“हम समाज का आधा हिस्सा हैं, हमारे गिरे-पड़े रहने से समाज तरक़्क़ी कैसे करेगा? हम सुनते हैं कि धरती से ग़ुलामी का निज़ाम ख़त्म हो गया है लेकिन क्या हमारी ग़ुलामी ख़त्म हो गई है? नहीं न. तो हम दासी क्यों हैं?”
लगभग 120 साल से भी ज़्यादा पहले की बात है जब एक महिला ने ये सवाल उठाए थे। ये शब्द एक ऐसी हिंदुस्तानी औरत के हैं, जिसने महिलाओं के अधिकारों के लिए न सिर्फ़ अपनी आवाज़ बुलंद की बल्कि धरातल पर ऐसे-ऐसे काम किए, जिनकी बानगी आज भी दी जाती है। इनका नाम है रुक़ैया सख़ावत हुसैन (Rokeya Sahkawat Hossain)। पुरुष प्रतिष्ठा के नाम पर महिलाओं को क़ैद रखना जैसे गंभीर मामलों पर उन्होंने अपनी बेबाक़ राय रखी।
क्या आप रूक़ैया के बारे में जानते है? अगर हाँ तो कितना? जिनकी पहचान कई शक्लों में है। वो स्त्री जिसने मुस्लिम लड़कियों के लिए स्कूल खोला, लड़कियों को स्कूल तक लाने के लिए उनके घर तक गई, महिलाओं की स्वतंत्रता और उनकी शिक्षा के लिए आवाज़ उठाई, उस समय जब लड़कियों को शिक्षा हासिल करने का भी अधिकार नहीं था।
रूक़ैया कौन थी – रूक़ैया एक लेखक, टीचर, नारीवादी विचारक (फेमिनिस्ट) और सामाजिक कार्यकर्ता थी। बंगाल प्रांत में स्त्री स्वतंत्रता का बिगुल फूकने वाली रूक़ैया सख़ावत हुसैन का जन्म गुलाम भारत में 9 दिसंबर 1880 में हुआ था। ज़मीनदार खानदान से ताल्लुक रखने वाली रूक़ैया के परिवार के लड़के यानी रूक़ैया के भाई स्कूल-कॉलेज में पढ़ाई करते थे, लेकिन परिवार की लड़कियों को तालीम लेने का अधिकार नहीं था। हालांकि रूक़ैया पढ़ना चाहती थी।

भाई से उर्दू, बांग्ला और अंग्रेज़ी सीखी। जब रात में घर के सब लोग सो जाते तो बड़े भाई बहन को चुपके-चुपके पढ़ाया करते थे। उनके परिवार में पर्दा प्रथा का सख़्ती से पालन होता था, लेकिन रूक़ैया का मानना था कि यह एक ऐसी प्रथा थी, जो स्त्री-पुरूष को अलग करती थी और महिलाओं को अपनी चमड़ी और अस्तित्व दोनों को छिपाने के लिए कहा जाता था. रूक़ैया को कुरान समझने में आसानी हो, इसलिए उन्हें केवल उर्दू सीखने के लिए कहा गया था। उस समय लोग मानते थे कि बांग्ला या अंग्रेज़ी सीखने से महिलाएं अपरिचित संस्कृतियों और पश्चिमी तौर-तरीकों की ओर बढ़ जाएंगी।
पति की मृत्यु के बाद रूक़ैया – जब रूक़ैया 18 साल की हुई, तो उनकी शादी की बात चलने लगी। रूक़ैया के परिवार ने भागलपुर बिहार के रहने वाले अंग्रेज़ी सरकार के अफसर खान बहादुर सख़ावत हुसैन के साथ रिश्ता पक्का कर दिया, जो लगभग 40 साल के थे और रूक़ैया से काफी बड़े थे। खान ने युवा रूक़ैया को पढ़ने और साहित्य के प्रति अपने प्रेम को और आगे बढ़ाने के लिए काफी प्रोत्साहित किया।

1909 में पति की अचानक मृत्यु होने के बाद रूक़ैया काफी समय तक भागलपुर (बिहार) में ही रही। पति को खो देने के बाद भी रूक़ैया ने हिम्मत नहीं हारी, बल्कि पति जो पैसे रूक़ैया के लिए छोड़ कर गए थे, उन पैसों से उन्होंने स्कूल खोलने का फैसला लिया। रूक़ैया ने भागलपुर में मुस्लिम लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला जिसका नाम है ‘सख़ावत मेमोरियल गर्ल्स हाई स्कूल’। स्कूल को लेकर रूक़ैया को कड़ा विरोध झेलना पड़ा और उन्हें 1911 में इस स्कूल को कोलकत्ता शिफ्ट करना पड़ा। यह स्कूल केवल आठ छात्राओं के साथ शुरू किया गया था लेकिन बाद में यह संख्या धीरे – धीरे बढ़ती गई।
