिए भी खूब लिखा। 1952 में शाहिद लतीफ द्वारा निर्देशित फिल्म ‘बुजदिल’ के लिए पहला गाना लिखा, इसके बाद उन्होंने शमा, कागज के फूल, शोला और शबनम, अनुपमा, आखिरी खत, हकीकत, नौनिहाल, हंसते जख्म, अर्थ और हीर-रांझा जैसी फिल्मों के लिए काम किया, लेकिन 1973 को वह फालिज के शिकार हो गए। उसके बाद कैफी ने मिजबां में रहने का मन बना लिया।

भारत और पाकिस्तान के विभाजन के बाद कैफ़ी आज़मी अपने गांव को छोड़ कर चले गए। खाली घर पर कई स्थानीय लोगों ने कब्ज़ा कर लिया, लेकिन जब वो वापस अपने गांव आए तो उन्होंने अपने घर को पाने की बहुत जद्दोजहद की। करीब तीन से चार साल पहले उनके परिवार को ये घर मिल पाया है। जब घर में स्थानीय लोग रहा करते थे तब उनका घर अपनी अच्छी स्थिति में था। पिता के टूटते आशियाने को उनके बच्चे शबाना आज़मी और बाबा आज़मी फिर से उसी रूप में स्थापित करने की पूरी कोशिश कर रहे है।
मुंबई से वापस आकर बनाया ‘फतेह मंजिल’
मुंबई से तीस साल बाद वापस आने के बाद कैफ़ी आज़मी ने एक घर बनाया जिसे नाम दिया ‘फतेह मंजिल’। यह उनके पिताजी का नाम था। फतेह मंजिल वो घर है जहां आज भी मुंबई से आया उनका परिवार घर में बसी उनकी यादों को जीता हैं। घर के अंदर घुसते ही दाएं तरफ कैफी आज़मी और उनके पिता फतेह हुसैन की मूर्तियां लगी हुई है और उनकी मूर्ती के नीचे उनकी लिखी हुई नज़्म लिखी है। घर के कमरों की दीवारों पर प्रमाण पत्रों, तस्वीरों और पुरस्कारों के जरिए कैफी आज़मी की यादों को संजों कर रखा गया हैं।

कैसे हुई मिजवां वेलफेयर सोसाइटी की स्थापना
घर (‘फतेह मंजिल’) से 20 मीटर की दूरी पर बनी है मिजवां वेलफेयर सोसाइटी। 1993 में सोसाइटी की शुरूआत की और आज यह सोसाइटी दो मंजिला इमारत में तब्दील हो चुकी है. सिर्फ गांव की औरतों को ही नहीं आस पास के गावों की औरतों के लिए कमाने का जरिया बन चुकी है। हमारी मुलाकात हुई संयोगिता जी से। संयोगिता मिजवां वेलफेयर सोसाइटी की चीफ कॉर्डिनेटर है, जो कैफी आज़मी साहब की बेहद करीबी थी।
संयोगिता ने DNN24 को बताया कि “मैं शादी के बाद आई यहां आ गई थी। कैफ़ी आज़मी के साथ हमारा संबंध एक परिवार जैसा था। हमे कभी भी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि वह मुस्लिम है और हम हिंदू है। हमेशा मेरे परिवार को घर बुलाते थे। उन्हें खाने में गन्ने का रस, आम का पना और भतुआ पसंद था। वह बहुत जमीनी इंसान थे। जो चीज उन्हें मुंबई में नहीं मिल पाती थी तब वो यहां आकर पूरा किया करते थे। जब वो आते थे तो गांव में रौनक आ जाती थी।

