जब भी उर्दू शायरी का ज़िक्र होता है, तो जिन नामों को सबसे पहले याद किया जाता है, उनमें वसीम बरेलवी का नाम नुमाया तौर पर शामिल होता है। उनके अशआर महज़ शेर नहीं होते, वो दिल के ज़ख़्मों पर मरहम भी होते हैं और मोहब्बत की ज़बान भी। उनके अल्फ़ाज़ में वो ताक़त है जो दिलों को छू जाती है, और यही वजह है कि आज भी उनकी ग़ज़लें महफ़िलों की जान होती हैं।
शुरुआती ज़िंदगी और तालीम
18 फ़रवरी 1940 को उत्तर प्रदेश के मशहूर शहर बरेली में जन्मे ज़ाहिद हसन, बाद में पूरी दुनिया में वसीम बरेलवी के नाम से पहचाने गए। उनके वालिद जनाब शाहिद हसन एक अदबी माहौल से ताल्लुक रखते थे। वसीम साहब के घर पर रईस अमरोहवी और जिगर मुरादाबादी जैसे उर्दू अदब के बड़े नामों का आना-जाना रहता था। यही वजह रही कि वसीम साहब को बचपन से ही शायरी से दिलचस्पी हो गई।
उन्होंने अपनी तालीम बरेली कॉलेज से हासिल की, जहां उन्होंने उर्दू में एमए किया और गोल्ड मेडलिस्ट रहे। आगे चलकर उसी कॉलेज में उर्दू डिपार्टमेंट के अध्यक्ष भी बने। लेकिन उनका असली जुनून था शायरी, जो धीरे-धीरे उनका पेशा बन गया।
60 के दशक से वसीम बरेलवी ने मुशायरों में शिरकत करनी शुरू की। उनका अंदाज़-ए-बयां, शेरों की सादगी और उनमें छुपा गहराई भरा जज़्बा, लोगों के दिलों में उतर गया। उन्होंने शेरों को महज़ अल्फ़ाज़ का खेल नहीं बनाया, बल्कि उन्हें जज़्बात की तस्वीर बना दिया। उनका ये मशहूर जुमला उनकी सोच को बख़ूबी बयान करता है।
वसीम साहब के शेर लोगों की ज़ुबान पर हैं, और कई तो ऐसे हैं जो हर महफ़िल का हिस्सा बन चुके हैं।
मैं बोलता गया हूं वो सुनता रहा ख़ामोश, ऐसे भी मेरी हार हुई है कभी-कभी।
वसीम बरेलवी
तू छोड़ रहा है, तो ख़ता इसमें तेरी क्या, हर शख़्स मेरा साथ निभा भी नहीं सकता।
मोहब्बत में बिछड़ने का हुनर सबको नहीं आता, किसी को छोड़ना हो तो मुलाक़ातें बड़ी करना।
शर्तें लगाई जाती नहीं दोस्ती के साथ, कीजे मुझे क़ुबूल मेरी हर कमी के साथ।
इन अशआर में जो दर्द, सच्चाई और मोहब्बत है, वो उन्हें आम शायरों से जुदा करता है।
किताबें और अदबी योगदान
वसीम बरेलवी की शायरी पर कई किताबें छप चुकी हैं, जिनमें उर्दू और हिंदी दोनों ज़बानों में उनके मज़मून मिलते हैं। उनकी कुछ अहम किताबें हैं:
- तबस्सुम-ए-ग़म (1966)
- आंसू मेरे दामन तेरा (1990)
- मिज़ाज (1990)
- आंख आंख बनी (2000)
- मेरा क्या (2007)
- मौसम अंदर बाहर के (2007)
- चराग़ (2016)
इन तमाम किताबों में उनकी ग़ज़लों का जमा है जो इश्क़, समाज, दोस्ती, इंसानियत और ज़िंदगी के हर पहलू को बेहद ख़ूबसूरत लहजे में बयान करती हैं।
फ़िल्म और गायकी से रिश्ता
वसीम साहब की शायरी को कई गायकों ने अपनी आवाज़ दी है, लेकिन जगजीत सिंह का नाम इसमें सबसे ऊपर आता है। उनकी ग़ज़लों को संगीत की दुनिया में एक अलग ही मक़ाम मिला। हाल ही में उनकी शायरी फ़िल्म “प्यार के दो नाम” (2024) में भी इस्तेमाल की गई। हालांकि वसीम साहब ने कभी फ़िल्मी दुनिया को अपना मक़सद नहीं बनाया, लेकिन उनके अल्फ़ाज़ वहां तक भी पहुंच गए।
पुरस्कार और सम्मान
वसीम बरेलवी को उनकी अदबी ख़िदमत के लिए कई अहम अवॉर्ड्स और सम्मानों से नवाज़ा गया है:
- फ़िराक़ गोरखपुरी अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार
- कालिदास स्वर्ण पदक (हरियाणा सरकार द्वारा)
- बेगम अख़्तर कला धर्मी पुरस्कार
- नसीम-ए-उर्दू पुरस्कार
इसके अलावा वो राष्ट्रीय उर्दू भाषा संवर्धन परिषद (NCPUL) के वाइस चेयरमैन भी हैं। साल 2016 से वो उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य भी हैं।
वसीम साहब ने शायरी को एक मिशन बनाया। ऐसा मिशन जो दिलों को जोड़ता है, मोहब्बत सिखाता है और इंसान को इंसानियत से मिलाता है। उनका यक़ीन रहा कि शायरी सिर्फ़ इश्क़ तक महदूद नहीं, बल्कि वो समाज की तस्वीर भी पेश करती है। उनकी शायरी में आज का इंसान, उसकी तन्हाई, उसकी लड़ाई और उसकी मोहब्बत सब कुछ मौजूद है।
तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूं मैं, कि
वसीम बरेलवी
तू मिल भी अगर जाए तो अब मिलने का ग़म होगा।
वसीम बरेलवी वो नाम है, जो उर्दू अदब की रूह बन चुका है। उनकी शायरी आज भी नौजवानों की ज़बान पर है, महबूब की आंखों में, महफ़िल की रौनक़ में और किताबों के पन्नों में ज़िंदा है।उनकी शख़्सियत, सादगी और अदब से मोहब्बत इस बात का सुबूत है कि “असली शायर वक़्त के साथ पुराना नहीं होता, बल्कि और भी ज़्यादा ख़ास बनता जाता है।”
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Waseem sahab aap ko salaam hai mera
Hum bhout khuskismat hai ki aap jaise shakhsiyat ko dekhna hamare naseeb mei rha aapko sunaaa aapko padhna hamari aaj ki duniya ke liye bhout jarruri hai aapke liye Iqbal sahab ka ek sher yaad araha hai ‘ “हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा” ” ‘