लड़कियों को स्कूल तक लाने के लिए उनके घर तक गई – आज भी यह स्कूल कोलकत्ता का सबसे मशहूर कन्या विद्यालयों में से एक है। ऐसा कहा जाता है कि उस समय लोग अपनी लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए झिझक रहे थे या जो उनकी शिक्षा के खिलाफ थे। इसके लिए वह उन परिवारों के घर तक गई। लेकिन लड़कियों के माता पिता ने यह शर्त रखी कि लड़कियां तभी पढ़ने जाएंगी, जब उनके पर्दे का सख्त़ी से ख्याल रखा जाएगा। रूक़ैया के पास उनकी शर्तों को मानने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। रूक़ैया ने लड़कियों को स्कूल से लाने और ले जाने के लिए घोड़ा गाड़ी की व्यवस्था की, ताकि पर्दे का ख्याल रखा जा सके।

“प्रिय बच्चियों, इन उपन्यासों को पढ़ना मत, छूना भी नहीं तुम्हारी जिंदगी तबाह हो जाएगी। तुम्हें बीमारियां और व्याधियां घेर लेंगी। ईश्वर ने तुम्हें क्यों पैदा किया है – इतनी छोटी सी उम्र में भटकने के लिए? बीमार पड़ने के लिए? अपने भाइयों, रिश्तेदारों और आसपास वालों की घृणा का पात्र बनने के लिए? नहीं. नहीं. तुम्हें मां बनना है, तुम्हें अच्छी ज़िंदगी चाहिए। यही तुम्हारा दैवी उद्देश्य है। तुमने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए जन्म लिया है, क्या तुम्हें इन…. उपन्यासों के पीछे पागल होकर अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर देनी चाहिए?”
यह 1927 में प्रकाशित एक तमिल लेख का अंश है जो रूक़ैया के उपन्यास ‘सुल्ताना का सपना’ पर एक पितृसत्तात्मक प्रतिक्रिया है।
जहां पुरूष पर्दे में रहते है – रूक़ैया की मशहूर रचना – सुलतानाज़ ड्रीम यानी ‘सुलताना का सपना’। यह किताब अंग्रेज़ी में लिखी गई थी। यही कारण था कि उनकी ये किताब बांग्ला पट्टी से बाहर भी प्रसिद्ध हुई। रूक़ैया ने बाद में ख़ुद ही इसका बांग्ला में थोड़े-बहुत संशोधन के साथ तर्जुमा किया। रूक़ैया सख़ावत हुसैन का यह उपन्यास स्वप्नदर्शी, भविष्यवादी, स्त्रिपक्षीय रचना है। इस किताब के माध्यम से रूक़ैया महिलाओं को पितृसत्ता रहित समाज का सपना दिखाती है और इससे उनके मन में उठने वाले हर संभव प्रश्न का प्रश्नोत्तर शैली में उत्तर भी देती है।
इस देश में महिलाएं समाज का नेतृत्व करती है। जहां मर्द घर के घेरे में पर्दें के अंदर रहते है और इस देश की कमान स्त्री के हाथ में है। यहां लड़कियों की अलग यूनिवर्सिटी है। उपन्यास में स्त्रीयों की वैज्ञानिक खोज से पाठकों को वह स्तब्ध कर देती है। इस देश मे महिलाओं ने प्रकृति से मिले उपहारों का भरपूर इस्तेमाल कर कई नई – नई खोजें की है। महिलाओं ने सूरज की ताक़त का इस्तेमाल करना सीख लिया है, वे बादलों से पानी लेती है, पर्यावरण का ख्याल रखती है। एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए हवाई साधन का इस्तेमाल करती है, जहां अपराध नहीं होते और इस देश में मौत की सज़ा नहीं दी जाती है।

