भारत अपनी विविधता के लिए जाना जाता है, जहां हर क्षेत्र और धर्म की अपनी ख़ास परंपराएं और पहनावे हैं। इसी परंपरा का हिस्सा है बिहार के मुस्लिम घरानों में पहना जाने वाला **छापा कपड़ा**। ये पारंपरिक पोशाक आज भी अपनी अनोखी पहचान बनाए हुए है। ख़ासतौर पर शादियों में, छापा कपड़ा एक अहम हिस्सा माना जाता है।
छापा कपड़े की अहमियत और इतिहास
छापा कपड़ा आमतौर पर गया, पटना, दरभंगा, सिवान और बिहार के दूसरे ज़िलों में तैयार किया जाता है। इसका इतिहास 19वीं सदी से जुड़ा है। अंग्रेज़ अधिकारी डॉक्टर फ्रांसिस बुकानन ने 1811-12 के दौरान अपने लेखों में छापा कपड़े का ज़िक्र किया था। उस समय ये कपड़े मुस्लिम घरानों में ख़ास तौर पर पहने जाते थे। हालांकि, बदलते ज़माने और फैशन की वजह से चलन थोड़ा कम हुआ है, लेकिन इसकी पहचान अब भी बनी हुई है।

शादी में कपड़े का अहम किरदार
शादी के मौके़ पर दूल्हा अपनी दुल्हन को छापा कपड़े से बने ख़ास लिबास भेजता है। दुल्हन की साड़ी, शरारा, गरारा, और लहंगा सभी छापा कपड़े से तैयार किए जाते हैं। इसके साथ ही पर्दे, बिस्तर, और दूसरे सजावटी सामान भी छापा कपड़े के बनाए जाते हैं। छापे की ये अनोखी डिज़ाइन लकड़ी के ब्लॉक और चांदी की परत का इस्तेमाल करके बनाई जाती है। शादी के दिन दूल्हे के पास छापा कपड़े से बना रूमाल रखना भी एक परंपरा है।
छापा कपड़े को तैयार करने का प्रोसेस बेहद ख़ास है। कारीगर लकड़ी के ब्लॉक पर फूलों और पत्तियों के डिज़ाइन उकेरते हैं। फिर इस पर गोंद, फ़ेविकोल और दूसरे रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है। कपड़े पर प्रिंटिंग करते समय चांदी की एक पतली परत का भी इस्तेमाल होता है। इसे कई बार धोने के बाद भी इसकी चमक बरकरार रहती है। एक साड़ी को तैयार करने में लगभग 500-600 रुपये की लागत आती है, और इसे बाज़ार में 1000 रुपये में बेचा जाता है।
छापा कपड़े की मांग भारत के साथ-साथ विदेशों में भी है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, अमेरिका, और ऑस्ट्रेलिया में बसे बिहारी मुस्लिम परिवार अपनी शादियों के लिए इसे पसंद करते हैं। बंटवारे के बाद पाकिस्तान गए बिहारी परिवार भी इस परंपरा को बनाए हुए हैं। छापा कपड़ा न सिर्फ़ एक पोशाक है, बल्कि ये बिहार के मुस्लिम समुदाय की परंपराओं और संस्कृति का प्रतीक भी है।
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