28-May-2025
HomeArtराही मासूम रज़ा: गंगौली से महाभारत तक अदब, दर्द और दास्तान का नाम

राही मासूम रज़ा: गंगौली से महाभारत तक अदब, दर्द और दास्तान का नाम

राही मासूम रज़ा, एक ऐसा फ़नकार जिसने कलम को महज़ स्याही की तरह नहीं, जज़्बात की नदी बना दिया। जो लिखता था, तो वक़्त ठहरकर उसे पढ़ता था।

जब कभी हिंदुस्तान की तहज़ीब और अदब और इंसानियत की बात होती है, तो एक नाम दिल से उठकर ज़ुबां तक आता है – राही मासूम रज़ा। एक ऐसा फ़नकार, जिसने कलम को महज़ स्याही की तरह नहीं, जज़्बात की नदी बना दिया। जो लिखता था, तो वक़्त ठहरकर उसे पढ़ता था। राही मासूम रज़ा का ताल्लुक उत्तर प्रदेश के ज़िले ग़ाज़ीपुर के गंगौली नामी गांव से था। वही गंगौली जिसकी गलियों में न सिर्फ़ उनका बचपन गूंजता था, बल्कि जहां हिंदू-मुसलमान की तहज़ीबें एक-दूसरे में घुल-मिल जाती थीं। उनकी आत्मकथा में गंगौली सिर्फ़ एक गांव नहीं, एक जज़्बा है जहां धर्म की दीवारें थीं, पर उनसे ऊंचा इंसानियत का छज्जा भी था।

इलाहाबाद से उठी एक सदा

राही मासूम रज़ा साहब का सफ़र गंगा-जमुनी तहज़ीब की पनाह से शुरू हुआ। उनकी तालीम, सोच और ज़बान तीनों में एक ग़ज़ब की रवानी थी। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से डॉक्टर की डिग्री ली, मगर दिल तो इंसानी तक़रीबों में ही लगा रहा। रज़ा ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से उर्दू साहित्य में पीएचडी की, पर वहां की गलियां, गंगा, और बनारसी तहज़ीब ने उन्हें रूहानी तौर पर रचा। वे एक ऐसे मुसलमान नौजवान थे जो संस्कृत पढ़ते थे, रामचरितमानस का अध्ययन करते थे।

जब “महाभारत” में उनकी कलम चली

कौन सोच सकता था कि एक मुसलमान लेखक हिंदू धर्मग्रंथ ‘महाभारत’ के संवाद लिखेगा और ऐसा लिखेगा कि हर किरदार ज़िंदा महसूस होगा! ‘माताश्री’, ‘ताताश्री’, ‘पिताश्री’ जैसे शब्द टीवी के पर्दे से उतरकर हर घर की ज़ुबान बन गए। ये राही साहब की समझ और अदबी बारीकी का ही असर था।

‘आधा गांव’ – जहां बंटवारे की स्याही में इंसान भीग गए

राही साहब का लिखा ‘आधा गांव’ महज़ एक नॉवेल नहीं, एक ज़मीर की दस्तावेज़ है। मुसलमानों का दर्द, हिंदुओं की उलझन, इंसानों की बिखरती पहचान – सब कुछ इस किताब के हर पन्ने में सांस लेता है। उस गांव का एक किरदार चीख़कर कहता है: “इस्लामु नहीं चाहिए, हमें अपना चौक, अपना इमामबाड़ा चाहिए!” ये सिर्फ़ अल्फ़ाज़ नहीं, एक पीढ़ी की पहचान की पुकार है।

टोपी शुक्ला – दोस्ती की हार, समाज की शिकस्त

‘टोपी शुक्ला’ एक ऐसा किरदार है, जो दो धर्मों की दीवारों को गिराना चाहता है, मगर उसी दीवार में दबकर रह जाता है। उसकी मौत एक व्यक्ति की नहीं, उस सोच की हार है जो इंसानियत को मज़हब से ऊपर रखती है।

‘हिम्मत जौनपुरी’ – समाज के आईने में मर्दानगी

राही साहब ने मर्दानगी के पारंपरिक पैमानों को तोड़ा। ‘हिम्मत जौनपुरी’ में दिखाया गया मर्द कोठों, ताक़त और रुतबे से नहीं, संघर्ष और टूटन से परिभाषित होता है। उसकी मौत एक शहर की कहानी नहीं, पूरे समाज की बेरुख़ी का बयान है।

‘कटरा बी आर्जू’ – मोहल्ले से मुल्क तक की कहानी

इमरजेंसी के दौर को समझना हो तो ‘कटरा बी आर्जू’ पढ़ लीजिए। इलाहाबाद की गलियों से लेकर सत्ता के गलियारों तक की साज़िशें, डर और बग़ावत – सब इस किताब में दर्ज है। राही साहब ने मोहल्ले को देश की तस्वीर बना दिया।