यह कहानी कई चीज़ो का अद्भुत संगम है। जिसमे विज्ञान, नारीवादी कल्पनालोक, अहिंसा शामिल है। वह महिलाओं को समानता और स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए प्रोत्साहित भी करती हैं, “पुरुषों के बराबर आने के लिए हमें जो करना होगा, वह सभी काम करेंगे। अगर अपने पैरों पर खड़े होने के लिए, आज़ाद होने के लिए हमें अलग से जीविका अर्जन करना पड़े, तो यह भी करेंगे। अगर ज़रूरी हुआ तो हम लेडी किरानी से लेकर लेडी मजिस्ट्रेट, लेडी बैरिस्टर, लेडी जज- सब बनेंगे।“ वह महिलों की दुर्दशा पर लिखती हैं, “हम ज़माने से मर्दों की ग़ुलामी और फरमाबरदारी करते-करते अब ग़ुलामी के आदी हो चुके हैं।“ वह शिक्षा को शस्त्र बनाने पर बल देती है, “जब स्त्रियां पढ़ती हैं, सोचती हैं और लिखने लगती हैं तो वे उन बातों पर भी सवाल उठाने से क़तई गुरेज़ नहीं करतीं, जिनकी बुनियाद पर गैरबराबरियों से भरा मर्दाना निज़ाम टिका है।
उनकी यह रचना अंग्रेज़ी आवधिक-पत्रिका द इंडियन लेडीज मैगज़ीन में प्रकाशित हुई थी। रूक़ैया का यह उपन्यास 1905 में तब आया जब अधिकतर महिलाएं पढ़ी लिखी नहीं हुआ करती थी। उस समय स्त्रियों के बारे में चिंतन करना और उसे एक किताब के रूप में प्रकाशित करवाना बहुत बड़ी बात थी।
“भारत में मर्द भगवान और स्वामी होते हैं। उन्होंने अपने पास सारी शक्तियां और विशेषाधिकार रखे हुए है और औरतों को जनानखाने में बंद कर दिया है। तुमने अपने को जनानखाने में बंद कैसे होने दिया ?क्योंकि इससे बचा नहीं जा सकता। मर्द औरतों से ज्यादा ताकतवर हैं।शेर आदमी से ज्यादा ताकतवर होता है, पर इन्सान उस को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता। तुमने अपने अधिकारों को लेकर बहुत लापरवाही बरती है। अपने फायदे से आँखें फेर कर अपने कुदरती अधिकारों को भी खो दिया है।”
उपन्यास का एक अंश –
लिखने की शुरूआत और अन्य किताबे – रूक़ैया के साहित्यिक करियर की शुरूआत साल 1902 में ‘पिपासा’ नामक एक बंगाली निबंध के साथ हुई। जिसके बाद 1905 ‘माटीचूर’ (ए स्ट्रिंग ऑफ स्वीट पर्ल्स) जो उनके नारीवादी विचारों को व्यक्त करने वाले दो खंडों में निबंधों का एक संग्रह है, अबरोधबासिनी (द कन्फाइंड वीमेन 1931), पद्मराग (एसेंस ऑफ द लोटस 1924) उपन्यास में अलग-अलग मज़हब और इलाके की समाज और परिवार से परेशानहाल बेसहारा महिलाएं, एक साथ, एक नई दुनिया बसाने की कोशिश करती है और जो ख्याल से आज़ाद है।
महिला संगठन में सहभागिता – सामाजिक, राजनीतक सक्रियता ने सक्रिय कई महिला संगठनों के लिए रूक़ैया को एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बना दिया। वो कई महिला नेताओं से जुड़ी। सरोजिनी नायडू ने उनके काम की प्रशंसा की। भोपाल की बेगम, बी अम्मा भी उनसे जुड़ी थी। अलीगढ़ में और फिर वह बंगाल में महिला शिक्षा सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण के लिए बुलाई गई। इस भाषण में उन्होंने दुख जताया कि बीस साल काम करने के बाद भी आज बंगाल में एक महिला स्नातक नहीं मिलती।
9 दिसंबर 1932 महज 52 साल की उम्र में रूक़ैया ने इस दुनिया को विदा दी। मगर आखिरी सांस तक उनकी ज़िंदगी स्त्रियों को ही समर्पित रही। बांग्लादेश ने रूक़ैया को काफी इज्जत बख्शी है 9 दिसंबर का दिन रूक़ैया दिवस के रूप में मनाया जाता है।
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