03-Jun-2025
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सरस्वती की अनसुनी दास्तान: घर की चौखट से ‘कनिष्का पैड’ ब्रांड तक

सरस्वती के सैनिटरी पैड बनारस, आगरा, पंजाब, संभल और सोनभद्र तक पहुंच रहे हैं, और उनकी मासिक आय 30-40 हज़ार रुपये हो चुकी है।

यह सिर्फ़ एक कहानी नहीं, बदलाव की बयार है। उस सोच के ख़िलाफ़ जिसने सदियों से कहा, ‘औरत सिर्फ़ चौखट तक’। यह हक़ीक़त है उस हिम्मत की जिसने परंपराओं की बेड़ियों को तोड़ने की ठानी। यह कहानी है सरस्वती की, जिसने ठान लिया कि बदलाव आएगा और इसकी शुरुआत वह खुद करेंगी। सरस्वती, एक ऐसी लड़की जिसके सपनों की उड़ान को हालात ने जकड़ लिया। जहां बेटियों के लिए शिक्षा नहीं, बल्कि घर के काम और परंपराएं ही मायने रखती थीं, वहीं सरस्वती ने अपने अंदर सपनों की एक लौ जला रखी थी। उन्हें सिर्फ़ दसवीं तक पढ़ाई की इजाज़त मिली, फिर उनके सपनों पर ताले जड़ दिए गए।

सरस्वती के संघर्ष की शुरुआत

2011 में सरस्वती की शादी हुई। उनके पति ने उन्हें पढ़ाई जारी रखने के लिए कहा। घर में ननद थी, लेकिन सास नहीं। सरस्वती के मन में डर था कि लोग क्या कहेंगे? घर-गृहस्थी संभालनी है तो पढ़ाई का क्या फायदा? बचपन से उनका सपना था सरकारी नौकरी करने का, पुलिस में जाने का, लेकिन उनके पिता ने पढ़ाई जारी रखने से मना कर दिया था।

16 साल की उम्र में शादी और वही पुरानी सोच से बंधा माहौल, जहां मासिक धर्म पर खुलकर बात करना तो दूर, ये शब्द सुनते ही सभी की भौंहें तन जाती थीं। जहां महिलाएं शर्म से कपड़े के टुकड़े इस्तेमाल करती थीं और सैनिटरी पैड ख़रीदने से हिचकिचाती थीं। लेकिन सरस्वती ने इसे चुनौती के रूप में लिया। उन्होंने ठान लिया कि अब बदलाव ज़रूरी है, यह सोच बदलनी ही होगी।

पहला कदम: सैनिटरी पैड का बिज़नेस

सरस्वती ने सैनिटरी पैड बेचने की शुरुआत एक दुकान से की। वहां अलग-अलग कंपनियों के पैड मिलते थे। कुछ अच्छे, कुछ ख़राब। इस दौरान उनके पति ने उन्हें सुझाव दिया कि वे अपना खुद का बिज़नेस शुरू करें। ये सुनकर सरस्वती को पहले झिझक हुई कि परिवार और समाज लोग कैसे रिएक्ट करेंगे। लेकिन उनके पति ने उन्हें फिल्म ‘पैडमैन’ दिखाई और कहा, “जब एक आदमी बिना शर्म के पैड का बिज़नेस कर सकता है, तो तुम क्यों नहीं?”

उन्होंने अपने पति से 50 हज़ार रुपये लेकर दिल्ली, गाज़ियाबाद, और नोएडा के ब़ाजारों में घूमना शुरू किया, ताकि पैड बनाने के लिए सही कच्चा माल और सप्लायर ढूंढ सकें। कई जगहों से ऑफर मिले, लेकिन क्वालिटी अच्छी नहीं थी। आख़िरकार, उन्हें नोएडा में एक फैक्ट्री मिली, उन्होंने कच्चे माल वाले से मिलवाया और वहां से वे उच्च गुणवत्ता वाले पैड बनाकर बेचने लगीं।

