ख़ुदा-ए-सुख़न यानी कविता के भगवान कहे जाने वाले मीर तक़ी ‘मीर’ जिस ज़माने में जिए वह हिन्दुस्तान की तारीख़ का बेहद उथलपुथल भरा दौर था। मीर आगरा में पैदा हुए थे और उनके जन्म का साल 1723 माना जाता है अलबत्ता डॉ. सैयद एजाज़ हुसैन की किताब में इसे 1724 बताया गया है।
जो भी हो 1707 में औरंगज़ेब के मरने के बाद से लेकर मीर की पैदाइश के दरमियान के सोलह-सत्रह साल में दिल्ली के तख़्त पर छः बादशाह काबिज़ हुए। इस तख़्त को लेकर ख़ूब ख़ूनख़राबा भी होता रहा और सिवाय बहादुरशाह के सभी बादशाह अप्राकृतिक मौत मरे। अकबर और बाबर जैसे मज़बूत सम्राटों द्वारा स्थापित मुग़ल साम्राज्य की ऐसी बदहाली पहले न देखी गई थी। मीर जब पैदा हुए, मुहम्मद शाह गद्दी नशीं था। मुहम्मद शाह के भीतर भी बादशाही की क़ाबिलियत नहीं थी और उसके शासन संभालते ही तमाम जगहों पर विद्रोह शुरू हो गए। इस मुश्किल वक़्त का फ़ायदा उठाकर नादिरशाह ने हिन्दुस्तान पर हमला बोल दिया। उसकी क्रूरता दिल्ली में अपने चरम पर पहुँची जहां उसने पूरे सत्तावन दिनों तक क़त्लो-ग़ारत किया और हज़ारों लोगों को मौत के घाट उतारा। 5 मई 1939 को जब नादिरशाह वापस लौटा दिल्ली पूरी तरह बर्बाद हो चुकी थी।
उधर मीर तब तक बेहद ख़स्ताहाल पारिवारिक हालात देख चुके थे। उनके बाप बाकायदा फ़कीर थे और हर समय अल्लाह की ख़िदमत में लगे रहते थे। पिता की सोहबत का उनके जीवन पर काफ़ी गहरा प्रभाव था। एक और बुज़ुर्ग थे सय्यद अमानुल्ला। मीर उन्हें भी बहुत मानते थे। बदकिस्मती से ये दोनों अभिभावक थोड़े से अंतराल पर एक के बाद एक धरती से विदा हो गए। भावनात्मक रूप से अचानक अकेले पड़ गए ग्यारह साल के मीर को अभी और दुःख झेलने थे। उनका एक बड़ा सौतेला भाई था मुहम्मद हसन जिसने बाप की सारी जायदाद कब्ज़ा ली और पुश्तैनी कर्ज़ा उसके सर कर दिया।
कच्ची उम्र में आन पड़ी बड़ी ज़िम्मेदारी को निभाने के सबब मीर को अपने छोटे भाई मुहम्मद रज़ी को लेकर दिल्ली आना पड़ा। इधर-उद्धत ठोकरें खाने के बाद अपने बाप के एक शिष्य की कृपा से उन्हें नवाब शम्सुद्दौला के यहाँ से एक रुपये रोज़ का वज़ीफ़ा मुक़र्रर हुआ।
धीरे-धीरे ज़िंदगी ढर्रे पर आ ही रही थी कि नादिरशाह का हमला हो गया और नवाब साहब मारे गए। मजबूरी की हालत में वापस आगरा लौटना पड़ा। जैसे-तैसे वहां थोड़ा समय गुज़रा लेकिन रोटी की तलाश उन्हें दोबारा दिल्ली ले आई. यहाँ उन्हें सौतेले भाई के मामू सिराजुद्दीन खान आरज़ू ने पनाह दी जो खुद एक शायर और कलावंत थे। उसके बाद इत्तिफ़ाक़न उन्हें पहले मीर ज़ाफ़र और फिर सैयद स आदत अली खान अमरोही जैसे उस्तादों की निस्बत हासिल हुई और वे खुद शायरी करने लगे।

लेकिन शायरी करने भर से पेट नहीं भरना था। सो ज़िंदगी भर अलग-अलग नवाबों, रईसों और राजाओं की मुसाहिबी करनी पड़ी। मुल्क के हालात लगातार बद से बदतर होते जा रहे थे। कभी किसी रियासत में विद्रोह हो जाता, कभी कोई बाहरी आक्रान्ता हमला बोल देता।
इस सियासी तूफ़ान का शिकार हमेशा की तरह साधारण लोग बना करते. लगातार पिटते इस अवाम के जीवन की ही तरह मीर का पूरा जीवन भी लगातार अनिश्चितता और दुखों का गहवारा बना रहा। हालांकि उनके आख़िरी साल लखनऊ में अपेक्षाकृत कम मुश्किलों में गुज़रे, मीर को ज़्यादातर ऐसा घटनापूर्ण जीवन नसीब हुआ जिसमें लम्बे समय तक एक ठौर बैठने की फ़ुर्सत नहीं मिलती थी। वे कहते भी हैं –
बैठने कौन दे है फिर उसको
जो तिरे आस्तां से उठता है
बड़ा कवि ऐसी ही परिस्थितियों में पैदा होता है। बड़े कवि की ज़रूरत भी सबसे ज़्यादा ऐसे ही समय में होती आई है। एक ऐसे कवि की जो अपने दिल की बात भी कहे और अपने समय और उसके जन-इतिहास को ऐसे शब्दों का जामा पहनाए कि उसकी आपबीती जगबीती हो जाए। मीर तक़ी ‘मीर’ ने इस काम को ऐसे सलीके से किया और जिया कि उनके कहे को सबने अपना कहा जाना, उनकी कहानी में हर किसी को अपनी कहानी नज़र आई। हाल के वक्तों में रूसी कवयित्री अन्ना अख्मातोवा और चेक महाकवि यारोस्लाव साइफर्त ने भी यही काम किया है।
मीर के भीतर के कवि को उनके बिलकुल बचपन में पिता अली मुत्तकी के गढ़ना शुरू कर दिया था। आगरा के बड़े फ़कीर कलीमुल्ला अकबराबादी का शिष्य बन चुकने के बाद जब अली मुत्तकी ने खुद फकीरों का बाना पहना तो बेटे को मोहब्बत के पाठ पढ़ाए। अपनी आपबीती ‘ज़िक्रे-मीर’ में मीर तक़ी बताते हैं कि कैसे उनके पिता अक्सर कहते थे, “बेटा, दुनिया में मोहब्बत ही मोहब्बत है। अगर मोहब्बत न होती तो दुनिया पैदा न होती। बग़ैर मोहब्बत के ज़िंदगी वबाल है। दुनिया में जो कुछ है इश्क है। ख़ुदा की मोहब्बत को अपनी ज़िन्दगी बना ले!”

इस मोहब्बत के साथ पिता ने बेटे को फ़कीरी और ज़बान की शिक्षा भी दी। विरसे में मिली इस दौलत को मीर अपनी वसीयत में यूं दर्ज़ करते हैं “बेटा, हमारे पास दुनिया के धन दौलत में से तो कोई चीज़ नहीं है जो आगे चलकर तुम्हारे काम आये, लेकिन हमारी सबसे बड़ी पूंजी, जिस पर हमें गर्व है, भाषा का सिद्धांत है, जिस पर हमारा जीवन और मान निर्भर रहा, जिसने हमें अपमान के खड्डे में से निकाल कर प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया। इस दौलत के आगे हम दुनिया की हुकूमत को भी तुच्छ समझते रहे। तुम को भी अपनी पैतृक संपत्ति में यही दौलत देते हैं।”
यह अकारण नहीं है कि दुःख और प्रेम मीर तक़ी मीर की कविता के दो मज़बूत स्तम्भ हैं। और लम्बी साधना से हासिल हुई ज़बान की दौलत इन खम्भों पर दिलकश नक्काशियां उकेरने का काम करती है।
हमारे उपमहाद्वीप की कविता में दुःख का ऐसा गायक दूसरा नहीं। मीर बाबा के यहां दुःख से भरा आदमी अपनी सारी शिकस्तों के बावजूद पूरे गुरूर के साथ चमकता है और बर्बाद हो जाने के बाद भी यह कहने का हौसला रखता है:
हरचंद इस मता’अ की अब कद्र कुछ नहीं
