20-May-2025
HomeArtफ़िराक़ गोरखपुरी: उर्दू ज़बान की आबरू और शायरी की मांग का सिंदूर

फ़िराक़ गोरखपुरी: उर्दू ज़बान की आबरू और शायरी की मांग का सिंदूर

फ़िराक़ ने उर्दू शायरी को रूमानी ख़्वाबों से निकालकर ज़िंदगी के हक़ीकी तजुर्बों से जोड़ा। उन्होंने इश्क़ को सिर्फ़ जज़्बात नहीं, बल्कि सोच, समझ और दर्शन का हिस्सा बनाया। उनके अशआर में जिस्म और रूह का मेल है, मिलन सिर्फ़ जिस्मों का नहीं, बल्कि दो सोचों का है।

फ़िराक़ गोरखपुरी… एक ऐसा नाम जिसने उर्दू शायरी की फिज़ा में नई रोशनी भरी, नई सोच दी और एक पूरा दौर अपने अंदाज़ से संवार दिया। उनका असली नाम रघुपति सहाय था, लेकिन अदब की दुनिया उन्हें फ़िराक़ गोरखपुरी के नाम से जानती है। वो शायर ही नहीं, एक आला दर्जे के आलोचक और विचारक भी थे। डॉ. ख़्वाजा अहमद फ़ारूख़ी का कहना है कि अगर फ़िराक़ न होते, तो हमारी ग़ज़लें उस्तादों की नकल या मुरदा ईरानी रिवायत की परछाई बनकर रह जातीं।

गोरखपुर से अदब तक का सफ़र

फ़िराक़ गोरखपुरी 28 अगस्त 1896 को गोरखपुर में पैदा हुए। उनके वालिद गोरख प्रसाद ‘इबरत’ भी शायर थे और पेशे से वकील थे। उर्दू और फ़ारसी की तालीम उन्होंने घर पर ही हासिल की और फिर गवर्नमेंट जुबली कॉलेज से मैट्रिक पास की। 18 साल की उम्र में उनकी शादी किशोरी देवी से कर दी गई, जो आगे चलकर उनके लिए एक नासूर बन गई।

       तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी हो
     तुम को देखें कि तुम से बात करें

फ़िराक़ गोरखपुरी

शायरी की तरफ़ पहला क़दम

जब फ़िराक़ बी.ए के छात्र थे, तभी उन्होंने अपनी पहली ग़ज़ल कही। उस वक़्त प्रेमचंद भी गोरखपुर में थे और फ़िराक़ से घरेलू रिश्ते रखते थे। प्रेमचंद ने ही उनकी शायरी को ‘ज़माना’ जैसी मशहूर मैगज़ीन तक पहुंचाया। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बी.ए में चौथी पोज़िशन हासिल की लेकिन वालिद की मौत ने ज़िंदगी को झकझोर दिया। छोटे भाई-बहनों की ज़िम्मेदारी, एक नाखुशगवार शादी और घर की परेशानियों ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। नींद की बीमारी ने आ घेरा और आगे की पढ़ाई छूट गई।

सियासत से शायरी तक

वो दौर हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई का था। फ़िराक़ भी कांग्रेस से जुड़े और 1920 में गिरफ़्तार हो गए। 18 महीने जेल में रहे। फिर कांग्रेस में अंडर सेक्रेटरी बने और नेहरू परिवार से गहरे ताल्लुकात रहे। इंदिरा गांधी को वो बेटी कहकर पुकारते थे। मगर सियासत उनका असल मैदान नहीं था। वो तो अदब के फ़नकार थे।

न कोई वा’दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद
मगर हमें तो तिरा इंतिज़ार करना था

फ़िराक़ गोरखपुरी

1930 में अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए किया और बिना किसी सिफ़ारिश या इंटरव्यू के इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में लेक्चरर बन गए। वहां उन्होंने अंग्रेज़ी के साथ-साथ उर्दू और हिंदी शायरी पर भी अपने ख़्यालात ज़ाहिर किए। वो वर्ड्सवर्थ को बहुत पसंद करते थे और घंटों उसके बारे में बोलते थे।

        सुनते हैं इश्क़ नाम के गुज़रे हैं इक बुज़ुर्ग
      हम लोग भी फ़क़ीर उसी सिलसिले के हैं

फ़िराक़ गोरखपुरी

1958 में यूनिवर्सिटी से रिटायर हुए। उनकी निजी ज़िंदगी में तन्हाई थी, ग़म थे, और शराब उनका साया बन गई थी। उनका इकलौता बेटा कम उम्र में ख़ुदकुशी कर गया और बीवी भी उन्हें छोड़ चली गई। बाहर की दुनिया फ़िराक़ को एक बड़े शायर, विद्वान और हाज़िरजवाब इंसान के तौर पर जानती थी, लेकिन अंदर से वो एक टूटा हुआ, ग़मग़ीन इंसान थे।

शायरी का अनोखा अंदाज़

फ़िराक़ ने उर्दू शायरी को रूमानी ख़्वाबों से निकालकर ज़िंदगी के हक़ीकी तजुर्बों से जोड़ा। उन्होंने इश्क़ को सिर्फ़ जज़्बात नहीं, बल्कि सोच, समझ और दर्शन का हिस्सा बनाया। उनके अशआर में जिस्म और रूह का मेल है, मिलन सिर्फ़ जिस्मों का नहीं, बल्कि दो सोचों का है। वो कहते थे कि उर्दू अदब ने अभी तक औरत की असली तस्वीर पेश नहीं की। जब तक उर्दू शकुन्तला, सीता और सावित्री जैसे किरदार पैदा नहीं करेगी, तब तक वो हिंदुस्तान की तहज़ीब की मुकम्मल तर्जुमान नहीं बन सकती।

                सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
            लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं

फ़िराक़ गोरखपुरी

फ़िराक़ की ज़बान आम और रोज़मर्रा की बोली से जुड़ी हुई थी नर्म, मीठी और असरदार। उन्होंने उर्दू को नई लफ़्ज़ों की दौलत दी और शायरी को ऐसे ख़्यालात दिए जो आज भी सोचने पर मजबूर करते हैं।

इज़्ज़त, इनाम और शोहरत

फ़िराक़ की शायरी को हिंदुस्तान ही नहीं, पूरी दुनिया ने सराहा। उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड (1961), सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड (1968), पद्म भूषण और सबसे अहम ज्ञानपीठ अवार्ड (1970) से नवाज़ा गया। जोश मलीहाबादी ने उन्हें “उर्दू ज़बान की आबरू और शायरी की मांग का सिंदूर” कहा।

                          एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें
                          और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं

फ़िराक़ गोरखपुरी

3 मार्च 1982 को दिल की धड़कन थम गई और फ़िराक़ हमेशा के लिए खामोश हो गए। मगर उनकी शायरी आज भी हमारे दिलों में धड़कती है, सोच को झिंझोड़ती है और तहज़ीब की मिसाल बनकर ज़िंदा है। फ़िराक़ गोरखपुरी उस गंगा-जमुनी तहज़ीब की आख़िरी झलक थे जिनका दिल हिंदुस्तान में धड़कता था।

ये भी पढ़ें: मुनीर नियाज़ी: इज़हार, तख़य्युल और तन्हाई का शायर

आप हमें FacebookInstagramTwitter पर फ़ॉलो कर सकते हैं और हमारा YouTube चैनल भी सबस्क्राइब कर सकते हैं।
















RELATED ARTICLES
ALSO READ

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular