24-Jul-2025
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नून मीम राशिद: मॉर्डन नज़्म के बाबा-ए-आदम जिन्होंने उर्दू शायरी को नया मोड़ दिया

शायरी की दुनिया में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो सिर्फ़ लफ़्ज़ों के जादूगर नहीं होते, बल्कि अपनी सोच और अपने अंदाज़ से पूरी ज़ुबान को एक नया रास्ता दिखा देते हैं। ऐसा ही एक नाम है नून मीम राशिद, जिन्हें उर्दू अदब में मॉर्डन नज़्म के बाबा-ए-आदम कहा जाता है।

शायरी की दुनिया में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो सिर्फ़ लफ़्ज़ों के जादूगर नहीं होते, बल्कि अपनी सोच और अपने अंदाज़ से पूरी ज़ुबान को एक नया रास्ता दिखा देते हैं। ऐसा ही एक नाम है नून मीम राशिद, जिन्हें उर्दू अदब में मॉर्डन नज़्म के बाबा-ए-आदम कहा जाता है। आज हम उसी अज़ीम शायर की दास्तान सुनेंगे, जिसने ग़ज़ल की रवायती दुनिया से निकलकर नज़्म को एक नई पहचान दी, और अपनी शायरी में इंसान की रूह के गहरे ज़ख़्मों और ऊंची उड़ानों को पिरोया।

बचपन और इब्तिदाई ज़िंदगी: रावी के किनारे पले बढ़े एक फ़नकार

नून मीम राशिद का असली नाम नज़र मोहम्मद था। वो 1 अगस्त 1910 को पंजाब के गुंजरांवाला के एक क़स्बे, अकाल गढ़ (मौजूदा अलीपुर चट्ठा) के एक ख़ुशहाल घराने में पैदा हुए। उनके वालिद का नाम राजा फ़ज़ल इलाही चिश्ती था, जो डिस्ट्रिक्ट इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स थे। रावी नदी के किनारे बसे इस गांव की फिज़ाओं में शायद कुछ ऐसा था कि उनके मिज़ाज में शायराना बेकरारी और कुदरत से इश्क़ बचपन से ही बस गया था। शुरुआती तालीम घर पर ही हुई। 

उनके घर में शेर-ओ-शायरी का चर्चा था। उनके दादा, जो पेशे से डॉक्टर और सिविल/मिलिट्री सर्जन थे, उर्दू और फ़ारसी में शेर कहते थे और वालिद भी शायरी के दिलदादा थे। इसी माहौल ने राशिद में बचपन से ही शायरी का शौक़ पैदा कर दिया। सात-आठ साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली नज़्म ‘इंस्पेक्टर और मक्खियां’ लिखी, जिसमें स्कूल मुआइना करने आए एक इंस्पेक्टर का मज़ाक़ उड़ाया गया था। इस नज़्म के लिए वालिद ने उन्हें एक रुपया इनाम दिया, दादा भी ख़ुश हुए लेकिन शायरी से दूर रहने की ताकीद भी की। शुरू में राशिद ने कुछ हम्दें और ना’तें भी लिखीं जो गुमनाम रिसालों में शाया हुईं।

उनके वालिद की बदौलत राशिद को हाफ़िज़, सादी, ग़ालिब और इक़बाल जैसे उर्दू-फ़ारसी के बड़े शायरों के कलाम से आगाही हुई। स्कूल के ज़माने में ही वो अंग्रेज़ी शायरों जैसे मिल्टन, वर्ड्सवर्थ और लॉन्गफ़ेलो से भी मुतास्सिर हुए और उनकी नज़्मों का तर्जुमा करके स्कूल की अदबी महफ़िलों में इनाम जीते।

लाहौर से दिल्ली तक: तालीम और बेकरारी का सफ़र

1926 में राशिद ने आला तालीम के लिए गवर्नमेंट कॉलेज लायलपुर में दाख़िला लिया, जहां अंग्रेज़ी अदब, तारीख़, फ़ारसी और उर्दू उनके मज़ामीन थे। उनकी शाइरी में दिलचस्पी को देखते हुए उन्हें कॉलेज की पत्रिका ‘बेकन’ का छात्र सम्पादक बना दिया गया, जहां उन्होंने अंग्रेज़ी में कई मज़मून लिखे। इस युवावस्था में भी वो ख़ासे तेज़ तर्रार थे। लायलपुर से निकलने वाले एक रिसाले ‘ज़मींदार गज़ट’ का संपादन भी उन्होंने किया और देहात सुधार पर कई मज़मून लिखे।

1928 में इंटरमीडिएट पास करने के बाद उन्होंने गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर में दाख़िला लिया। यहां वो कॉलेज के मुशायरों में हिस्सा लेने लगे और कॉलेज के रिसाले “रावी” के उर्दू सेक्शन के एडिटर बन गए. इसमें उनकी कई नज़्में और हास्य लेख शाया हुए। जल्द ही उनकी रचनाएं “निगार” और “हुमायूं” जैसी मयारी (standard) पत्रिकाओं में शाया होने लगीं। 1930 में बी.ए पास करने के बाद उन्होंने अर्थशास्त्र में एम.ए करने का फ़ैसला किया और साथ ही फ़्रांसीसी की नाइट क्लासेज में भी शिरकत करके सेकेंडरी के बराबर सनद हासिल कर ली। इसी दौरान उन्होंने आई.सी.एस और पी.सी.एस में भी क़िस्मत आज़माई, लेकिन निराश साबित हुए। उर्दू के पर्चे में उन्हें सबसे कम नंबर मिले थे। उसी अर्से में उन्होंने मुंशी फ़ाज़िल का इम्तिहान भी पास किया।

इस दौरान उनके आलेख जैसे “उर्दू शाइरी पर ग़ालिब का असर,” “ज़फ़र अली ख़ां की शायरी” और “इम्तियाज़ अली ताज का ड्रामा अनार कली” वग़ैरा शाया होते रहे. इसमें उन्हें डॉक्टर दीन मोहम्मद तासीर की रहनुमाई हासिल थी। एम.ए करने के बाद वो अपने वालिद के साथ कई अलग-अलग जगहों पर रहे और ख़ासा वक़्त शेख़ूपुरा और मुल्तान में गुज़ारा। 1934 में ताजवर नजीब आबादी के रिसाला “शहकार” का सम्पादन किया लेकिन एक साल बाद उससे अलग हो गए। फिर बेकारी से तंग आकर मुल्तान के कमिशनर के दफ़्तर में बतौर क्लर्क मुलाज़मत कर ली।

आज़ाद नज़्म का आग़ाज़: एक नई राह का मुसाफ़िर

मुल्तान में क्लर्क रहते हुए ही उन्होंने अपनी पहली आज़ाद नज़्म “जुरअत-ए-परवाज़” लिखी। लेकिन पाठकों को जिस नज़्म ने सबसे ज़्यादा चौंकाया वो “इत्तफ़ाक़ात” थी जो “अदबी दुनिया” लाहौर के सालाना में शाया हुई थी। 1935 में उनकी शादी मामूं ज़ाद बहन से कर दी गई। जिस ज़माने में राशिद मुल्तान में क्लर्क थे, वो इनायत उल्लाह ख़ान मशरिक़ी की ‘ख़ाकसार तहरीक’ से मुतास्सिर हो गए और मुल्तान के सालार बना दिए गए। वो उस तहरीक की डिसिप्लिन से मुतास्सिर होकर उसमें शामिल हुए थे और डिसिप्लिन की मिसाल क़ायम करने के लिए अपनी एक ख़ता पर ख़ुद को सर-ए-आम कोड़े भी लगवाए थे, लेकिन जल्द ही वो तहरीक की तानाशाही से मायूस होकर ख़ामोशी से अलग हो गए। उसी ज़माने में उन्होंने नॉवेल “माया” का तर्जुमा भी किया जिसका मुआवज़ा पब्लिशर डकार गया और किताब पर उनका नाम तक दर्ज नहीं किया।

मई 1939 में उनकी नियुक्ति ऑल इंडिया रेडियो में न्यूज़ एडिटर के रूप में हुई और उसी साल प्रोग्राम अस्सिटेंट बना दिए गए, फिर उन्हें डायरेक्टर आफ़ प्रोग्राम के पद पर तरक़्क़ी दे दी गई। 1941 में उनका तबादला दिल्ली कर दिया गया। 

एक दुनियादार शायर: अफ़सरी और दुनियावी तरक़्क़ी

राशिद दुनियादार और होशमंद आदमी थे। परम्परागत शायरों जैसी दरवेशी या लाउबालीपन से उन्हें दूर का भी वास्ता नहीं था। वो ख़ूब जानते थे कि किससे क्या काम लेना है, किससे बना कर रखनी है और किस पर अपनी अफ़सरी की धौंस जमानी है। दिल्ली रेडियो पर वो उस पंजाबी लॉबी में शामिल थे जो मजाज़ और अख़तरुल ईमान जैसे सादा-लौह शायरों की बर्खास्तगी का वजह बनी थी। अपनी इन्हीं तेज़-तर्रारियों की बदौलत वो 1942 में फ़ौज में अस्थायी कमीशन हासिल कर के समुंदर पार चले गए और फिर उनकी दुनियावी तरक़्क़ी का रास्ता हमवार होता चला गया।