पर जिस किसू के साथ रहो तुम वफ़ा करो
उर्दू कविता के इतिहास की सबसे ज़रूरी किताब ‘आब-ए-हयात’ में मीर तक़ी मीर की कविता के बारे में मौलाना मोहम्मद हुसैन आज़ाद लिखते हैं – “कद्रदानी ने इनके कलाम को जवाहर और मोतियों की निगाह से देखा और इनके नाम को फूलों की महक बनाकर उड़ाया। हिन्दुस्तान में यह बात इन्हीं को नसीब हुई है कि मुसाफ़िर इनकी ग़ज़लों को तोहफे के तौर पर शहर से शहर में ले जाते थे।”

सादगी, गहराई और सच्चे दर्द से लबरेज़ मीर तक़ी मीर के शब्द महफिलों में गाये जाते थे तो फ़कीरों के झोपड़ों और खानकाहों में भी उनकी गूंज धमकती थी। उनकी शायरी की उत्तर से लेकर दकन तक धूम थी। उनके समकालीन उनकी प्रतिभा के कायल थे और उनके बाद के शायरों ने उन्हें ईश्वर से ऊंची जगह पर स्थापित किया। ग़ालिब ने कहा “आप बेबहरा है जो मोतकिदे मेरे मीर नहीं” तो नूह नारवी ने लिखा – “बड़ी मुश्किल से तक़लीद-ए-जनाब-ए-मीर होती है”। इब्ने इंशा साहब ने फरमाया:
अल्लाह करे मीर का जन्नत में हो मकां
मरहूम ने हर बात हमारी ही बयां की
मीर अपनी महानता से नावाकिफ़ नहीं थे और इसका उन्हें बड़ा गुमान भी था जो उनकी शायरी की उत्कृष्टता पर बहुत फबता था। अपनी खुद की शायरी और कहने की तारीफ़ में जितने बोल उन्होंने कहे हैं उतने शायद किसी और कवि ने नहीं कहे। कहते हैं –
कुछ हिन्द ही में मीर नहीं लोग जेबचाक
है मेरे रेख्तों का दीवाना दकन तमाम
और –
जादू की पुड़ी परचये अबयात था उसका
मुंह तकते ग़ज़ल पढ़ते अजब सेहरे बयां था
और ये भी –
न रक्खो कान नज़्म-ए-शायराने-हाल पर इतने
चलो टुक मीर को सुनने कि मोती से पिरोता है
और जिस रेख्ते को उन्होंने साधा और जिसके लिए वे कहते थे कि “ये हमारी ज़बान है प्यारे”, उसकी उन्नति के लिए किये गए अपने काम को खुद ही पहचान कर उन्होंने यह भी कहा –
रेख्ता काहे को था इस रुतबये-आला में मीर
जो ज़मीं निकली उसे ता-आसमां मैं ले गया
अपनी खुद की भाषा की से अव्वल दर्जे की मोहब्बत करने वाला यह शायर कहता था –
मीर दरिया है सुने शेर ज़बानी उसकी
अल्लाह अल्लाह रे तबीयत की रवानी उसकी
कवि को ऐसा ही होना चाहिए। स्वाभिमान मीर तक़ी मीर का विशेषाधिकार था क्योंकि वे अपने शब्दों और तजुर्बों पर मशक्कत करते थे और अपने काम को गंभीरता से लेते थे। कम लिखते थे और ज़िम्मेदारी से लिखते थे। तभी तो कह पाते थे कि –
हुस्न तो है ही करो लुत्फ़-ए-ज़बां भी पैदा
मीर को देखो कि सब लोग भला कहते हैं।
अशोक पांडे चर्चित कवि, चित्रकार और अनुवादक हैं। पिछले साल प्रकाशित उनका उपन्यास ‘लपूझन्ना’ काफ़ी सुर्ख़ियों में है। पहला कविता संग्रह ‘देखता हूं सपने’ 1992 में प्रकाशित। जितनी मिट्टी उतना सोना, तारीख़ में औरत, बब्बन कार्बोनेट अन्य बहुचर्चित किताबें। कबाड़खाना नाम से ब्लॉग kabaadkhaana.blogspot.com। अभी हल्द्वानी, उत्तराखंड में निवास।