उर्दू शायरी की दुनिया में कई ऐसे सितारे हुए हैं जिनकी चमक तो बेमिसाल थी, लेकिन वे खुद कभी शोहरत की चकाचौंध में नहीं आए। ऐसी ही एक अज़ीम शायरा थीं अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा, जिनकी शायरी ने रूह को छुआ, लेकिन वे ख़ुद दुनिया की नज़रों से दूर एक गुमनाम ज़िंदगी जीती रहीं। आज हम उसी लाजवाब शायरा की कहानी बयान करेंगे, जिनकी शख़्सियत में नज़ाकत थी, अदब था और एक अजीब सी बेपरवाही भी।
पैदाइश और इब्तिदाई ज़िंदगी: बदायूं की ख़ुशनुमा फिज़ाओं में
आज से तक़रीबन 100 साल पहले, 23 अगस्त 1926 को बदायूं की सरज़मीन पर अज़ीज़ बानो ने आंखें खोलीं। वो ऐसे दौर में पैदा हुईं जब अदब और शायरी का बोलबाला था, और हर तरफ़ इल्म की महफ़िलें सजी रहती थीं। उनके बचपन में ही शायरी का शौक परवान चढ़ा। घर का माहौल भी कुछ ऐसा था कि अदब से दूर रहना नामुमकिन था। लफ़्ज़ों से खेलने का हुनर उन्हें कुदरती तौर पर मिला था। बचपन से ही उनके अंदर एक गहरा एहसास था, जो बाद में उनकी शायरी में झलका।
हम ऐसे सूरमा हैं लड़ के जब हालात से पलटे
अज़ीज़ बानो
तो बढ़ के ज़िंदगी ने पेश कीं बैसाखियां हम को
क़ुर्रतुल ऐन हैदर और ‘आग का दरिया’: एक दोस्ती, एक किरदार
अज़ीज़ बानो की शख़्सियत का एक दिलचस्प पहलू उनकी मशहूर नावेल निगार क़ुर्रतुल ऐन हैदर, जिन्हें अदबी हलकों में ऐनी आपा के नाम से जाना जाता था, से गहरी दोस्ती थी। ये दोस्ती सिर्फ़ एक पहचान तक महदूद नहीं थी, बल्कि इसमें एक ऐसी रूहानी गहराई थी जिसने अदब की दुनिया में एक नए रंग भर दिए। ऐनी आपा का कालजयी उपन्यास ‘आग का दरिया’ उर्दू अदब का एक मील का पत्थर है। इस नावेल में एक किरदार है – हमीद बानो। बहुत कम लोग जानते हैं कि ये किरदार असल में अज़ीज़ बानो की ही शख़्सियत से मुतासिर था। ऐनी आपा ने हमीद बानो के किरदार में अज़ीज़ बानो की नज़ाकत, उनकी बेफ़िक्री और उनके गहरे एहसासात को बड़ी ख़ूबसूरती से पेश किया। ये बात इस बात का सबूत है कि अज़ीज़ बानो की शख़्सियत कितनी अज़ीम और दिलकश थी कि एक अज़ीम नावेल निगार उनके वजूद से मुतासिर होकर एक अमर किरदार गढ़ देती है। ये दोस्ती सिर्फ़ कलम तक महदूद नहीं थी, बल्कि इसमें ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव, खुशियां और ग़म सब शामिल थे। अज़ीज़ बानो का असर उनकी शायरी के साथ-साथ उनके दोस्तों पर भी गहरा था।
मैं जब भी उस की उदासी से ऊब जाऊंगी
अज़ीज़ बानो
तो यूं हंसेगा कि मुझ को उदास कर देगा
शायरी, अफसाने और एक अंधा कुआं: शोहरत से बेपरवाही
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा सिर्फ़ शायरी तक ही महदूद नहीं थीं। उन्होंने अफ़साने और नावेल भी लिखे। लेकिन उनकी सबसे अनोखी बात यह थी कि उन्होंने कभी भी अपने कलाम को शाए कराने की कोशिश नहीं की। उन्हें शोहरत से कोई दिलचस्पी नहीं थी। उनका मानना था कि वह जो कुछ भी लिखती हैं, वह उनके अपने ज़हनी सुकून के लिए है, किसी की दाद-ओ-तहसीन हासिल करने के लिए नहीं। उनकी इस बेपरवाही में एक अजीब सी आज़ादी थी, एक ऐसी फ़कीरी थी जो सिर्फ़ सच्चे फनकार में ही पाई जाती है। उनकी हवेली के सहन में एक अंधा कुआं था। वह जो कुछ भी लिखतीं, बड़ी बेफिक्री से उस अंधे कुएं में डाल देती थीं। सोचिए, कितना अनमोल कलाम उस कुएं की गहराइयों में दफ़न हो गया होगा। ये बात उनकी अना और उनके फ़कीराना मिज़ाज को उजागर करती है। उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं था कि दुनिया उनके हुनर को पहचाने या न पहचाने। वो सिर्फ़ अपनी रूह की आवाज़ सुनती थीं और उसे कागज़ पर उतार देती थीं।
