हाल की फिल्मों ने हिंदू-मुस्लिम विवादों का उपयोग कर बॉक्स ऑफिस में जोश बढ़ाया, लेकिन हिंदी सिनेमा इससे अलग रहा है। सौ साल पुराने इस सिनेमा ने हिंदी-उर्दू, हिंदू-मुस्लिम, पारसी थिएटर, पौराणिक और मुस्लिम कथाओं की फिल्में बनाई हैं। राष्ट्रीय चेतना में कुछ टूट-फूट आई है, जो सिनेमा पर प्रभाव डाल रही है, लेकिन यह अभी भी पर्दे पर है।
शाहरुख खान, आमिर खान, सलमान खान और अमिताभ बच्चन जैसे कलाकारों का हिंदी सिनेमा के मूल स्वर में महत्वपूर्ण योगदान है। सेंसरशिप की वजह से पहले विवादास्पद मुद्दों से बची थीं फिल्में।
आजादी के बाद लोगों को पहला मकसद राष्ट्र-निर्माण था। शुरू में लोगों के पास सपने थे, बराबरी के, समृद्धि और खुशहाली के। इसलिए साम्यवादी सपनों वाली फिल्में बनती थी।
हमने मदर इंडिया, दो बीघा जमीन, और नया दौर जैसी फिल्में देखीं। कुछ फिल्मों में जाति-प्रथा और छुआछूत पर चोट की गई। साम्यवाद के प्रभाव में सामंतवाद, जमींदारी की बुराई की गई, रोजगार और मकान की कमियों की ओर इशारा किया गया।
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