25-Jul-2024
HomeASHOK PANDEऐसा गुहर ना था कोई दसरत के ताज में

ऐसा गुहर ना था कोई दसरत के ताज में

अल्लामा इकबाल ने लिखा है:

है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़
अहल-ए-नज़र समझते हैं उस को इमाम-ए-हिंद

रामकथा ने शताब्दियों से भारत को एक सूत्र में बाँधने का काम किया है। ईसापूर्व पांचवीं से पहली शताब्दी के बीच कभी पहली रामायण वाल्मीकि ने लिखी बताई जाती है। उसके बाद लगभग एक हज़ार सालों तक देश-विदेश में राम की कथा में जुड़ाव-घटाव किये जाते रहे। इस सब के बाद गढ़े गए मर्यादा पुरुषोत्तम के विराट महाचरित्र ने तमाम कवियों, विद्वानों को लगातार अक्षय प्रेरणा देने का कार्य किया है।

Tulsidas Ramcharitmanas
गोस्वामी तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’

तमिलनाडु में कम्बन की रामायण मिलती है तो असम में सप्तकंद रामायण। बंगाल से कर्नाटक और कश्मीर से महाराष्ट्र तक अनेक भाषाओं-बोलियों में राम की गाथा के अनगिनत संस्करण मौजूद हैं। उत्तर भारत में गोस्वामी तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ ने एक तरह से रामकथा को घर-घर पहुंचाने का काम किया। संस्कृत का विद्वान होने के बावजूद तुलसीदास ने इस महाकाव्य को सुग्राह्य बनाने के उद्देश्य से अवधी में रचा। ‘रामचरितमानस’ ने अपनी आसान भाषा और प्रचलित काव्य के माध्यम से समाज, वर्ग, धर्म और देश की सीमाओं को लांघते हुए पहले ही से लोकप्रिय इस पुरातन कथा को एक बहुत विस्तृत फलक उपलब्ध कराया।

उर्दू कैसे अछूती रह जाती।

लखनऊ के शायर सय्यद इबनुल हुसैन उर्फ़ मेहदी नज़्मी के यहाँ राम अत्याचार से लड़ने वाले प्रतिनिधि नायक के रूप में सामने आते हैं-

नामूस-ए राम क़ैद है ज़िन्दां में इस तरह
देखूं तो नूर लड़ता है ज़ुल्मत से किस तरह
मेहदी नज़्मी के राम दृढ़निश्चयी और आशावान हैं –
रावन की शम्मा–ए ज़ीस्त की लौ को बुझा न दूं
कहना न मुझ को राम जो बातिल मिटा न दूं
सीता छूटेंगी ख़ाना-ए ज़िन्दां से इस तरह
बदली से आफ़ताब निकलता है जिस तरह

बादलों के पीछे से सूर्य के निकलने की इस स्थाई कामना में ही रामकथा की अपार लोकप्रियता का रहस्य छिपा है.

मेहदी नज़्मी (तस्वीर साभार: Rekhta)

रामायण का पहला उर्दू तर्जुमा मुंशी जगन्नाथ लाल ख़ुश्तर द्वारा 1860 में किया गया बताया जाता है। इस अनुवाद के प्राक्कथन में मुंशी जी बताते हैं कि किस तरह माँ सरस्वती उनके स्वप्न में आकर उनसे राम की कथा को उर्दू में लिखने को कहती हैं। मुंशी जी माँ सरस्वती को जवाब देते हैं कि उनके भीतर ऐसा बड़ा काम करने की प्रतिभा नहीं है –

कहां मैं बंदा-ए नाचीज़ ओ नाकाम
इस पर देवी कहती हैं –
बा-क़द्र-ए फ़िक्र कर इस राह में ग़ौर
करम से उस के होगा नज़्म हर तौर
नहीं मज़्मून-ओ-मानी का यहां काम
फ़क़त कर दिल से मौज़ूं राम कलाम
बने बरकत से जिस के काम तेरा
सरापा नेक हो अंजाम तेरा

इस तरह मुंशी जगन्नाथ लाल ख़ुश्तर ने दिल से राम कलाम पूरा किया और एक विशिष्ट परम्परा की शुरुआत की। अगले करीब एक सौ बीस बरसों में सौ से भी अधिक उर्दू कवि-लेखकों ने राम कथा को आधार बना कर बड़े पाए की रचनाएं कीं।

1980 में छपी अपनी मसनवी ‘रामायण’ की शुरुआत मोहम्मद इम्तियाज़ुद्दीन खां यूं करते हैं –

ख़ुदा के नाम को हर सांस में विर्द-ए ज़बां कर लूं
उसी के इश्क़ से रौशन ज़मीन ओ आस्मां कर लूं
दिखाऊं मस्नवी से राम के किरदार के जौहर
उसी कि सीरत-ए पाकीज़ा ज़ेब-ए दास्तां कर लूं

मसनवी ‘रामायण’ (तस्वीर साभार: Rekhta)

उर्दू के एक बड़े शायर हुए ब्रज नारायण चकबस्त। वे मूलतः कश्मीरी पंडित थे जो वकालत के सिलसिले में लखनऊ आ बसे थे। 1900 के आसपास उनका किया हुआ ‘रामायण’ का अनुवाद अब ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। इस रचना से एक प्रसंग को तफसील से देखना अप्रासंगिक नहीं होगा।

पिता दशरथ से वनवास पर जाने की अनुमति ले चुकने के बाद जब राम अपनी माता कौशल्या के पास पहुँचते हैं तो उन्हें किस कदर दुखी देखते हैं, चकबस्त ने यूं बयान किया है –

