जम्मू और कश्मीर अपना कल्चर, कला, खानपान से लेकर रहन सहन तक ख़ास है। यहां लोग अपनी परंपरागत चीज़ों को कायम रखना चाहते है। कलाकारों की बात करें तो यहां के शायर का भी अपनी एक ख़ास जगह रही है। जाने माने कवि रहमान राही कश्मीर से ही थे। ऐसे ही एक कवि है शेख तालिब हुसैन रिंद (Sheikh Talib Hussain Rind) जो जम्मू और कश्मीर के भद्रवाह (Kashmir, Bhaderwah) इलाके से है। उन्होंने 1964 से लिखना शुरू किया।
कवि शेख तालिब हुसैन रिंद (Sheikh Talib Hussain Rind) ने अपने पूरे करियर में पांच किताबें लिखी जिनमे तीन उर्दू और दो कश्मीरी भाषा में लिखी गई है। इनके कलाम जम्मू और कश्मीर (Jammu and Kashmir) के बड़े बड़े गीतकारों ने गाये है। आज युवा भी इनके कलाम गुनगुनाते है।
कब हुई लिखने की शुरूआत
सफर शुरू हुआ मार्च 1964 से, रिंद शुरू से ही कोशिश करते थे कि वह कश्मीरी और उर्दू दोनों भाषाओं में लिखे। लेकिन छोटी उम्र में हम उतने समझदार नहीं होते, उस वक्त रिंद को जो समझ आता था वह वहीं लिखा करते थे। जब लिखना शुरू किया तो उसमें कुछ ख़ास गलतियां नहीं थी। DNN24 बात करते हुए रिंद कहते है कि “साल 1967 में कोशिश की हम एक शायरों के लिए एक प्लेटफॉरम बनाए। ताकी लोग एक दूसरे को देखे और कुछ सीख सके। इसमे हमे सफलता मिली और ‘इकबाल-ए-बजमे अदब’ के नाम से अदबी अंजमन कायम किया। खासतौर से मेरे दोस्त में अब्दुल गनी बेबस साहब ने मेरी बहुत मदद की। और मेरे बोकी दोस्तों ने भी मेरी मदद की उन्होंने मुझे बताया कि हम किसके पास जा सकते है। फिर मुझे इकबाल ए बजमे अदब का जनरल सेक्रेटरी बनाया गया। मैं बीस सालों तक इस पद पर रहा। मुझे इसलिए चुना गया क्योंकि इकबाल-ए-बजमे अदब उसमे मैं तहरीक करता था।”
कश्मीरी शायरी का पहला मजमुआ हुआ थ्रियटर में रिलीज
जब रिंद अच्छा लिखने लगे तब उन्होंने शॉर्ट स्टोरीज लिखना शुरू किया। स्टोरिज लिखने के बाद उनमे से कुछ को चुना और छह सात सालों के बाद शायर किया। इसके बाद कश्मीरी शायरी का पहला मजमुआ “दाग दार दिल” लिखा, इसे जम्मू के ‘अभिनव’ थ्रियटर में रिलीज किया गया। थ्रियटर में मिनिस्टर मोहम्मद शरूफ नियाज साहब, पंजाबी और उर्दू लेखक खालिद हुसैन साहब समेत सारे बड़े लोग वहां मौजूद थे उन्होंने रिंद की सराहना की। रिंद कहते है कि “मेरे दोस्त चाहते थे जो भी मैंने उर्दू में कहा है उसे मैं शायर करूं मैं उसे शायर करने के हक में नहीं था। हो सकता है कि आप बहुत अच्छा लिखते हो लेकिन आप उतना अच्छा शेयर ना कहते हो। फिर मैंने सोचा इसे बहुत अरसा हुआ है वक्त बदल चुका है इस समय नई शायरी हो रही है और उसके अपने अंदाज है।
लिखने की जगह
तालिब हुसैन रिंद बताते है कि जगह मेरे लिए कुछ ख़ास मकसद रखती। ज्यादातर घर ही लिखता था कभी दफ्तर में ऐसी कोशिश नहीं की, कभी ऑफिस की टूर पर जाते थे तो कभी लिखने का मौका मिल जाए तो लिख लेता था फिर भद्रवाह से डोडा ट्रांसफर हुआ उस वक्त वहा कुछ खास अरबी माहौल नहीं था। लेकिन अपनी जिंदगी में रिंद ने जितनी भी शायरी की वो सब इसी जगह हुई और लिखने का प्रोग्राम भी वहीं हुआ चाहे वो उर्दू में या कश्मीरी में हो। डोडा की जमीन और वहां के लोगों का बहुत शुक्रगुजार हूं। मैं जितना समय भी डोडा रहा वहां के लोग मेरे साथ अच्छे से रहे और आज भी अच्छे है। आज भी मैं जब अपनी डायरी देखता हूं तो हर पन्ने पर डोडा और तारीख लिखा होता है।
शेख तालिब हुसैन रिंद की लिखी शायरी
ये ज़मी जलती रही है, ये आसमां जलता रहा है
यूं हवस की आग में सारा जहां जलता रहा
बिजलियां गिरती रही और गुलिस्ता जलता रहा
एक न एक गम में हमेशा बागबा जलता रहा
मैं जुनून ओ शोक के दरमियां जलता रहा
दिल में लेकर सैकड़ों मेहरूमियां जलता रहा
आपने अच्छा किया ना आशनाएं गम रहे
मैं ही नादान था कि बेसूदो ज़िया जलता रहा
रिंद इससे बढ़कर और क्या होगी मजबूरियां
देखते ही रह गए हम और मकां जलता रहा
ये ज़मी जलती रही है, ये आसमां जलता रहा है…..
रिंद से जब पूछा गया कि वो आज भी लिखते है तो उनका जवाब था “जब कोई ख्याल आता है तो लिखता हूं लेकिन अब वो ताजगी नहीं है जो पहले थी, अब जहन पहले जैसा नहीं रहा। आज मुझे नहीं लगता जैसी शायरी मैं अब करता हूं वो पहले करता था।”
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