इंदिरा गांधी से मुलाक़ात और एक मुशायरे की दास्तान
अज़ीज़ बानो की गुमनामी का ये सिलसिला उस वक़्त टूटा जब मुल्क की सियासत में एक नया मोड़ आया। उन दिनों, श्रीमती इंदिरा गांधी सूचना एवं प्रसारण मंत्री थीं। बेगम सुल्ताना हयात नाम की एक अज़ीम खातून ने इंदिरा गांधी की सदारत में शायरात का एक मुशायरा मुनज़्ज़म किया। इस मुशायरे में अज़ीज़ बानो को भी बुलाया गया। उनकी ग़ज़लों में जो नज़ाकत और गहराई थी, वह सीधे दिल में उतर गई। इंदिरा गांधी खुद उनकी ग़ज़लों से बहुत मुतास्सिर हुईं। उन्होंने अज़ीज़ बानो की खूब दाद-ओ-तहसीन की और उनकी हौसला अफज़ाई की। ये वो लम्हा था जब अज़ीज़ बानो की शायरी की ख़ुश्बू फैलने लगी। देखते-देखते उनकी शोहरत दूर-दूर तक फैल गई। वह शायरा, जो शोहरत से भागती थी, अब शोहरत उसके पीछे चल पड़ी थी। ये एक दिलचस्प इत्तेफ़ाक़ था कि जिसे खुद अपनी शोहरत से कोई लेना-देना नहीं था, उसे ख़ुद वक़्त ने उठा कर दुनिया के सामने रख दिया।
अज़ीज़ बानो की शायरी: नज़ाकत, दर्द और बेखुदी का संगम
अज़ीज़ बानो की शायरी में एक अलग ही रंग था। उसमें दर्द भी था, नज़ाकत भी थी, और एक अजीब सी बेखुदी भी थी। उनके कलाम में क्लासिकल उर्दू शायरी की वो रूहानियत थी जो अब कम ही देखने को मिलती है। उनकी ज़बान सादा थी, लेकिन उसके मायने गहरे थे। उनकी ग़ज़लों में ज़िन्दगी की सच्चाइयों को बड़ी ख़ूबसूरती से बयान किया गया था। वह अपनी शायरी में एहसासात के बारीक रेशों को बड़ी आसानी से बुन देती थीं।
अहमियत का मुझे अपनी भी तो अंदाज़ा है
अज़ीज़ बानो
तुम गए वक़्त की मानिंद गंवा दो मुझ को
एक मुद्दत से ख़यालों में बसा है जो शख़्स
ग़ौर करते हैं तो उस का कोई चेहरा भी नहीं
अज़ीज़ बानो की शायरी में ज़िक्र सिर्फ़ महबूब का नहीं था, बल्कि वो ज़िन्दगी के हर पहलू को अपनी शायरी में समेट लेती थीं। उनकी ग़ज़लों में फ़लसफ़ा था, ज़िंदगी का तजुर्बा था, और एक गहरा इंसानी दर्द था। उनकी शायरी पढ़कर ऐसा लगता है जैसे कोई आपकी रूह से बात कर रहा हो। उन्होंने उर्दू अदब को एक नया अंदाज़ दिया, एक ऐसा अंदाज़ जिसमें दिल की गहराई थी और लफ़्ज़ों की सादगी।
एक गुमनाम आवाज़ की गूंज
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा ने 2005 में इस दुनिया को अलविदा कहा। उनकी वफ़ात के बाद भी उनका कलाम बरसों तक गुमनाम रहा। लेकिन कहते हैं ना कि सच कभी छिपता नहीं। 2009 में, सैयद मोइनुद्दीन अल्वी साहब ने उनकी शायरी को संकलित कर ‘गूंज’ नाम से एक शेरी मजमूआ शाए किया। ‘गूंज’ सिर्फ़ एक किताब नहीं थी, बल्कि यह अज़ीज़ बानो की उस आवाज़ की गूंज थी जो बरसों से अंधे कुएं की गहराइयों में दफ़न थी। इस मजमून के शाए होने के बाद उर्दू अदब के चाहने वालों को अज़ीज़ बानो की लाजवाब शायरी से रूबरू होने का मौक़ा मिला। उनकी ग़ज़लें आज भी दिलों पर राज करती हैं और उनकी शख़्सियत एक मिसाल है उन फ़नकारों की जो सिर्फ़ अपने फ़न के लिए जीते हैं, शोहरत के लिए नहीं।
मैं ने ये सोच के बोए नहीं ख़्वाबों के दरख़्त
अज़ीज़ बानो
कौन जंगल में उगे पेड़ को पानी देगा
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