झिझक से आत्मविश्वास तक का सफ़र

पैड तो बन गए, लेकिन दुकानों तक पहुंचाने में मुश्किलें आईं। पुरुष दुकानदारों से बात करने में झिझक थी। समाज में ये धारणा थी कि एक महिला पैड कैसे बेच सकती है? लेकिन उनके पति ने उनका साथ दिया। उन्होंने शुरुआत में खुद दुकानदारों से बातचीत की, फिर धीरे-धीरे सरस्वती को भी सिखाया।

अब सरस्वती के पास कई एनजीओ, सरकारी हॉस्पिटल, और स्कूलों से ऑर्डर आने लगे। उनके बनाए ‘कनिष्का पैड’ को महिलाओं ने अपनाया और सराहा। उन्होंने महिलाओं को समझाया कि कपड़े के बजाय सैनिटरी पैड स्वास्थ्य के लिए बेहतर हैं। धीरे-धीरे, उनकी टीम का विस्तार हुआ, और महिलाओं ने पैड खरीदने के साथ-साथ इसे बनाने के काम में भी रुचि दिखानी शुरू कर दी।

महिलाओं को सैनिटरी पैड के बारे में समझाया

DNN24 से बात करते हुए सरस्वती ने बताया कि उनके गांवों की महिलाओं की एक बैठक होती है, जिसमें आठ गांवों की महिलाएं शामिल होती हैं। इस बैठक में वे अपनी समस्याओं पर खुलकर चर्चा करती हैं और समाधान तलाशती हैं। इसी बैठक में सरस्वती ने अपने बनाए हुए सैनिटरी पैड दिखाए और कहा, “इन्हें इस्तेमाल करके देखिए, फिर अपना फीडबैक दीजिए।” महिलाओं ने पहले झिझकते हुए जवाब दिया, “हमने कई बार पैड इस्तेमाल किए, लेकिन वे अच्छे नहीं होते। कपड़े ख़राब हो जाते हैं और कई समस्याएं होती हैं।” इस पर सरस्वती ने उन्हें समझाया कि कपड़े का इस्तेमाल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है और इससे बीमारियों का खतरा रहता है।

धीरे-धीरे महिलाओं ने सरस्वती के बनाए ‘कनिष्का पैड’ को इस्तेमाल करना शुरू किया और उन्हें ये पसंद आया। कुछ ही वक्त में, उन्होंने 50 पैकेट खरीदें। महिलाओं और लड़कियों ने खुशी-खुशी कहा, “दीदी, आपका पैड बहुत अच्छा है— क्वालिटी में भी और इस्तेमाल में भी। हमें कभी लगा ही नहीं था कि हम पैड इस्तेमाल कर पाएंगे, क्योंकि हम हमेशा कपड़ा ही इस्तेमाल करते थे।” अब ये महिलाएं कपड़े की जगह सरस्वती के ‘कनिष्का पैड’ को अपनाने लगी हैं। सरस्वती की इस कोशिश ने न सिर्फ़ उनकी सोच बदली, बल्कि उन्हें बेहतर स्वास्थ्य और आत्मनिर्भरता की ओर भी बढ़ाया

समूह की ताकत और बढ़ता बिज़नेस

सरस्वती ने महिलाओं को आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाने के लिए उन्हें अपने साथ जोड़ा। आज उनके गांव में 19 स्वयं सहायता समूह हैं, जिनमें से एक है ‘सूर्य उदय समूह’। इसमें 10 महिलाएं काम करती हैं। जब ऑर्डर ज़्यादा आते हैं, तो वो दूसरे समूहों की महिलाओं को भी शामिल कर लेती हैं। अब उनके सैनिटरी पैड बनारस, आगरा, पंजाब, संभल और सोनभद्र तक पहुंच रहे हैं, और उनकी मासिक आय 30-40 हज़ार रुपये हो चुकी है।

