साल था 1932, जब आज़ादी की लड़ाई अपने उफ़ान पर थी। उस वक्त एक कहानी संग्रह बाज़ार में आया। नाम था ‘अंगारे’। बाज़ार में किताब आते ही अदबी हलकों में भूचाल आ गया। वजह ये थी कि अंगारे ने धर्म और समाज, दोनों के ख़राब पहलुओं पर निशाना साधा था। ख़ासकर उर्दू अदब की दुनिया से इसमें लिखने वालों को लानतें भेजी जाने लगीं। इस किताब में कुल आठ कहानियां थीं जिन्हें चार कहानीकारों ने मिल के लिखा था। हर कहानी का एक विद्रोही तेवर था, जो उस दौर के समाज के तथाकथित मूल्यों और ढकोसलों पर तीखा प्रहार करता था। ज़ाहिर था कि चाहे धार्मिक लोग हों या आम अवाम, कई थे जो इन कहानियों के आने के बाद बुरी तरह तिलमिला उठे। जल्द ही United Provinces की हुकूमत ने, जो कि आज का उत्तर प्रदेश है, अंगारे पर पाबंदी लगा दी।

सरकारी बैन के अलावा, राइटर्स के खिलाफ फ़तवे भी जारी किए गए। राइटर्स सज्जाद ज़हीर, अहमद अली और महमूदुज़्ज़फर का पूरे मुल्क़ में हर तरफ विरोध शुरू हो गया, लेकिन जिन पर सबसे ज़्यादा गाज गिरी वो थीं लेखिका रशीद जहां। वही रशीद जहां जिनकी क़ब्र पर लिखा है: ‘कम्युनिस्ट, डॉक्टर और लेखिका।’
उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में 25 अगस्त, 1905 को रशीद जहां का जन्म हुआ। पढ़ाई लिखाई और आज़ाद ख़याली उन्हें विरासत में मिली। उनके पिता शेख अब्दुल्ला जो पापा मियां के नाम से मशहूर थे, अपने समय के प्रसिद्ध समाज सुधारक और औरतों की पढ़ाई के समर्थक थे। इन्होंने अलीगढ़ में लड़कियों के लिए सबसे पहला आवासीय स्कूल भी खोला था। रशीद जहां की मां वहीद जहां बेगम भी अपने ख़ाविंद के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती थीं। वे उस दौर की पत्रिकाओं ‘तहज़ीब-उन-निसवां’ और ‘खातून’ के लिए लिखा भी करती थीं।

रशीद जहां ने महज़ चौदह साल की उम्र से ही वतन की आज़ादी के लिए चल रही तहरीकों में दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया था। गांधी जी से प्रभावित होकर उन्होंने आजीवन खादी पहनने का प्रण लिया। उस ज़माने में, जब हर मज़हब की औरतों के पर्दानशीं रहने का चलन था, रशीद बचपन से ही पर्दे के खिलाफ थीं। उनके सिर्फ़ खादी पहनने के अंदाज़ में भी एक बाग़ीपन था। अलीगढ़ के अपने स्कूल में खादी के कुर्ते और चुस्त पाजामे में जब रशीद बोलने आतीं, तो देखने वालों की नज़र उन पर ही ठहर जाती। औरतों को लम्बे बाल ही रखने चाहिए, ये मानने वाले समाज के बीच उस दौर में भी रशीद छोटे बाल ही रखा करतीं। ये बात आज बहुत छोटी सी लग सकती है लेकिन उस दौर में ये किसी क्रान्ति से कम नहीं था। तरक़्क़ीपसंद, रोशन ख़याल रशीद जहां ने अच्छी तालीम हासिल की और पेशे से डॉक्टर बनीं।