संयोगिता कहती हैं कि एक दिन कैफ़ी आज़मी रूना बनर्जी को लेकर आए। और मुझे कहा कि संयोगिता 10 से 12 औरतों को अपने साथ लेकर आना। रूना जी ने कहा कि मैं आपको चिकनकारी का काम सीखाऊंगी। चिकनकारी के बारे में कुछ नहीं पता था। रूना जी ने कहा कि अगर मैं आपको यह काम सीखा देती हूं तो आप क्या करेगी। मैंने कहा कि अपने कपड़ों पर बनाऊंगी। उसके बाद उन्होंने हमे हर दिन करीब 30 से 35 लड़कियों को चिकनकारी का काम सीखाया। शुरूआत में हमारे यहां केवल 20 से 25 लड़कियों थी। और अब 500 से 600 लड़कियां है। छपाई, कढ़ाई सिलाई यहां चिकनकारी का ही काम किया जाता है। मिजवां वेलफेयर सासाइटी महिलाओं को ना सिर्फ सशक्तिकरण कर रहा है बल्कि समाज में बदलाव की मिसाल पेश कर रहा है।
यहां बड़े-बड़े फैशन डिज़ाइनर के बनाए जाते हैं कपड़े
2009 से हमारा एक फैशन होता आया है। पहले अनीता डोगरे आई थी उसके बाद मनीष मलोत्रा आए। जब हमारे बनाए हुए कपड़े पहन कर बड़े बड़े स्टार रैम वॉक रहे थे तब मेरी आंखों से खुशी के आंसू निकल रहे थे। मेरी लड़कियो को इंटरनेशनल लेवल तक पहचान मिली है। हम 20 मार्च 2023 को दिल्ली गए जिसमें 30 से 35 औरतों का एक ग्रुप वहां गया। वहां हम लोग मनीष मलहोत्रा के ऑफिस गए और लड़ियों ने जो कपड़ें बनाए थे उनके सामने जाकर खड़ी हो गई फिर सभी लोगों ने खड़े होकर सारी लड़कियों के साथ फोटो खींचवाई।

मिजवां फेलवेयर सोसाइटी के मैनेजर आशुतोष त्रिपाठी बताते है कि “मिजावं फेलवेयर सोसाइटी का अपना एक स्कूल भी है इसके अलावा इस गांव में लड़कियों के लिए कैफी आजमी गर्ल्स इंटर कॉलेज एंड कंप्यूटर ट्रेंनिंग सेंटर है। यहां बच्चों को कम्प्यूटर कोर्स कराया जाता है। इसके अलावा स्पोर्टस् अकादमी है जिसमे इनडोर बैडमिंटन कोर्ट है, जहां बच्चों को बैडमिंटन की ट्रेनिंग दी जाती है। और मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग भी दी जाती है। इसके अलावा हम प्रोग्राम ऑर्नाइज करते है लोगों को सरकार की स्कीम के बारें में बताते है।”
- मेरा बचपन भी साथ ले आया,
- गाँव से जब भी आ गया कोई…
हरिमंदिर पांडेय जो 25 सालों तक कैफ़ी आज़मी के साथ रहें
कैफी आज़मी साहब को और करीब से जानने के लिए हमने मुलाकात की हरिमंदिर पांडेय से जिन्होंने 25 सालों तक कैफ़ी आज़मी के साथ आंदोलनों में शिरकत की। हरिमंदिर पांडेय ने DNN24 को बताया कि आज़मगढ़ साहित्य और कल्चर का गढ़ है कैफी साहब मुंबई जाने के बाद वापस गांव आए और अपने गांव के लिए उन्होंने बहुत कुछ किया कैफी का सपना था कि हिंदुस्तान में वैज्ञानिक समाजवाद आए उनके समय में तो ये बदलाव नहीं आ पाया लेकिन वो जो सोचते समझते थे। आज गांव में प्राइमरी स्कूल, मकैनिरी हाउस, जूनियर हाउस जितने भी रचनात्मक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक कार्य हुए है जब सभी कार्यों की जब उन्होंने नींव रखी उस समय मैं उनके साथ रहा।”
अंगारे नाम की एक किताब पर अंग्रजों ने पाबंदी लगा थी। उस किताब को लोग छुप छुप कर पढ़ा करते थे। अंगारे किताब से प्रभावित होकर कैफ़ी साहब आज़ादी के आंदोलन की तरफ मुडे़ उसके बाद मदरसे की पढ़ाई छोड़ कर वह कानपुर चले गए। कैफी साहब हिंदुस्तान पाकिस्तान बंटवारे के खिलाफ थे इसलिए उन्होंने हिंदुस्तान को चुना।”
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