कभी-कभी कोई शख़्सियत ऐसी होती है, जो सिर्फ़ एक नाम नहीं बल्कि अपने आप में एक पूरा क़िस्सा होती है। एक ऐसी कहानी, जिसमें हज़ारों रंग, हज़ारों ख़ुशबुएं और हज़ारों आहटें शामिल हों। जगन्नाथ आज़ाद (1918–2004) भी ऐसी ही एक बेमिसाल, ऐसी ही एक रोशन शख़्सियत थे। एक शायर,एक नाक़िद (आलोचक), एक सहाफ़ी (पत्रकार), एक शिक्षक और सबसे बढ़कर, अल्लामा इक़बाल के सच्चे आशिक़ और दीवाने।
रूह में बसी उर्दू की ख़ुशबू
कहते हैं, उनको अदब की दौलत विरासत में भी मिलती है। ये तोहफा जगन्नाथ आज़ाद को अपने वालिद, जनाब तिलोकचंद ‘महरूम’ की ओर से मिली थी। पंजाब के मियानवाली ज़िले के छोटे से गांव ईसा ख़लील (जो आज पाकिस्तान का हिस्सा है) में 5 दिसंबर 1918 को जब उन्होंने आंखें खोलीं, तो शायद इस मिट्टी को अंदाज़ा भी न था कि ये बच्चा उर्दू अदब में एक नई तारीख़़ रक़म करेगा।
बहार आई है और मेरी निगाहें कांप उट्ठीं हैं
जगन्नाथ आज़ाद
यही तेवर थे मौसम के जब उजड़ा था चमन अपना
एक दिल छू लेने वाला क़िस्सा है कि जब आज़ाद साहब बहुत छोटे थे, उनके वालिद उन्हें एक मुशायरे में ले गए। वहीं उनकी मुलाक़ात उस वक़्त के अज़ीम शायर हफ़ीज़ जालंधरी से हुई। हफ़ीज़ साहब ने उन्हें अपनी मशहूर नज़्म ‘हिंदुस्तान हमारा’ की एक कॉपी दी। ये नज़्म सिर्फ़ काग़ज़ का एक टुकड़ा न थी, ये वो बीज थी जो आज़ाद के दिल में देशभक्ति और अदब की मोहब्बत का पेड़ बनकर उभरी। सालों तक उन्होंने इस नज़्म को पढ़ा, इसे सीने से लगाया और इसकी धुन में अपनी रूह को रंग लिया।
तालीम और तहरीर का संगम: क़लम से रिश्ता
आज़ाद साहब की तालीम भी उनके मिज़ाज की तरह ही आला थी। राजा राममोहन राय हाई स्कूल से मैट्रिक करने के बाद, उन्होंने डीएवी कॉलेज, रावलपिंडी से एफ.ए और गार्डन कॉलेज से बी.एकिया। फिर लाहौर यूनिवर्सिटी से एम.ए (फ़ारसी) और एम.ओ.एल की डिग्रियां हासिल कीं। कॉलेज के दिनों में ही उनकी सहाफ़त (पत्रकारिता) का शौक़ ज़ाहिर हो गया था, जब उन्होंने छात्र पत्रिका “गार्डियन” का संपादन किया।
कब इस में शक मुझे है जो लज़्ज़त है क़ाल में
जगन्नाथ आज़ाद
लेकिन वो बात इस में कहां है जो हाल में
उनकी पहली बाक़ायदा नौकरी लाहौर से निकलने वाली मशहूर उर्दू अदबी पत्रिका ‘अदबी दुनिया’ के संपादक के तौर पर हुई। भारत के बंटवारे के बाद, वो दिल्ली आ गए और यहां ‘मिलाप’ अख़बार में सहायक संपादक बने। ये उनके सफ़र का वो मरहला था जहां अदब और पत्रकारिता ने एक नई राह पकड़ी।
सरकारी ओहदे और अदबी ज़िम्मेदारियां: हुकूमत में भी अदब की बात
1948 में, वो भारत सरकार के श्रम मंत्रालय में ‘रोज़गार समाचार’ के एडिटर मुक़र्रर हुए, और फिर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की अदबी पत्रिका ‘आजकल’ में सहायक संपादक बने। उस वक़्त के अज़ीम शायर जोश मलीहाबादी ‘आजकल’ के मुख्य संपादक थे। ये मुलाक़ात दो शायरों के दिलों को जोड़ने वाली साबित हुई, जहां अदब की बातें और शायरी के नुक्ते एक साथ सांस लेते थे। 1955 में सूचना अधिकारी बने और फिर अलग-अलग मंत्रालयों में जनसंपर्क और सूचना के अहम ओहदे निभाए।
श्रीनगर में जनसंपर्क निदेशक के रूप में उनका एक क़िस्सा बहुत मशहूर है। वे मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़ से लेकर शेख़ अब्दुल्ला तक, कश्मीर की सियासत में मुख़्तलिफ़ ख़्यालात रखने वाले तमाम रहनुमाओं से राब्ता रखते थे। उनका अंदाज़ कुछ ऐसा था कि वो किसी एक पार्टी या विचारधारा से बंधे नहीं थे। लोग उन्हें ‘सरकार का अफ़सर’ नहीं, बल्कि ‘अदब का मुसाफ़िर’ मानते थे एक ऐसा मुसाफ़िर, जो सियासत की पगडंडियों पर भी अदब की शमा जलाए रखता था।
जगन्नाथ आज़ाद ने लिखा पाकिस्तान का तराना
जगन्नाथ आज़ाद ने पाकिस्तान का पहला क़ौमी तराना (National Anthem) लिखा था। हालांकि बाद में इसे बदल दिया गया था, लेकिन शुरुआती दिनों में जब पाकिस्तान बना, तो अल्लामा इक़बाल के शागिर्द जगन्नाथ आज़ाद को ही ये ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी। उन्होंने ही वो तराना लिखा था जिसे कुछ वक़्त तक पाकिस्तान में गाया गया। ये बात उनकी उस सोच को और भी मज़बूत करती है कि अदब और शायरी सरहदों और मज़हबों की क़ैद से आज़ाद होती है।
जगन्नाथ आज़ाद वो नाम हैं, जिन्होंने लफ़्ज़ों से पुल बनाए – मज़हबों के बीच, मुल्कों के बीच और दिलों के बीच। उनकी ज़िंदगी एक शायर की, एक स्कॉलर की, एक मुसाफ़िर की और सबसे बढ़कर एक इंसान की ज़िंदगी थी – जो हमेशा कहता रहा: “उर्दू मेरी ज़ुबान नहीं, मेरी रूह है।”
अल्लाह रे बे-ख़ुदी कि तिरे घर के आस-पास
जगन्नाथ आज़ाद
हर दर पे दी सदा तिरे दर के ख़याल में
उनकी ये बात आज भी उर्दू अदब के हर आशिक़ के दिल में गूंजती है। जगन्नाथ आज़ाद हमेशा उर्दू अदब के उस रोशन सितारे की तरह चमकते रहेंगे, जिसकी रोशनी सरहदों को पार कर दिलों को रोशन करती है।
इक़बाल से मोहब्बत: इब्तिदा भी, इंतेहा भी
जगन्नाथ आज़ाद की ज़िंदगी का सबसे अज़ीम पहलू, उनकी अल्लामा इक़बाल से मोहब्बत थी। वो इक़बाल की शायरी और उनके फ़िक्र (सोच) के सबसे गहरे और बारीक शागिर्द (शिष्य) थे। उन्होंने इक़बाल की ज़िंदगी और शायरी पर 11 से ज़्यादा किताबें लिखीं, जो इक़बालियात (इक़बाल के अध्ययन) में मील का पत्थर मानी जाती हैं। उनका पांच खंडों में लिखा गया ‘रूदाद-ए-इक़बाल’ एक बेमिसाल दस्तावेज़ है, जिसका हर लफ़्ज़ इक़बाल के अक़ीदत में डूबा हुआ था। अफ़सोस, 1988 की भयानक बाढ़ में इसके तीन खंडों की अज़ीम सामग्री ज़ाया (नष्ट) हो गई, जो उर्दू अदब का एक बड़ा नुक़सान था।
तारा चरण रस्तोगी जैसे अदीब कहते हैं: “जगन्नाथ आज़ाद ने बंटवारे के बाद हिंदुस्तान में इक़बाल और उर्दू को फिर से ज़िंदा किया।” ये बात सच है, कि उन्होंने मुल्क के बंटवारे के बावजूद, अदब की सरहदों को तोड़ने का काम किया।
अस्ल में हम थे तुम्हारे साथ महव-ए-गुफ़्तुगू
जगन्नाथ आज़ाद
जब ख़ुद अपने आप से हम गुफ़्तुगू करते रहे
आज़ाद साहब की सोच हमेशा से सरहदों से परे रही। एक दिल को छू लेने वाला किस्सा सुनिए – पाकिस्तान के जनरल ज़िया-उल-हक़ के दौर में, जब पंजाब यूनिवर्सिटी में ‘इक़बाल चेयर’ की बुनियाद रखी गई, तो इस फ़ैसले के पीछे जगन्नाथ आज़ाद की सीधी दख़लंदाज़ी मानी जाती है। इससे ज़ाहिर होता है कि उनका इक़बाल से रिश्ता मज़हब या मुल्क की बंदिशों से आज़ाद था। भारत में उन्होंने अंजुमन तरक़्क़ी-ए-उर्दू को मज़बूत किया और उसके अध्यक्ष भी बने।
वो अक्सर फ़रमाया करते थे: “सियासी तफ़रक़ा (राजनीतिक भेदभाव) शायरों के दिलों को अलहदा नहीं कर सकता।” उनकी ये बात सिर्फ़ एक जुमला नहीं थी, ये उनके अज़्म (दृढ़ संकल्प) का ऐलान थी।
दुनिया को नज़्म में ढालने वाला मुसाफ़िर
जगन्नाथ आज़ाद ने उर्दू के सफ़रनामों में भी एक नया बाब (अध्याय) खोला। उनकी किताबें ‘पुश्किन के देस में’, ‘कोलंबस के देस में’, कनाडा, यूरोप और पाकिस्तान के उनके सफ़र… हर जगह उन्होंने अपने मुशाहिदों (अनुभवों) को नज़्म और नस्र (गद्य) में ढाल दिया। उनकी लेखनी में एक मुसाफ़िर का जज़्बा और एक शायर का नर्म लहजा एक साथ नज़र आता है। वो सिर्फ़ जगहें नहीं देखते थे, बल्कि उन जगहों की रूह को भी महसूस करते थे और उसे अपनी शायरी में ढाल देते थे।
जगन्नाथ आज़ाद को भारत और पाकिस्तान, दोनों मुल्कों में दर्जनों पुरस्कारों से नवाज़ा गया। उन्हें पाकिस्तान के राष्ट्रपति स्वर्ण पदक से सरफ़राज़ (सम्मानित) किया गया, तो भारत सरकार ने उन्हें भारत-सोवियत रिश्तों को मज़बूत करने के लिए भी सम्मानित किया। जम्मू यूनिवर्सिटी ने उन्हें डी.लिट. की अज़ीम डिग्री से नवाज़ा और ग़ालिब इंस्टीट्यूट से लेकर कनाडा की उर्दू सोसाइटी तक, हर जगह उनके नाम का डंका बजता रहा। 24 जुलाई 2004 को दिल्ली के कैंसर संस्थान में इस अज़ीम शख़्सियत का इंतकाल हुआ।
बहार आते ही टकराने लगे क्यूं साग़र ओ मीना
जगन्नाथ आज़ाद
बता ऐ पीर-ए-मय-ख़ाना ये मय-ख़ानों पे क्या गुज़री
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