09-Jul-2025
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KCS Kashmir Shawl Emporium: 1950 से असली पश्मीना की पहचान

पश्मीना की कहानी 15वीं सदी से जुड़ी हुई है, जब सुल्तान ज़ैनुल आबेदीन ने कश्मीर में इस कला को बढ़ावा दिया।

जहां बात पश्मीना की हो, वहां कश्मीर का नाम अपने आप जुड़ जाता है। ये कहावत उस परंपरा को बख़ूबी बयां करती है जो भारत की पुरानी दस्तकारी में गहराई से जुड़ी हुई है। KCS Kashmir Shawl Emporium इस विरासत की मिसाइल है, जो 1950 से पश्मीना बुनाई की कला को आगे बढ़ा रहा है। ये सिर्फ़ एक परंपरा को निभाने की कहानी नहीं है, बल्कि पुराने तरीकों और नए बदलावों के ख़ूबसूरत मेल की मिसाल है। ये एम्पोरियम सिर्फ़ एक दुकान नहीं है, बल्कि उम्मीद, मेहनत और तीन पीढ़ियों के हुनरमंद हाथों की कहानी है, जो आज भी कश्मीरी हस्तशिल्प की रोशनी को जलाए हुए है।

क्या है पश्मीना?

पश्मीना एक बेहद नर्म, हल्की और गर्म ऊन होती है, जो ख़ास बकरी से मिलती है। इसका नाम फारसी शब्द ‘पश्म’ से लिया गया है, जिसका मतलब होता है-ऊन। ये ऊन चांगथांगी बकरी से मिलती है जो लद्दाख के ठंडे पहाड़ी इलाकों में पाई जाती है। इन बकरियों के शरीर पर जो महीन ऊन उगती है, उसी से पश्मीना बनाया जाता है। ऊन इतना मुलायम होती है कि इससे बने शॉल को अंगूठी में से भी आसानी से निकाला जा सकता है।

पश्मीना का इतिहास क्या है?

पश्मीना की कहानी 15वीं सदी से जुड़ी हुई है, जब सुल्तान ज़ैनुल आबेदीन ने कश्मीर में इस कला को बढ़ावा दिया। धीरे-धीरे कश्मीरी कारीगरों ने इतने महीन धागों से शॉल बुनना शुरू किया कि वो रेशम और मलमल से भी हल्का लगने लगा। मुग़ल सम्राट अकबर भी पश्मीना के बहुत बड़े कद्रदान थे और उन्होंने इसे राजदरबार की शान बना दिया। तभी से ये शॉल दुनिया भर में मशहूर हुई।

एक असली पश्मीना शॉल को बनाने में 2 से 4 महीने तक का समय लग सकता है। अगर उस पर कढ़ाई भी की जा रही हो, जैसे कि सोज़नी, अरी या जामावार तो इसे बनने में 6 महीने से लेकर 1 साल तक लग सकता है। इसमें पूरा काम हाथों से किया जाता है। धागा तैयार करना, करघे पर बुनना, और फिर कढ़ाई। असली पश्मीना को मशीन से नहीं, सिर्फ़ हैंडलूम से ही बुना जा सकता है। हर साल कश्मीर में करीब 50,000 से 70,000 शॉल बनाए जाते हैं। ये सभी शॉल बेहद मुलायम, गर्म और बारीकी से तैयार किए गए होते हैं।

KCS Kashmir Shawl Emporium की शुरुआत कैसे हुई?

KCS एक ऐसा ब्रांड है जिसने पश्मीना को नई पहचान दी है। कंपनी के डायरेक्टर सारथी साहनी इस परिवार की तीसरी पीढ़ी से हैं, जो इस काम को आगे बढ़ा रहे हैं। उन्होंने DNN24 को बताया कि उनके दादा जी 1950 में श्रीनगर से दिल्ली आए थे। उन्होंने श्रीनगर में शॉल बनाने की कला सीखी और दिल्ली के जनपथ मार्केट में एक स्टॉल खोला, जो आज भी वहां मौजूद है। आज KCS के पास तीन स्टोर, एक वेबसाइट और एक्सपोर्ट का बड़ा बिज़नेस है, जिसकी शुरुआत 1980 में उनके पिता ने की थी।

अब सिर्फ शॉल नहीं — और भी बहुत कुछ

शुरुआत में KCS Kashmir Shawl Emporium सिर्फ पश्मीना शॉल बनाता था। लेकिन अब उन्होंने अपने प्रोडक्ट्स की रेंज बढ़ा दी है। अब वे बनाते हैं, वूल की शॉल, स्कार्फ और स्टॉल, जैकेट, सोफा थ्रोन्स, वूलन ब्लैंकेट, कुशन, बेड कवर, कानी साड़ी, नेहरू जैकेट और महिलाओं व पुरुषों के लिए ख़ास डिज़ाइन किए गए। KCS Kashmir Shawl Emporium ने अपने डिज़ाइन और कस्टमर कम्युनिकेशन में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) का इस्तेमाल शुरू किया है। इससे उन्हें ग्राहकों की पसंद समझने और डिज़ाइन बेहतर बनाने में मदद मिलती है।

टेक्सटाइल इंडस्ट्री के लिए सस्टेनेबल (टिकाऊ) बनाना आज एक ज़रूरी कदम है। लेकिन ये आसान नहीं है। सारथी साहनी मानते हैं कि उन्हें ऐसे रंग और तकनीक अपनाने चाहिए, जो पर्यावरण के लिए सुरक्षित हों, लेकिन बाज़ार की मांग को भी समझना पड़ता है। अभी टिकाऊ प्रोडक्ट्स आम लोगों तक सस्ते दाम में पहुंचाना मुश्किल है। यही सबसे बड़ी चुनौती है।फिर भी, कंपनी क्वालिटी को सबसे ज़्यादा महत्व देती है। सरकार की कोशिशों से अब उनके सभी प्रोडक्ट्स को देहरादून की पश्मीना टेस्टिंग लैब से सर्टिफाइ किया जाता है। हर प्रोडक्ट पर QR कोड और फोटो होती है, इससे ग्राहक बिना किसी शक के भरोसे से असली पश्मीना खरीद सकते हैं, चाहे वो हैंडलूम से बना हो या मशीन से।

पश्मीना सिर्फ़ एक कपड़ा नहीं, बल्कि एक विरासत है। KCS Kashmir Shawl Emporium जैसी कंपनियां इसे सिर्फ़ बचा नहीं रही हैं, बल्कि नई सोच और तकनीक के साथ आगे भी बढ़ा रही हैं। असली पश्मीना की पहचान बनाए रखना और इसे दुनिया तक पहुंचाना ही KCS Kashmir Shawl Emporium का सपना है और आज भी वह उसी लगन से काम कर रहे हैं, जैसे उनके दादा ने शुरू किया था।

ये भी पढ़ें: कैसे बनती है पश्मीना ऊन से बनी कश्मीर की मशहूर कानी शॉल

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