‘सीन 75’ – शोहरत की चकाचौंध के पीछे की तन्हाई

‘सीन 75’ में राही साहब ने फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध के पीछे छिपे खालीपन को उकेरा। बंबई और कराची के बीच झूलती पहचान, और आत्मा की तलाश – ये सब उन्होंने एक ऐसी शैली में लिखा कि पाठक सिर्फ़ पढ़ता नहीं, महसूस करता है।

नीम का पेड़

नीम का पेड़” सिर्फ़ एक उपन्यास नहीं, बल्कि मुल्क की सियासी और समाजी तब्दीलियों की एक दर्दनाक दास्तान है. जिसे डॉ. राही मासूम रज़ा ने अपने दिल और ज़ेहन की रोशनी में लिखा। दो नस्लों के दरमियान पसरी हुई मोहब्बत, अदावत, उम्मीद और हताशा की ये कहानी, हिन्दुस्तान की आज़ादी के बाद के उस दौर की शिनाख़्त कराती है जब सियासत ने इंसानियत को निगलने की साज़िश की थी। इस किताब में लफ्ज़ नहीं चलते, जख़्म बहते हैं। हर किरदार एक आइना है। जिसमें हिंदुस्तान की असल सूरत देखी जा सकती है। राही साहब कहते हैं —

मैं अपनी तरफ़ से इस कहानी में कहानी भी नहीं जोड़ सकता था। इसलिए इसमें हदें भी हैं और सरहदें भी। मोहब्बत के छींटे हैं और नफ़रतों की आंच भी। सपने हैं और उनका टूट जाना भी। और इन तमाम जज़्बातों के पीछे पसरी हुई है सियासत की वो काली स्याह दीवार, जिसने हिन्दुस्तान की आज़ादी को निगल लिया।

इस कहानी के दो गांव — मदरसा ख़ुर्द और लछमनपुर कलां — किसी नक्शे के सिर्फ़ दो निशान नहीं, बल्कि हिंदुस्तान की साम्प्रदायिक हक़ीक़तों के अलामती किरदार हैं। और अली ज़ामिन ख़ां व मुसलिम मियां की अदावत, दो ख़ालाज़ाद भाइयों की लड़ाई से कहीं ज़्यादा, मुल्क के बंटवारे और दिलों की तफ़रीक़ का मरकज़ बन जाती है। राही साहब ये भी कहते हैं कि

“मैं न लछमनपुर कलां को जानता हूं, न मदरसा ख़ुर्द को। अली ज़ामिन और मुसलिम मियां नाम के उन दो भाइयों को भी नहीं जानता। ये तो हो सकता है उस नीम के पेड़ की कहानी हो — जिसने मुझे अपना दर्द सुनाया और मैं आपको सुनाने बैठ गया।”

ये नीम का पेड़ — जो गांव की सरहद पर खड़ा है गवाह रहा है वक़्त के हर उतार-चढ़ाव का। उसने आज़ादी के सपनों को पलते हुए भी देखा और उन्हें दम तोड़ते भी देखा। वह पेड़ ख़ामोश है, मगर उसका साया आज भी मोहब्बत और सुकून की तलाश में भटकते इंसानों को सुकून देना चाहता है। “नीम का पेड़”, जिसे राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किया गया, एक ऐसी किताब है जो पढ़ने वाले के दिल में टीस छोड़ जाती है और सोचने पर मजबूर करती है। 

फ़िल्मी नग़मों में भी वही रूह

कहा जाता है कि फ़िल्मी दुनिया तिजारत की दुनिया है। मगर राही साहब ने उसमें भी अदब की रूह भर दी। उनका लिखा गीत –

हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चांद
अपनी रात की छत पर कितना तन्हा होगा चांद
जिन आंखों में काजल बन कर तैरी काली रात
उन आंखों में आंसू का इक क़तरा होगा चांद
रात ने ऐसा पेंच लगाया टूटी हाथ से डोर
आंगन वाले नीम में जा कर अटका होगा चांद
चांद बिना हर दिन यूं बीता जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा कैसा होगा चांद

राही मासूम रज़ा

इस गीत के हर लफ़्ज़ में वो एहसास छिपा है,जो आज भी सुनने वालों को चुपचाप रुला जाता है।

राही साहब की विरासत

राही मासूम रज़ा ने मज़हब, ज़ात, सरहद, सियासत – इन सबके पार जाकर सिर्फ़ इंसान लिखा। उनके लफ़्ज़ तहरीर से निकलकर दिल में उतरते हैं। वो कल भी हमारे साथ थे, आज भी हैं और आने वाला कल भी उन्हें ढूंढता रहेगा।

कहीं शबनम के शगूफ़े कहीं अंगारों के फूल
आके देखो मेरी यादों के जहां कैसे हैं।

मैं तो पत्थर था मुझे फेंक दिया ठीक किया
आज उस शहर में शीशे के मकां कैसे हैं।

राही मासूम रज़ा

ये भी पढ़ें: मजाज़ की आवाज़ बनी अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की पहचान

आप हमें FacebookInstagramTwitter पर फ़ॉलो कर सकते हैं और हमारा YouTube चैनल भी सबस्क्राइब कर सकते हैं।





























RELATED ARTICLES
ALSO READ

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular