ज़रा सोचिए, एक ऐसा दौर था जब शायरी की महफ़िलों में मर्दों का ही बोलबाला था। उस ज़माने में, जब औरतों के लिए शायरी करना तो दूर, खुलेआम अपनी बात कहना भी आसान न था, एक आवाज़ ऐसी भी उभरी जिसने शायरी के आसमां पर अपनी अलग पहचान बनाई। वो आवाज़ थी अदा जाफ़री की। उन्हें उर्दू अदब की दुनिया में ‘पहली ख़ातून शाइरा’ (First Lady Poet) का ख़िताब हासिल है। उनकी ज़िंदगी, उनकी शायरी, उनका अंदाज़-ए-बयां, सब कुछ इतना अनमोल है कि आज भी हम सब के लिए एक रोशन मिसाल है। आइए, उनकी ज़िंदगी के उन पन्नों को पलटें जहां दर्द भी है, जुनून भी है, और शायरी का वो हुनर भी है जो सीधे दिल में उतर जाता है।
बचपन के आंगन से शायरी के चमन तक
अदा जाफ़री का असल नाम अज़ीज़ जहां था। उनकी पैदाइश 22 अगस्त 1924 को ब्रिटिश इंडिया के बदायूं में हुई। कहते हैं कि हुनर तो रब की देन होता है और अदा जाफ़री के साथ भी ऐसा ही था। बचपन से ही उन्हें अलफ़ाज़ से खेलने का शौक था। वो अपने दिल की बात, अपने एहसासात को कागज़ पर उतारने लगीं। सिर्फ़ 12 साल की उम्र से ही उन्होंने शायरी करना शुरू कर दिया था। उस वक़्त भला किसने सोचा होगा कि ये छोटी सी बच्ची एक दिन उर्दू अदब की दुनिया में इतना बड़ा नाम कमाएगी?
उनके घर में अदबी माहौल नहीं था, लेकिन उनकी रूह में शायरी समाई हुई थी। जब वो स्कूल में थीं, तो अक्सर अपनी नज़्में और ग़ज़लें लिखती थीं। उनकी शुरुआती शायरी में मिर्ज़ा हसरत लखनवी जैसे बड़े शायरों से इस्लाह (सुधार) लेने का ज़िक्र मिलता है। ये उनकी लगन और सीखने की प्यास ही थी जो उन्हें बड़े-बड़े उस्तादों तक ले गई।
मैं आंधियों के पास तलाश-ए-सबा में हूं
अदा जाफ़री
तुम मुझ से पूछते हो मिरा हौसला है क्या
अदा जाफ़री की ज़िंदगी का एक और पहलू उनके बचपन से जुड़ा है। जब वो सिर्फ़ तीन बरस की थीं, तो उनके वालिद का इंतेकाल हो गया। इस कमी ने उनके दिल पर गहरा असर डाला और उनका बचपन उनके ननिहाल में गुज़रा। वालिद के प्यार से महरूम रहने का ये दर्द उनकी शायरी में कहीं न कहीं झलकता ज़रूर है, लेकिन साथ ही इसने उन्हें और मज़बूत बनाया। उन्होंने घर पर ही ट्यूटर रखकर उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेज़ी में महारत हासिल की, हालांकि उन्हें कॉलेज जाकर तालीम न पा सकने का मलाल हमेशा रहा। किताबों से उनका बचपन से ही गहरा रिश्ता था और नौ साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला शे’र अपनी मां को सुनाया, जिन्होंने उन्हें भरपूर हौसला दिया। साल 1940 के आस-पास उनकी शुरुआती ग़ज़लें और नज़्में अख़्तर शीरानी की मशहूर मैगज़ीन “रूमान” के साथ-साथ उस वक़्त की अन्य प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं “शाहकार” और “अदब-ए-लतीफ़” में छपने लगीं और जल्द ही अदबी दुनिया उनसे वाकिफ़ हो गई।