दिल को संभालता हुआ आख़िर वो नौनेहाल
ख़ामोश मां के पास गया सूरत-ए ख़याल
देखा तो एक दर में है बैठी वो ख़स्ता हाल
सकता सा हो गया है ये है शिद्दत-ए मलाल
तन में लहू का नाम नहीं ज़र्द रंग है
गोया बशर नहीं कोई तस्वीर-ए संग

राम के वनवास पर जाने की बात सुनकर कौशल्या राम को रोकने का प्रयास करती हैं और अपने मातृत्व का हवाला देती हैं। राम उत्तर देते हैं –

बन-बास पर ख़ुशी से जो राज़ी ना हूंगा मैं
किस तरह मुंह दिखाने के क़ाबिल रहूंगा मैं
क्यूंकर ज़बान-ए ग़ैर के ताने सुनूंगा मैं
दुनिया जो ये कहेगी तो फिर क्या कहूंगा मैं
लड़के ने बे-हयाई को नक़्श-ए जबीं किया
क्या बे-अदब था बाप का कहना नहीं किया

राम के इस उत्तर से कौशल्या के दिल का सारा गुबार निकल जाता है। इस घटनाक्रम को चकबस्त ने बेहद खूबसूरती से दर्ज किया है-

तासीर का तिलस्म था मासूम का ख़िताब
ख़ुद मां के दिल को चोट लगी सुन के ये जवाब
ग़म की घटा से हट गई तरीकी-ए इताब
छाती भर आई ज़ब्त की बाक़ी रही ना ताब
सरका के पाऊं गोद में सर को उठा लिया
सीने से अपने लख़्त-ए जिगर को लगा लिया
दोनों के दिल भर आए हुआ और ही समां
गंग ओ जमन की तरह से आंसू हुए रवां
हर आंख को नसीब ये अश्क-ए वफ़ा कहां
इन आंसुओं का मोल अगर है तो नक़्द-ए जां
होती है इन की क़द्र फ़क़त दिल के राज में
ऐसा गुहर ना था कोई दसरत के ताज में

ब्रज नारायण चकबस्त (तस्वीर साभार: Rekhta)

रामकथा को आधार बनाकर ही बरेली के रहने वाले जोगेश्वर नाथ उर्फ़ बेताब बरेलवी ने जो रचना की उसे उन्होंने शीर्षक दिया ‘अमर कहानी’। दरअसल बरेलवी साहब का प्रिय बेटा अमर कुल आठ साल की आयु में असमय स्वर्गवासी हो गया था। उसी की याद में लिखी गई इस पुस्तक का वह अंश उल्लेखनीय है जिसमें दशरथ द्वारा गलती से श्रवण कुमार का वध हो जाता है। इस त्रासदी के बाद श्रवण कुमार के दृष्टिहीन माता-पिता दशरथ को इस तरह श्राप देते हैं–

दिल में है ताब-ए ज़ब्त न यारा उमीद का
छूटा है ज़िन्दगी से सहारा उमीद का
सहरा में टूटता है सितारा उमीद का
रिश्ता हुआ तमाम हमारा उमीद का
मरना हे पुत्र-शोक में प्यासे मरेंगे हम
कल तू भरेगा आज किये को भरेंगे हम

इस फेहरिस्त में सबसे ताज़ा नाम कानपुर की डॉक्टर माही तलत सिद्दीकी का है जिन्होंने वर्ष 2018 रामचरितमानस का एक और उर्दू तर्जुमा प्रकाशित किया।

डॉक्टर माही तलत सिद्दीकी (तस्वीर साभार: Oneindia)

इसी तरह मुंशी शंकर दयाल ‘फ़रहत’, दुर्गा सहाय उर्फ़ ‘सुरूर जहानाबादी’, द्वारकाप्रसाद ‘उफ़क’ और मेहदी नज़्मी जैसे कितने ही लेखकों ने रामकथा को उर्दू में ढाला है. उल्लेखनीय है कि ऐसे करीब सौ कवि-लेखकों में से तीन-चौथाई के आसपास हिन्दू थे। इन सभी ने साहित्य की अन्य विधाओं में भी हाथ आज़माया।

रामकथा तमाम भाषाई बन्धनों से आज़ाद है। इसका एक और प्रमाण यह भी है कि लखनऊ-रामपुर में खेली जाने वाली रामलीला के पात्र क्लासिकल उर्दू में अपने संवाद बोलते हैं तो किसी सुदूर कुमाऊनी गाँव की रामलीला में यह भाषा स्थानीय बोली का रूप धारण कर लेती है।

रामायण के उर्दू तर्जुमों की संख्या, विविधता और गुणवत्ता देखने के बाद समझ में आता है कि न रामकथा ने केवल हिन्दुओं प्रेरणा दिया करती थी और न उर्दू केवल मुसलमानों की ज़बान थी।

अशोक पांडे चर्चित कवि, चित्रकार और अनुवादक हैं। पिछले साल प्रकाशित उनका उपन्यास ‘लपूझन्ना’ काफ़ी सुर्ख़ियों में है। पहला कविता संग्रह ‘देखता हूं सपने’ 1992 में प्रकाशित। जितनी मिट्टी उतना सोना, तारीख़ में औरत, बब्बन कार्बोनेट अन्य बहुचर्चित किताबें। कबाड़खाना नाम से ब्लॉग kabaadkhaana.blogspot.com। अभी हल्द्वानी, उत्तराखंड में निवास।

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments