कश्मीर की ख़ूबसूरत वादियों में सदियों से एक अनमोल विरासत संजोई जा रही है जो है सोज़नी और जमावार कढ़ाई। ये सिर्फ़ एक आर्ट नहीं, बल्कि कश्मीर की सांस्कृतिक पहचान और परंपरा का आइना है। इसी कला को ज़िंदा रखने के लिए Ghulam Mohammad Beigh अपनी पूरी जिंदगी समर्पित कर चुके हैं। उनका परिवार करीब 200 से 250 सालों से इस कला से जुड़ा हुआ है, और अब गुलाम मोहम्मद बेग इसकी पांचवीं पीढ़ी हैं।
बचपन से ही कला में रम गए गुलाम मोहम्मद बेग
Ghulam Mohammad Beigh की पैदाइश श्रीनगर के नौशेरा इलाके में हुई। उनके घर में ही हैंडीक्राफ्ट का कारखाना था, जहां वे बचपन से ही इस कला को सीखने लगे। जब वो सिर्फ़ 10 साल के थे, तब उन्होंने पहली बार सुई में धागा डालना सीखा। धीरे-धीरे कढ़ाई का हुनर उनके हाथों में उतरता गया। वे याद करते हैं,”हमारा वक्त ज़ाया नहीं होता था। हम खेलते भी थे और फिर कारखाने में काम करने लौट आते थे।”

परिवार में कढ़ाई का माहौल होने की वजह से सीखना स्वाभाविक था, लेकिन यह सफ़र आसान नहीं था। जब वे 15-20 साल के हुए, तब पहली बार उन्होंने जमावार कढ़ाई करने की कोशिश की। ये उनके लिए बड़ी चुनौती थी। वे बताते हैं, “पहला पीस बनाने में बहुत मुश्किलें आई। दिमाग ठीक से काम नहीं कर रहा था, फोकस नहीं हो पा रहा था। अगर गलती होती, तो बुजुर्ग हमें डांटते और फिर सिखाते।”
सोज़नी और जमावार: बारीकी से बुनी गई कहानियाँ
सोज़नी और जमावार कढ़ाई केवल कपड़ों पर बने डिज़ाइन नहीं, बल्कि मेहनत, सब्र और कौशल की मिसाल हैं।
सोज़नी कढ़ाई
सोज़नी वर्क बेहद महीन और जटिल होता है। इस कला में पहले कपड़े पर डिज़ाइन की छपाई की जाती है और फिर कारीगर बहुत ही बारीकी से कढ़ाई करते हैं। यह महीनों, बल्कि कई सालों तक चलने वाला प्रोसेस होता है। इसमें फूल, पत्तियां और कश्मीरी बेल-बूटे बनाए जाते हैं, जो कपड़े को एक राजसी लुक देते हैं।

जमावार कढ़ाई
Ghulam Mohammad Beigh जमावार शॉल बनाने के लिए फेमस हैं। वे बताते हैं कि जमावार में पूरी शॉल पर कढ़ाई होती है, जिससे कारीगर को अपना असली हुनर दिखाने का मौक़ा मिलता है। इस कला को करने के लिए 15-20 साल का अनुभव ज़रूरी होता है, क्योंकि यह बहुत लंबी और मुश्किल प्रक्रिया होती है। एक जमावार शॉल को पूरा करने में कई महीनों या सालों का समय लग सकता है।

Ghulam Mohammad Beigh के मुताबिक, एक शॉल के पीछे 25 परिवारों का योगदान होता है। यानी जब आप कोई पश्मीना शॉल खरीदते हैं, तो वो केवल एक शख्स का काम नहीं होता, बल्कि उसके पीछे कई हाथों की मेहनत छिपी होती है।
परंपरा और विरासत को संजोने की ज़िम्मेदारी
Ghulam Mohammad Beigh का परिवार इस कला को पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज़िंदा रखता आ रहा है। उनके पास 200-250 साल पुराने धागे आज भी सुरक्षित रखे गए हैं। जब भी कोई नया पीस बनाया जाता है, तो उसके धागे बचाकर रखे जाते हैं ताकि भविष्य में कोई मरम्मत करनी पड़े तो वही धागा इस्तेमाल किया जा सके। वो बताते हैं, “जब भी हम कुछ नया बनाते हैं, तो कोशिश रहती है कि पीस इतना सुंदर हो कि कोई उसमें गलती न निकाल सके।”
उनका टारगेट सिर्फ कढ़ाई करना नहीं, बल्कि इस विरासत को नई पीढ़ी तक पहुंचाना भी है। पहले जब कोई इस काम को सीखने आता था, तो उसे कढ़ाई सिखाने के साथ-साथ पैसे भी दिए जाते थे। इसका मकसद यह था कि लोग इस काम को केवल शौक़ के तौर पर न सीखें, बल्कि इसे रोज़गार के रूप में अपनाएं।
सम्मान और पहचान
Ghulam Mohammad Beigh की मेहनत को कई बड़े मंचों पर सराहा गया है। उनके परिवार को अब तक चार राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं, और उन्हें ख़ुद भी “राष्ट्रीय पुरस्कार” और “शिल्प गुरु” सम्मान से नवाज़ा गया है। जब भी कहीं एग्ज़ीबिशन लगती है, तो वे अपने बुजुर्गों द्वारा बनाए गए पीस वहां प्रदर्शित करते हैं।

आने वाली पीढ़ी के लिए संदेश
वह कहते हैं, “अवॉर्ड जीतना हमारा शौक़ नहीं, बल्कि जुनून है। हम ऐसा काम करना चाहते हैं, जो हमारी कला की पहचान को ज़िंदा रखे।” Ghulam Mohammad Beigh चाहते हैं कि युवा इस कला को सीखें और इसे आगे बढ़ाएं। वे मानते हैं कि यह सिर्फ़ एक पेशा नहीं, बल्कि संस्कृति और परंपरा का हिस्सा हैd। अगर युवा इसे अपनाएंगे, तो यह कला आने वाले सैकड़ों सालों तक जीवित रह सकती है।
गुलाम मोहम्मद बेग की कहानी केवल एक कारीगर की नहीं, बल्कि संघर्ष, समर्पण और प्रेम की कहानी है। यह कहानी हमें बताती है कि हाथों से बनाई गई चीज़ें केवल कपड़ा नहीं होतीं, वे भावनाओं और परंपराओं का मेल होती हैं। सोज़नी और जमावार कढ़ाई की यह विरासत सदियों तक बनी रहे, यही उनकी सबसे बड़ा मक़सद है।
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