1943 से 1947 तक वो इंटर सर्विसेज़ पब्लिक रिलेशन्ज़ डायरेक्ट्रेट इंडिया के तहत इराक़, ईरान, मिस्र, सीलोन (श्रीलंका) वग़ैरा में रहे। फ़ौज की मुलाज़मत ख़त्म होने पर वो ऑल इंडिया रेडियो में वापस आ गए और लखनऊ स्टेशन के रीजनल डायरेक्टर बना दिए गए। देश के बंटवारे के बाद उसी पद पर वो रेडियो पाकिस्तान पेशावर पर नियुक्त किए गए। एक साल पेशावर में और डेढ़ साल लाहौर में गुज़ारा फिर 1949 में उनको रेडियो पाकिस्तान के सदर दफ़्तर कराची में डायरेक्टर पब्लिक रिलेशन्स बना दिया गया। इसके बाद 1950 से 1951 तक पेशावर स्टेशन के रीजनल डायरेक्टर के पद पर काम किया।

1952 में वो संयुक्त राष्ट्र संघ (United Nations) में शामिल हुए और न्यूयॉर्क, जकार्ता, कराची और तेहरान में संयुक्त राष्ट्र संघ के सूचना विभाग में काम करते रहे। 1961 में बीवी के इंतिकाल के बाद उन्होंने 1963 में दूसरी शादी की। ये उनसे उम्र में 20 साल छोटी थीं, बाप की तरफ़ से इतालवी और मां की तरफ़ से अंग्रेज़ थीं और स्कूल में उनकी बेटी की टीचर भी थीं। शायरी के अलावा राशिद के दूसरे शौक़ घुड़सवारी, शतरंज, किशतीरानी थे। शराबनोशी कभी कम और कभी ज़्यादा उस वक़्त तक चलती रही जब तक दिल की बीमारी के नतीजे में डॉक्टरों ने सख़्ती से मना नहीं कर दिया। वो मुशायरों में बहुत कम शरीक होते थे।

शायरी का अनूठा अंदाज़ और फ़लसफ़ा

नून मीम राशिद मज़हबी, भौगोलिक, भाषायी और दूसरी हद-बंदियों को तोड़ते हुए एक ऐसे विश्व मानव के क़सीदाख़वां हैं जो एक नया मिसाली इंसान है जिसे वो “आदम-ए-नौ” या नया आदमी कहते हैं। ये ऐसा इंसान है जिसके बाहर और अंदर में पूर्ण सामंजस्य है और जो दुनिया में हाकिम है न महकूम… ऐसे इंसान का ख़्वाब राशिद की विचार व ज्ञान का ख़ास संदर्भ है।

राशिद का शे’री मिज़ाज रूमी, इक़बाल, दांते और मिल्टन जैसे शायरों से मिलता है जो एक ख़ास सतह से नीचे नहीं उतरते क्योंकि वो जिन समस्याओं और विषयों से दो-चार हैं वो उन साधारण समस्याओं और मनोदशाओं से अलग हैं।

तिरे करम से ख़ुदाई में यूँ तो क्या न मिला
मगर जो तू न मिला ज़ीस्त का मज़ा न मिला

नून मीम राशिद

उनकी शायरी का सबसे बड़ा ख़ुसूसी पहलू उनका फर्दीफ़लसफ़ा (individualistic philosophy) है। वो इंसान को उसकी अंदरूनी उलझनों, उसकी तन्हाई, उसकी आज़ादी की ख़वाहिश और उसके वजूद के मसाइल के साथ देखते थे। उन्होंने इंसान को समाज की बंदिशों से आज़ाद करने और उसे अपनी असली शनाख़्त दिलाने की कोशिश की। उनकी नज़्में अक्सर इंसान के अंदरूनी सफ़र, उसकी तन्हाई और ख़ुद को समझने की कोशिशों पर मरकूज़ होती थीं। 

वो रोमांटिक भी थे, लेकिन उनका रोमांस महज़ हुस्न-ओ-इश्क़ तक महदूद नहीं था। वो कुदरत के हुस्न में, इंसानी जज़्बों की गहराइयों में और वजूद के राज़ों में रोमांस तलाशते थे। उनकी शायरी में एक तरह की बेचैनी नज़र आती है, जो इंसान को हमेशा कुछ नया सोचने और तलाशने पर उकसाती है। राशिद की ज़ुबान अक़्सर पेचीदा मानी जाती है, लेकिन ये पेचीदगी उनकी सोच की गहराई और नए इस्तियारों के इस्तेमाल की वजह से है। वो लफ़्ज़ों को नए मानी देते थे, उन्हें एक नया वजूद अता करते थे। उनकी शायरी में रम्ज़ियत (symbolism) और अलामती अंदाज़ (allegorical style) ख़ूब मिलता है। 

