मुनीर नियाज़ी, 19 अप्रैल 1928 को पंजाब के होशियारपुर के क़स्बा ख़ानपुर में एक पश्तून घराने में पैदा हुए। मुनीर नियाज़ी की ज़िंदगी का आग़ाज़ ही जद्दोजहद से हुआ। वालिद का साया बचपन में उठ गया। परवरिश मां और चचाओं ने की। मां के अदबी शौक़ ने मुनीर को किताबों से जोड़ दिया। नेवी की नौकरी की, लेकिन दिल तो अदब में ही लगा। साहीवाल में तालीम पूरी की, बी.ए लाहौर के दयाल सिंह कॉलेज से किया और वहीं से शायरी का आगाज़ किया। मंटो और मीरा जी से प्रभावित होकर उन्होंने भी नज़्म और ग़ज़ल को अपनी ज़ुबान बना लिया।
मुनीर की शायरी में जैसे धुंध से ढकी गलियां हैं, बारिश की भीगी उदासी है, दिल के वीरान मकान में जलता एक दिया है। वो लिखते नहीं, कोई राज़ खोलते हैं। हर मिसरा जैसे किसी भूले हुए ख़्वाब की झलक हो। मुनीर नियाज़ी ने शायरी को एक रहस्यात्मक मिज़ाज दिया जो रूह को छूता है और दिमाग़ को हैरानी में डाल देता है।
किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
मुनीर नियाज़ी
सवाल सारे ग़लत थे जवाब क्या देते
मुनीर नियाज़ी की शायरी न रस्मी है, न रवायती— वो एक अलग रास्ता है, एक अलग दबिस्तान जो सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। बीसवीं सदी के आख़िरी दशकों में अगर किसी शायर ने उर्दू अदब की रूह में गहराई तक दस्तक दी है, तो वो मुनीर नियाज़ी हैं। उनकी शायरी न कोई मज़हबी तक़रीर है, न कोई सियासी नज़रिया। ये तो तजुर्बात का वो इत्र है जो हर दिल की अलमारी में अपनी खुशबू छोड़ जाता है।
“मैं मुनीर नियाज़ी को महज़ एक बड़ा शायर नहीं मानती, वो एक मुकम्मल ‘स्कूल आफ़ थॉट’ हैं… जहां हवाएं बोलती हैं, दीवारें सुनती हैं, और परछाइयां चलते-फिरते अफ़साने बुनती हैं।” — बानो क़ुदसिया
शायरी का मक़ाम और असर
मुनीर नियाज़ी की शायरी में सादगी और रहस्य, मोहब्बत और मायूसी, तलाश और तन्हाई — ये सब साथ-साथ चलती हैं। उन्होंने उर्दू और पंजाबी दोनों ज़बानों में शायरी की और दोनों में ही अपना लोहा मनवाया। वो कहते थे:“कुशादा और ज़ियादा की तलाश में, मैं अपने आस-पास की चीज़ों से बेगाना हो गया हूं।”
उनकी शायरी में हर इंसान अपने तजुर्बे को ढूंढ सकता है। शायद यही वजह है कि उनकी तहरीर हर दिल की ज़बान बन जाती है।
फ़िल्मी दुनिया से शोहरत तक
1960 के दशक में उन्होंने पाकिस्तानी फ़िल्मों के लिए भी नग़मे लिखे जो बेहद मक़बूल हुए। “ज़िंदा रहें तो क्या है, जो मर जाएं हम तो क्या” जैसे अशआर हर ज़माने के नौजवानों की धड़कनों में गूंजते रहे। मगर फ़िल्मी चमक-दमक से निकल कर वो फिर अपने तिलिस्मी जहान में लौट आए।
मोहब्बत और तन्हाई — शायर की शख़्सियत
मुनीर नियाज़ी अपनी ज़िंदगी में उतने ही पुर-असरार थे जितनी उनकी शायरी। उन्होंने खुद कहा था कि उन्हें “चालीस बार इश्क़” हुआ। मगर आख़िर में 1958 में बेगम नाहीद से निकाह किया। अपनी शख़्सियत में गहरी अनानीयत रखते थे।किसी समकालीन शायर को ‘बड़ा’ मानने से परहेज़ करते थे।
उनकी अदबी ख़िदमात के ऐतराफ़ में पाकिस्तान हुकूमत ने उन्हें “सितारा-ए-इमतियाज़” और “प्राइड ऑफ परफॉर्मेंस” जैसे तमगों से नवाज़ा। लेकिन उनकी असली पहचान उनके अशआर में है, जो हर पढ़ने वाले को उसका अपना अक्स दिखाते हैं।
आख़िरी वक़्त और यादगार
26 दिसंबर 2006 को सांस की बीमारी के चलते मुनीर इस दुनिया से रुख़सत हुए, मगर उनकी तहरीर अब भी हवा में तैरती है। वो शायर नहीं, एक रुहानी फिज़ा हैं। एक धीमी रोशनी जो आज भी जुगनुओं की तरह जल रही है। उनकी शायरी कहती है:
“हमेशा देर कर देता हूं मैं हर काम करने में… ज़रूरी बात कहनी हो, कोई वादा निभाना हो…”
मुनीर नियाज़ी
और यही देर उनकी शायरी को हमेशा के लिए हमारे दिलों में बसा देती है।
ये भी पढ़ें: बशीर बद्र: उर्दू ग़ज़ल को नई ज़बान और जज़्बात देने वाला शायर
आप हमें Facebook, Instagram, Twitter पर फ़ॉलो कर सकते हैं और हमारा YouTube चैनल भी सबस्क्राइब कर सकते हैं।