भारत के पूर्व ओपनर और स्टार बल्लेबाज सलीम दुर्रानी का 88 साल की उम्र में निधन हो गया। वो कैंसर से पीड़ित थे। सलीम दुर्रानी देश के पहले खिलाड़ी थे, जिन्हें 1960 में अर्जुन अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। सलीम दुर्रानी ने ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ अपना टेस्ट डेब्यू किया था। अपने करीबन 13 साल के करियर में उन्होंने भारत के लिए 29 टेस्ट मैच खेले। टेस्ट में उनके नाम 1202 रन दर्ज हैं। टेस्ट क्रिकेट में सलीम दुर्रानी के नाम एक शतक और 7 अर्धशतक दर्ज हैं। टेस्ट में उनका सर्वाधिक स्कोर 104 रन रहा।
11 दिसंबर 1934 को जन्में सलीम दुर्रानी का जन्म भारत में नहीं, बल्कि अफ़ग़ानिस्तान में हुआ था। अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल में। उनका पूरा नाम सलीम अज़ीज़ दुर्रानी था। अब आप सोच रहे होंगे उनके नाम के बीच में लगा अज़ीज़ क्या है? ये उनके पिता का नाम है। उनके पिता का नाम अब्दुल अज़ीज़ था। सलीम दुर्रानी के पिता अब्दुल अज़ीज़ बंटवारे के बाद क्रिकेट कोच के तौर पर कराची चले गए, जबकि सलीम दुर्रानी अपनी मां के साथ जामनगर में रहने लगे। सलीम दुर्रानी ने पहले क्रिकेट कोच उनके पिता ही रहे। क्रिकेट की बारीकियां उन्होंने अपने पिता से ही सीखीं।
हर साल जाड़ों में पिस्ते-बादाम बेचने कलकत्ता आने वाला, टूटी-फूटी बंगाली बोलने वाला, रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी ‘काबुलीवाला’ का नायक रहमत किसे याद नहीं होगा। पांच साल की उस छोटी सी बच्ची को भी कोई नहीं भूल सकता जिसके भीतर रहमत को अपने सुदूर देश में रहने वाली अपनी बेटी दिखाई देती थी। फ़राख़दिली और मोहब्बत से भरपूर इस कहानी में अफ़गानिस्तान और भारत के पुराने संबंधों की मीठी मिसालें मौजूद हैं।
इन पुराने संबंधों के निशान हमारे मुल्क में कितनी ही जगहों पर, कितने ही रूपों में उकेरे मिलते हैं। उनकी गर्मी से मानवीयता पर यकीन पुख्ता होता है। ऐसी ही एक मिसाल मास्टर अज़ीज़ के नाम से याद किये जाने वाले अब्दुल अज़ीज़ की भी है।
काबुल में 1905 में जन्मे अज़ीज़ के पिता अफगानिस्तान के बादशाह अमानुल्ला खान के मुलाजिम थे और ड्राई फ्रूट्स का स्वतंत्र कारोबार भी करते थे। अज़ीज़ के बड़े भाई ने ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की और अपने भाई को लेकर बेहतर रोज़गार की तलाश में कराची पहुँच गए। यह 1930 की दहाई के शुरुआती साल थे। लम्बे कद के अज़ीज़ जन्मजात खिलाड़ी थे और किसी भी तरह के खेल में हाथ आजमाने से गुरेज़ नहीं करते थे। कराची में जिस मोहल्ले में वे रहते थे वहां नाऊमल जेऊमल मखीजा भी रहते थे जिन्हें भारत में टेस्ट क्रिकेट का पहला ओपनिंग बैट्समैन होने का एजाज़ हासिल था। उन्होंने अज़ीज़ के भीतर के खिलाड़ी को पहचाना और क्रिकेट खेलने के लिए प्रोत्साहित किया।