इसी बीच औरतों की बेबसी को अपने कहानियों का हिस्सा बनाने वाली लेखिका इस्मत चुगताई की मुलाकात रशीद जहाँ से हुई । इस मुलाकात के बाद इस्मत, रशीद की बेमिसाल शख़्सियत की मुरीद हो गईं। अपने एक संकलन में उन्होंने लिखा: “जिंदगी के उस दौर में मुझे एक तूफ़ानी हस्ती से मिलने का मौका मिला, जिसके वजूद ने मुझे हिला कर रख दिया। मिट्टी से बनी रशीदा आपा ने संगमरमर के सारे बुत मुनहदिम (मुनहदिम यानी ध्वस्त) कर दिए थे। उन्होंने आगे लिखा कि अगर वो मेरी कहानियों की हीरोइनों से मिलें तो दोनों जुड़वा बहनें नज़र आयें, क्योंकि अनजाने तौर पर मैंने रशीदा आपा को ही उठा कर अफसानों के ताकचों पर बैठा दिया है। क्योंकि मेरे तसव्वुर की दुनिया की हीरोइन सिर्फ वही हो सकती हैं।” रशीद ने ताउम्र स्त्री अधिकारों, गैर-बराबरी के दर्ज़े और परंपरा के नाम पर रूढ़ियों में फंसे रहने की नियति से बगावत की। अपने अफ़सानों में उन्होंने सड़ी-गली रूढ़ियों से, औरत-मर्द के बीच ग़ैर बराबरी से, अंग्रेज हुक़ूमत के अत्याचारों और शोषण के ख़िलाफ़ खूब लिखा।
पर्दों के पीछे छिपी उस पूरी दुनिया को वे उभारकर पाठकों के सामने रख देती हैं, जो संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज और थोथी नैतिकता के नाम पर लोगों को दिखाई नहीं देती थी। नाटक ‘कांटे वाला’ की यह बातचीत उनके अफ़सनों में बग़ीपन की गवाह है, – ‘सांस लेना बग़ावत है, तो मैं पूछता हूं, फिर मौत क्या है? यह सब भूख को दबाने के बहाने हैं। लेकिन भूख दबती नहीं। गला दबाने से चीख बंद नहीं हो जाती, बल्कि दोगुनी हो जाती है। भूखे की चीख, मरते हुए की चीख, जिंदा आदमियों से ज़्यादा भयानक है।’’
साल 1934 में रशीद ने अंगारे के सह-लेखक और साथी कॉमरेड महमूदुज़्ज़फर के साथ निकाह कर लिया। महमूदुज़्ज़फर, रशीद के बग़ीपन के कायल थे। शादी के बाद अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर रशीद अमृतसर में स्वतंत्र डॉक्टर के रूप में काम करने लगीं। हाथ में आला और दवाइयों का थैला लिए वह गांव-कस्बे घूम घूम कर लोगों का इलाज़ करती थीं। अमृतसर में ही वो कम्युनिस्ट पार्टी में भी शामिल हो गयीं। वे प्रगतिशील लेखक आंदोलन के साथ भी जुड़ी रहीं। 1936 में औपचारिक तौर पर अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ का पहला बड़ा अधिवेशन हुआ। इसमें रशीद जहाँ ने भी बड़ी मुस्तैदी के साथ अपनी भागीदारी दिखाई। इस अधिवेशन के प्रमुख चेहरों में से एक थे प्रेमचंद, जिनका रशीद पर काफी गहरा असर था। रशीद जहां को प्रेमचंद से जोड़कर उर्दू के एक बड़े आलोचक कमर रईस ने लिखा, ‘‘तरक्कीपसंद अदीबों में प्रेमचंद के बाद रशीद जहाँ तन्हा थीं, जिन्होंने उर्दू अफसानों में समाजी और इंकलाबी हक़ीक़त निगारी की रवायत को मुस्तहकम बनाने की सई की।’’

साल 1948 में मज़दूरों के अधिकारों के लिए रेलवे यूनियन की एक हड़ताल में रशीद ने शिरकत की, जिसके लिए उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। जेल में भी रशीद ने 16 दिन की लंबी भूख हड़ताल ज़ारी रखी। उस वक़्त रशीद जहाँ कैंसर की मरीज़ भी थीं, लेकिन जिस्म की कमज़ोरी को नज़रअंदाज़ कर वो बड़ी मज़बूती से नाइंसाफ़ी और जुल्म का विरोध करती रहीं। इसका नतीज़ा यह निकला कि उनकी बीमारी और भी बढ़ गई। कैंसर के इलाज के लिए वो मॉस्को भी गयीं, पर इस घातक रोग से एक बार जो उनकी सेहत बिगड़ी तो दोबारा ठीक नहीं हुई। 29 जुलाई, 1952 को लंबी लाइलाज़ बीमारी से जूझते हुए 47 साल की रशीद जहाँ ने इस जहान को अलविदा कह दिया। कुछ चीजें अपने वक़्त से काफ़ी आगे की होती हैं. रशीद जहाँ और उनकी रचनाएं भी अपने समय, अपने परिवेश से कहीं आगे की ‘घटना’ थीं। भारत में जब जब औरतों की समानताकी बात होगी, रशीद जहाँ का नाम हमेशा सुनहरे हर्फों में लिखा जाएगा।