एक नई मंज़िल
उनकी ज़िंदगी में एक बड़ा मोड़ तब आया जब 1947 में उनकी शादी नूरुल हसन जाफ़री से हुई। नूरुल हसन जाफ़री ब्रिटिश इंडिया के एक उच्च अधिकारी थे और उर्दू अदब से भी गहरा ताल्लुक़ रखते थे। उनकी शादी के बाद अदा जाफ़री अपने शौहर के साथ कराची, पाकिस्तान चली गईं। ये नया शहर, नया मुल्क, अदा के लिए नए ख़्वाब और नए अंदाज़ लेकर आया। उनके शौहर ने उनकी शायरी को खूब सराहा और उन्हें आगे बढ़ने के लिए भरपूर हौसला दिया। कहते हैं कि एक हुनरमंद इंसान को अगर सही साथी मिल जाए, तो उसकी उड़ान और भी ऊंची हो जाती है। अदा जाफ़री के साथ भी ऐसा ही हुआ। उनके शौहर उनके सबसे बड़े हमदर्द और प्रेरणास्रोत बने।
हमारे शहर के लोगों का अब अहवाल इतना है
अदा जाफ़री
कभी अख़बार पढ़ लेना कभी अख़बार हो जाना
दिलचस्प बात ये है कि जब देश का विभाजन हुआ और अदा जाफ़री पाकिस्तान चली गईं। वहां अदा जाफ़री को भरपूर सम्मान मिला। ये भी एक अद्भुत संयोग है कि उर्दू अफ़साना (कहानी) के चार बड़े नाम – मंटो, इस्मत, बेदी और कृष्ण चंदर – में से इस्मत को छोड़कर सबका ताल्लुक़ उस इलाक़े से था जो अब पाकिस्तान है, जबकि महिला शायरात में अदा जाफ़री के साथ-साथ परवीन शाकिर, किश्वर नाहीद और फ़हमीदा रियाज़ सबकी जड़ें हिंदुस्तान में थीं।
‘मैं साज़ ढूंढती रही, तू तार बदलता रहा’ – अदा का अंदाज़-ए-बयां और नारी चेतना
अदा जाफ़री की शायरी की सबसे बड़ी ख़ूबी उनका नर्म और नाज़ुक लहजा था। उनकी ग़ज़लों में औरतों के एहसासात, उनकी मुश्किलों, उनके ख़्वाबों और उनके दर्द को बड़ी ख़ूबसूरती से बयां किया गया है। उन्होंने इश्क़, जुदाई, उम्मीद, नाकामी, और ज़िंदगी के फलसफे़ को इतनी सादगी से पेश किया कि हर कोई उनसे जुड़ पाता था। उनकी शायरी में एक अजीब सी कशिश थी, एक ऐसी सादगी जो सीधे दिल को छू लेती थी।
उनकी शायरी की एक और ख़ास बात ये थी कि उन्होंने महिलाओं के नज़रिए से दुनिया को देखा और दिखाया। उस दौर में जब महिलाओं की आवाज़ को अक्सर दबा दिया जाता था, अदा जाफ़री ने अपनी शायरी को ज़रिया बनाया, अपनी बात कहने का, अपनी पहचान बनाने का। उन्होंने सिर्फ़ इश्क़-मुहब्बत ही नहीं, बल्कि सामाजिक बेइंसाफ़ी, ज़िन्दगी की कड़वी हक़ीक़तों पर भी लिखा। उन्हें उर्दू शायरी की ‘ख़ातून अव़्वल’ कहा जाता है क्योंकि उनकी शायरी ने 20वीं सदी के मध्य में महिला शायरात के लिए वही रास्ता बनाया और उन्हें प्रभावित किया, जो 18वीं सदी में वली दकनी ने आम शायरों के लिए किया था। उन्होंने अपने बाद आने वाली शायरात जैसे किश्वर नाहिद, परवीन शाकिर और फ़हमीदा रियाज़ के लिए शायरी का वो रास्ता हमवार किया जिस पर चलकर इन महान शायरात ने उर्दू में ख़्वातीन की शायरी को दुनिया तक पहुंचाया।
ज़िंदगी के सफ़र में अदबी ख़िदमात
अदा जाफ़री ने सिर्फ़ ग़ज़लें ही नहीं लिखीं, बल्कि नज़्में और मर्सिये भी लिखे। उनका पहला कलाम का मजमुआ साल 1950 ई. में पब्लिश हुआ और उसकी ख़ूब तारीफ हुई। उनकी पहली किताब ‘मैं साज़ ढूंढती रही’ 1967 में शाया हुई और इसने उर्दू अदब में एक नई लहर पैदा कर दी। इसके बाद उनकी कई और किताबें आईं, जैसे ‘शहर-ए-दर्द’, ‘ग़ज़ाल-ए-शब’, ‘हरफ़-ए-शनासाई’, और ‘मौसम मौसम’।
अदा जाफ़री ने जापानी काव्य विधा हाइकु में भी प्रैक्टिस की और अफ़साने भी लिखे। उन्होंने अपनी आत्मकथा “जो रही सो बेख़बरी रही” के नाम से पब्लिश कराई। इसके अलावा उन्होंने प्राचीन उर्दू शायरों के हालात भी कलमबंद किए।
अगर सच इतना ज़ालिम है तो हम से झूट ही बोलो
अदा जाफ़री
हमें आता है पतझड़ के दिनों गुल-बार हो जाना
अदा जाफ़री को उनके अदबी ख़िदमात के लिए कई बड़े एज़ाज़ात (पुरस्कार) मिले। उन्हें पाकिस्तान का सबसे बड़ा सिविलियन अवार्ड ‘तमग़ा-ए-इम्तियाज़’ से नवाजा गया। इसके अलावा, उन्हें ‘बाक़ी सिद्दीकी अवार्ड’, ‘पाकिस्तान राइटर्स गिल्ड अवार्ड’ और 2003 में ‘कमाल-ए-फ़न अवार्ड’ भी मिला, जो पाकिस्तान में किसी शायर को दिया जाने वाला सबसे बड़ा अदबी एज़ाज़ है। इन सम्मानों ने न सिर्फ़ उनकी क़ाबिलियत को सराहा, बल्कि पूरी दुनिया को ये पैगाम दिया कि उर्दू शायरी में महिलाओं का भी एक अहम मुक़ाम है।
एक विरासत और एक मिसाल
अदा जाफ़री ने एक भरपूर और मुतमईन ज़िंदगी गुज़ारी। उन्होंने अपने शौहर के साथ दुनिया के अलग अलग देशों की सैर की और वहां की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति का गहरी नज़र से मुताअला किया। 90 साल की ज़िंदगी गुज़ार कर साल 2014 में उनका इंतिकाल हो गया। वो इस दुनिया से चली गईं, लेकिन अपनी शायरी की शक्ल में एक अनमोल विरासत छोड़ गईं। उन्होंने अपनी शायरी से न सिर्फ़ औरतों की आवाज़ को बुलंदी दी, बल्कि उर्दू अदब को भी एक नई ज़मीन दी। उनकी सादगी, उनका लहजा, उनके गहरे एहसासात… सब कुछ ऐसा है जो आज भी हमें अपनी तरफ़ खींचता है।
अदा जाफ़री सिर्फ़ एक शायरा नहीं थीं, वो एक इंक़लाब थीं, एक ऐसी आवाज़ थीं जिसने उर्दू अदब के इतिहास को हमेशा के लिए बदल दिया। उनकी शायरी में ज़िंदगी की सच्चाई है, इंसानियत का दर्द है और उम्मीद की एक हल्की सी रोशनी भी है। आज भी जब हम उनकी ग़ज़लें पढ़ते हैं, तो महसूस होता है जैसे वो हमसे सीधे बात कर रही हों, हमारे दिल के तार छेड़ रही हों। उनकी विरासत ज़िंदा है, उनकी शायरी ज़िंदा है, और हमेशा ज़िंदा रहेगी।
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