अब्दुल अज़ीज़ ने विकेटकीपर-बल्लेबाज़ के रूप में क्रिकेट खेलना शुरू किया और नाऊमल जेऊमल के यकीन को सच साबित करते हुए इतना नाम कमाया कि 1935-36 में जैक राइडर की कप्तानी में भारत के दौरे पर आई ऑस्ट्रेलियाई टीम के खिलाफ दूसरे अनऑफिशियल टेस्ट मैच में अपने लिए जगह बना ली।
फिर कुछ समय बाद यूं हुआ कि सिंध की तरफ से खेलते हुए उनका मुकाबला नवानगर की टीम से था। अज़ीज़ के खेल से प्रभावित होकर कर्नल रंजीतसिंह उर्फ़ रणजी के भतीजे जामसाहब दिग्विजय सिंह ने उनको नवानगर की तरफ से खेलने का न्यौता दिया। इस तरह अब्दुल अज़ीज़ जामनगर पहुँच गए जहाँ उन्हें न केवल पुलिस में नौकरी मिली, अमर सिंह और वीनू मांकड़ जैसे दिग्गज क्रिकेटरों के साथ खेलने का मौक़ा भी मिला। नवानगर की टीम के पास उन दिनों देश का सबसे तेज़ पेस-अटैक था जिसकी अगुवाई अमर सिंह, मुबारक अली और शूटे बनर्जी की तिकड़ी किया करती थी। उनकी गेंदबाजी पर विकेटकीपिंग करना बड़ी चुनौती थी जिसे अज़ीज़ ने बखूबी निभाया. 1936-37 में नवानगर की टीम रणजी ट्रॉफी में चैम्पियन बनी।
बदकिस्मती से इसके दो साल बाद एक खेल में गेंद उनकी आँख पर लगी जिसके बाद उनके खेल-करियर का असमय अंत हो गया. अगले दस साल दुनिया भर में राजनीतिक उथलपुथल के थे – इस दौरान दूसरा विश्वयुद्ध भी हुआ और भारत-पाकिस्तान का बंटवारा भी।
अब्दुल अज़ीज़ के भीतर क्रिकेट को लेकर जो जज्बा था वह चोट लगाने के बाद भी कम नहीं हुआ था। वे अपने बेटे को खेल के सारे गुर सिखाते आ रहे थे। लेकिन उन्हें कराची भी पसंद था। विभाजन के बाद उन्हें वहीं बसने का विचार आया और वे अपने परिवार को छोड़ कर कराची पहुँच गए। बाक़ी परिवार नवानगर में रह गया जिसमें उनकी पत्नी और 12 साल का बेटा सलीम शामिल थे।
पाकिस्तान में उन्हें सिंध के उसी विख्यात मदरसे में क्रिकेट कोच की नौकरी मिल गई जहाँ मोहम्मद अली जिन्ना ने पढ़ाई की थी। आगे चल कर पाकिस्तान के अनेक स्टार क्रिकेटर भी इसी स्कूल से निकले। इस जगह अब्दुल अज़ीज़ को अपना अर्जुन हासिल हुआ जिसका नाम था हनीफ़ मोहम्मद।
विभाजन के बाद पाकिस्तान पहुंचे हनीफ मोहम्मद का परिवार विकट गरीबी से दो-चार था। इस पूरे परिवार को क्रिकेट की कैसी लत रही होगी इसका सबूत इस बात में मिलता है कि इसके चार सगे भाइयों– हनीफ़, मुश्ताक़, सादिक और वज़ीर – ने पाकिस्तान की तरफ से टेस्ट क्रिकेट खेला। विभाजन के समय हनीफ़ कुल 13 साल के थे। बहरहाल जब एक दफा अब्दुल अज़ीज़ ने हनीफ़ को अपने स्कूल में क्रिकेट खेलते हुए देखा तो उसकी बड़ी प्रतिभा को तुरंत पहचान लिया। उन्होंने हनीफ़ से कहा कि वह क्रिकेट छोड़कर और कोई खेल ने खेले क्योंकि उसके भीतर बहुत बड़ा खिलाड़ी बन सकने की संभावना है।
अब्दुल अज़ीज़ को मामूली तनख्वाह मिलती थी और उनके पास सीखने आने वाले ज्यादातर बच्चे गरीब घरों से ताल्लुक रखते थे। जाहिर है पैसे की लगातार तंगी रहती थी लेकिन दिन-रात क्रिकेट को जीने-सोचने वाले अज़ीज़ के लिए वह कोई बड़ी बाधा नहीं थी। वे अपना सारा पैसा इन बच्चों की ट्रेनिंग पर लगा दिया करते। अपनी आत्मकथा में हनीफ़ मोहम्मद ने लिखा है, “वे अपना सारा पैसा अपने छात्रों पर खर्च कर देते थे। वे हमारे लिए जूते, दस्ताने, बल्ले और ज़रूरत की हर चीज़ खरीदा करते थे। कभी-कभी जब उनकी जेब में एक धेला भी न बचता, वे हम बच्चों से कहते थे कि अपने घर से उनके लिए खाने को कुछ ले आएं। वे एक बाप और फ़रिश्ते जैसे थे। मुझे वैसा कोई दूसरा इंसान नहीं मिला।”
मास्टर अज़ीज़ के इस काबिल छात्र के ज़िक्र के बिना आज दुनिया की क्रिकेट का इतिहास अधूरा माना जाता है। डॉन ब्रैडमैन के रेकॉर्ड को तोड़कर फर्स्ट क्लास क्रिकेट में एक पारी में 499 रन बनाने वाले हनीफ़ के बारे में विख्यात था कि उनका विकेट लेना दुनिया के किसी भी गेंदबाज़ के लिए सपने जैसा होता था। क्रीज़ पर ख़ूब लम्बे समय तक टिके रहने में उन्हें महारत हासिल थी। ऐतिहासिक तथ्य है कि ब्रिजटाउन में वेस्ट इंडीज़ के खिलाफ खेलते हुए 1957-58 में हनीफ़ ने सोलह घंटे तक बैटिंग की थी और तिहरा शतक लगाकर अपने देश को हार से बचाया था। बल्ले को एकदम सीधा थामने के अलावा बेहतरीन हुक और पुल खेलना हनीफ़ को मास्टर अज़ीज़ ने सिखाया था।
उधर उन्हीं दिनों भारत में एक खिलाड़ी अपनी गैर-पारम्परिक बल्लेबाजी के लिए नाम कमा रहा था। उसके बारे में यह मशहूर था कि जिस स्टैंड से दर्शकों की मांग उठती वह उधर ही छक्का मार देता था। इसके अलावा अपनी स्लो लेफ्ट-आर्म गेंदबाजी से विपक्षी को छकाने की भी उसमें ताब थी। उसने भारत की तरफ से 29 टेस्ट मैच खेले और एक बेहद आकर्षक खिलाड़ी के तौर पर अपना नाम भारतीय क्रिकेट के इतिहास में दर्ज कराया।
सलीम दुर्रानी नाम के इस खिलाड़ी को भी मास्टर अज़ीज़ ने ही ट्रेनिंग दी थी। दरअसल सलीम मास्टर अब्दुल अज़ीज़ का वह बेटा था जिसे वे विभाजन के समय नवानगर छोड़ आए थे और जिसे समय-समय पर उनसे क्रिकेट के नए-नए गुर सीखने को मिला करते थे।
भारतीय उपमहाद्वीप के दो बड़े देशों को तोहफों के तौर पर ऐसे दो महान खिलाड़ी देने वाले मास्टर अज़ीज़ का जीवन और काम निखालिस और वास्तविक था। यह और बात है कि उनकी उदारता और मानवीयता ‘काबुलीवाला’ कहानी के काल्पनिक नायक रहमत की बेतरह याद दिलाती है।
अशोक पांडे चर्चित कवि, चित्रकार और अनुवादक हैं। पिछले साल प्रकाशित उनका उपन्यास ‘लपूझन्ना’ काफ़ी सुर्ख़ियों में है। पहला कविता संग्रह ‘देखता हूं सपने’ 1992 में प्रकाशित। जितनी मिट्टी उतना सोना, तारीख़ में औरत, बब्बन कार्बोनेट अन्य बहुचर्चित किताबें। कबाड़खाना नाम से ब्लॉग kabaadkhaana.blogspot.com। अभी हल्द्वानी, उत्तराखंड में निवास।
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