वो 9 सितम्बर 1942 का दिन था, तामलुक में करीब छह हजार से ज्यादा लोगों ने अंग्रेजों के विरोध में जुलूस निकाला था। इस आंदोलन में ज्यादातर महिलाएं शामिल थीं। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लोगों में उबल रहे गुस्से और आजादी की धधकती आग में लोगों का जुलूस तामलुक थाने की तरफ बढ़ने लगा। लोगों का हुजूम देखकर तामलुक पुलिसबलों के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिख रही थीं। पुलिस ने 6 हजार लोगों की भीड़ को चेतावनी दी कि वो पीछे हट जाएं, लोग पीछे हटने भी लगे।
लेकिन तभी लोगों की भारी भीड़ को चीरते हुए मातांगीनी हाज़रा (Matangini Hazra) बीच से निकलीं और सबके आगे आ गईं। इस वक्त मातांगीनी हाज़रा को देखकर लगता मानों उन्हें किसी की परवाह नहीं है। न पुलिस, न उनके बंदूक और न ही उनकी गोलियां। दाएं हाथ में तिरंगा लिए मातंगिनी ने ललकारते हुए कहा, ‘मैं फहराऊंगी तिरंगा, आज मुझे कोई नहीं रोक सकता’ और वंदे मातरम के दहाड़ के साथ वो आगे बढ़ीं।
भीड़ का उद्देश्य था पुलिस स्टेशन में भारत का तिरंगा लहराना और और तामलुक पुलिस स्टेशन को कब्जे में लेना, लेकिन पुलिस सामने से लगातार चेतावनी दिए जा रही थी, लेकिन सारी चेतावनियों को ताख पर रखकर वो आगे बढ़ती गईं।
मातंगिनी हाजरा के हौसले देखकर डरी पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी। पुलिस ने मातंगिनी के दाएं हाथ पर गोली मार दी बावजुद इसके वो अपने लक्ष्य पर दृढ़ रहीं, लेकिन डरी-सहमी अंग्रेज़ी सैनिकों ने उनके बुढ़े शरीर पर और दो गोलियां दाग दीं। तीन गोलियां लगने के बाद बुढ़ी हाजरा सिने से तिरंगे को लगाकर जमीन पर गिर गईं। गांधी के नक्शे कदम पर चलने और उनके विचार के करीब होने के वजह से लोग उन्हे गांधी बुड़ी कहते थे,गांधी बुड़ी यानी बूढ़ी गांधी।
ये भी पढ़ें:‘मुसलमानों का इस देश को चुनना ही उनके देशप्रेम का साक्ष्य है’– बेगम अनीस किदवई
19 अक्टूबर, 1870 को मातंगिनी हाजरा का जन्म तमलूक शहर से कुछ दूरी पर मौजूद होगला मिदनीपुर जिले में अपनी हुआ. घर की आर्थिक हालत ज्यादा अच्छी नहीं थी। पिता ठाकुरदास मेती जैसे-तैसे घर चलाते थे, जिसका हाजरा के जीवन पर भी असर पड़ा. न ही वह उचित शिक्षा हासिल कर पाईं। न ही अपना बचपन अच्छे से गुजार पाईं।
यूं कहें तो हाजरा बचपन से अपनी जंग लड़ते आ रही थीं। 12 साल की उम्र में आलिनान गांव के 60 साल के विधुर तिल्लोचन हाज़रा संग मातांगीनी को फेरे में बैठाया गया था। लिहाजा वह भी ज्यादा वक्त तक उनके साथ नहीं रह पाए। 18 साल की उम्र में निसंतान अवस्था में उन्होंने अपने पति को खो दिया। पति के मृत्यु के बाद मातांगीनी ने गाय का दुध बेचकर, धान कूटकर, चरखे पर सुत काट कर अपना गुज़ारा किया। कभी मायके कभी ससुराल मातांगीनी का इन्ही दो जगहों पर ठिकाना था। या यूं कहें यही दो जगह इनको सहता था।
लेकिन सात्विक जीवन और धार्मिक स्वभाव वाली ये महिला कब क्रांतिकारी बन गई और स्वदेश को आज़ाद कराने के योजनाओं से जुड़ने लगी? दरअसल, वो गांधी जी से खासी प्रभावित रहीं। यही कारण रहा कि साल 1905 में जब राष्ट्रवादी आंदोलन बंगाल में अपने सबाब पर था। तब हाजरा ने इसमें बढ़-चढ़ कर भाग लिया। 1932 में गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भी वह सक्रिय रहीं। इस दौरान वह कई बार जेल भी गईं।
अजय मुखर्जी जो बाद में आज़ाद बंगाल के मुख्यमंत्री बने और सती सांवत उनके राजनैतिक गुरू थें। वो तारिख थी सन् 1932 की 26 जनवरी, गांव के रास्ते से होकर एक जुलूस जा रहा था। ये वो वक्त था जब उन्होंने अपने राजनैतिक सफर का शंखनाद किया था। ये वो वक्त भी था जब नमक आंदोलन अपने मुकाम पर तेजी से पहुंच रहा था। सही रूप में वह सुर्खियों में तब आईं, जब साल 1933 में उन्होंने तमुलक में गवर्रनर जॉन एन्डरसन को काला झंण्डा दिखाया, जिस कारण उन्हें अत्यंत पीड़ा भी सहना पड़ा।
अंग्रेजी सिपाहियों ने उन्हें धक्के मारकर गिरा दिया और बेरहमी से बूढ़ी हड्डियों पर पैर में पहने बुटों और लाठियों कि मार की बौछार करने लगें। अंग्रेज़ों की निर्दयता यहीं नहीं रुकी। इस घटना के लिए मातांगीनी को छः महीने का सशम कारावास झेलना पड़ा, इस दौरान उन्हे बहरमपुर जेल में रखा गया था। जेल से बाहर आकर उन्होंने एक चरखा ले लिया और खादी पहनने लगीं। लोग उन्हें ‘बूढ़ी गांधी’ के नाम से पुकारने लगे।
साल 1942 में 29 सितंबर को अंग्रेजों के खिलाफ एक जुलूस की अगुवाई की और तमलूक थाने पर धावा बोल दिया। अंग्रेजों ने उन्हें रुकने के लिए कहा, मगर वह नहीं मानीं, जिसपर अंग्रेजों ने उनकी हत्या कर दी। साल 1977 में मातांगीनी पहली महिला क्रांतीकारी बनीं, जिनका स्टेच्यू कोलकाता मैदान में खड़ा किया गया।
ये भी पढ़ें: रशीद जहां: वो ‘अंगारे’ वाली जिसने अदब की दुनिया में लाया था भूचाल
आप हमें Facebook, Instagram, Twitter पर फ़ॉलो कर सकते हैं और हमारा YouTube चैनल भी सबस्क्राइब कर सकते हैं।