सरस्वती के प्रयासों को सराहा गया और उन्हें जिला स्तरीय कार्यक्रमों में सम्मानित किया गया। सरकारी अधिकारी भी उनके काम में सहयोग कर रहे हैं और उन्हें पैकेजिंग, मार्केटिंग जैसी चीज़ों के बारे में समझाते हैं।

संघर्ष और समर्पण: सरस्वती की रोज़मर्रा की जंग

हर सुबह सरस्वती के लिए एक नई चुनौती लेकर आती है। घर की ज़िम्मेदारियां, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना और अपने बिज़नेस को संभालना। हर दिन उनके लिए मेहनत और धैर्य की परीक्षा होती है। लेकिन उन्होंने कभी हार मानना नहीं सीखा।

“मेरे तीन बच्चे हैं, जो स्कूल जाते हैं। घर में मेरे ससुर, पति और मैं रहते हैं। पहले मेरी ननद भी साथ थीं, लेकिन अब उनकी शादी हो चुकी है। मैं अपने घर की ज़िम्मेदारियों को पूरी तरह निभाते हुए अपने बिजनेस को भी आगे बढ़ा रही हूं। अगर किसी ऑर्डर की डिलीवरी करनी होती है, तो मैं सुबह जल्दी उठकर घर का काम निपटाती हूँ, बच्चों को स्कूल भेजती हूँ और फिर अपने काम पर निकलती हूं। किसी भी दूसरे ज़रूरी काम के मुताबिक, मुझे सुबह 10 बजे तक हर हाल में घर का काम पूरा करना होता है, ताकि व्यवसाय पर ध्यान दे सकूं।

अचार और पापड़ का कारोबार

लॉकडाउन के दौरान, उन्होंने अचार बनाने का काम भी शुरू किया। उन्होंने अपने सूर्योदय सहायता समूह की पांच महिलाओं के साथ मिलकर घर में ही अलग-अलग तरह के अचार तैयार किए। लहसुन, आम, अदरक, हरी मिर्च हर स्वाद का लज़ीज अचार बना रही हैं। धीरे-धीरे, उनका अचार स्थानीय मंडियों से होते हुए ‘लेमन ट्री होटल’ जैसे बड़े रेस्टोरेंट तक पहुंच गया। इसके बाद, मैत्री फाउंडेशन ने सरस्वती से संपर्क किया और पापड़ बनाने का सुझाव दिया। सरस्वती ने सूजी, आलू और चावल के पापड़ बनाए और सैंपल भेजे, जिसे काफी पसंद किया गया। अब उन्हें पापड़ के बड़े ऑर्डर भी मिलने लगे हैं।

सफलता की उड़ान

सरस्वती की कहानी सिर्फ़ उनकी नहीं, हर उस महिला की कहानी है जिसने सपने देखें लेकिन समाज ने उन्हें छोटा बना दिया। हर उस आवाज़ की कहानी है जिसे दबाने की कोशिश की गई। लेकिन उन्होंने साबित कर दिया कि अगर हौसला हो तो कोई भी दीवार तुम्हें रोक नहीं सकती। आज, वह न सिर्फ़ एक सफल व्यवसाय चला रही हैं, बल्कि सैकड़ों महिलाओं को रोज़गार भी दे रही हैं। उनका सपना सिर्फ़ खुद आगे बढ़ना नहीं, बल्कि अपनी जैसी हर महिला को आर्थिक रूप से सशक्त बनाना है।

DNN24 से बात करते हुए सरस्वती कहती हैं, “मेरे पिता चाहते थे कि बेटी घर में ही रहे, बाहर ना जाए।” लेकिन उनकी मां ने छुप-छुपाकर उन्हें स्कूल भेजा। और एक मां की इस कोशिश ने उनकी तक़दीर बदल दी। उन्होंने साबित कर दिया कि बदलाव की शुरुआत चाहे एक से हो, लेकिन उसकी गूंज पीढ़ियों तक जाती है।

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