मशहूर नज़्में और चंद अज़ाइम अशआर

नून मीम राशिद के चार शेरी मजमूए (poetry collections) शाया हुए- मावरा (1942), ईरान में अजनबी (1955), ला-इंसान (1969) और गुमां का मुमकिन (1977). ईरान में क़याम के दौरान उन्होंने 80 मॉर्डन फ़ारसी शायरों के कलाम का ट्रांसलेशन “जदीद फ़ारसी शायर” के नाम से संकलित किया। उनके अनगिनत आलोचनात्मक आलेख अलग-अलग मैगज़ीन में शाया हुए जिनको किताबी आकार नहीं मिला है। फ़ैज़ ने “नक़्श-ए-फ़रयादी” की भूमिका राशिद से ही लिखवाई थी हालांकि राशिद कभी प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े नहीं रहे। वो हलक़ा-ए-अर्बाब-ए-ज़ौक़ से संबंध रखते थे।

वही मंज़िलें वही दश्त ओ दर तिरे दिल-ज़दों के हैं राहबर
वही आरज़ू वही जुस्तुजू वही राह-ए-पुर-ख़तर-ए-जुनूं

रंग-ए-गुलशन दम-ए-बहार न पूछ
वहशत-ए-क़ल्ब-ए-बे-क़रार न पूछ

नून मीम राशिद

उर्दू अदब में योगदान

नून मीम राशिद का उर्दू अदब में सबसे बड़ा योगदान आधुनिक नज़्म को एक मज़बूत बुनियाद फ़राहम करना है। उन्होंने नज़्म को ग़ज़ल के साये से निकालकर एक मुस्तक़िल (independent) सिन्फ़ की शक्ल दी। उन्होंने सिर्फ़ शक्ल ही नहीं बदली, बल्कि नज़्म को ज़हन और फ़िक्र की गहराइयां दीं। उनके बाद आने वाले कई शायरों ने उनके अंदाज़ से प्रेरणा ली और उर्दू नज़्म को और भी तरक़्क़ी दी। 

उन्होंने उर्दू शाइरी को एक आफ़ाक़ी (universal) और फ़लसफ़ियाना अंदाज़ दिया। उनकी शायरी महज़ इश्क़ और हुस्न तक महदूद नहीं थी, बल्कि वो इंसान के वजूद, उसकी आज़ादी, उसकी तन्हाई और समाज की पेचीदगियों पर ग़ौर करते थे। उन्होंने उर्दू शायरी को नए इस्तियारे, नए बिंब और नई सोच दी। राशिद ने उर्दू शायरी को मग़रिबी अदब की नई तहरीकों से भी रूबरू कराया।  उन्होंने सिर्फ़ नज़्मों को आज़ादी ही नहीं दी, बल्कि उनमें एक नए क़िस्म की ज़हानत और जज़्बात को पिरोया। उनकी शायरी ने उर्दू अदब को एक नई बुलंदी पर पहुंचाया और उसे दुनिया के बड़े अदब के शाना-ब-शाना खड़ा कर दिया। 

आख़िरी सफ़र: एक आवाज़ जो हमेशा ज़िंदा रहेगी

नून मीम राशिद का इंतेक़ाल 9 अक्टूबर 1975 को दिल की धड़कन रुक जाने से इंग्लैंड के क़स्बे चल्टनहम में हुआ।  उनकी मौत से उर्दू अदब ने एक बहुत बड़ा फ़नकार खो दिया, लेकिन उनका फ़न, उनकी शाइरी आज भी ज़िंदा है। उनकी नज़्में आज भी सोचने पर मजबूर करती हैं, उन्हें अपने अंदर झांकने पर उकसाती हैं। राशिद एक ऐसे शायर थे जिन्होंने अपने दौर से आगे की बात की। उनकी शायरी को समझने के लिए शायद आज भी हमें अपने ज़हन के दायरे को वसीअ करना होगा। वो सिर्फ लफ़्ज़ों से खेलने वाले शायर नहीं थे, बल्कि वो एक फ़लसफ़ी थे, एक मुफ़क्किर थे, जिन्होंने शायरी के ज़रिए इंसान को इंसानियत का रास्ता दिखाया।

नून मीम राशिद की शाय़री एक समंदर है, जिसकी गहराइयों में उतरकर ही हम उसकी असली ख़ूबसूरती और अज़मत को समझ सकते हैं। वो एक ऐसी आवाज़ थे जिसने उर्दू शाइरी को नया मोड़ दिया, और हमेशा ज़िंदा रहेगी।

ये भी पढ़ें: इस्मत चुग़ताई: उर्दू अदब की बुलंद आवाज़ और बेबाक कलम की शख़्सियत 

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