08-Jul-2025
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डॉ. शारिक अक़ील: अलीगढ़ की फ़िज़ा में घुली उर्दू अदब की मिठास

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और उर्दू का रिश्ता, गंगा-जमुनी तहज़ीब की मिसाल है. डॉ. शारिक़ अक़ील बताते हैं कैसे सर सैयद से लेकर आज तक, AMU ने उर्दू अदब को संवारा और यह ज़बान दिलों को जोड़ती है।

जब कोई अलीगढ़ का नाम लेता है, तो ज़हन में एक ही तस्वीर उभरती है  तहज़ीब, तालीम और तअल्लुक़ की। और अगर बात अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) की हो, तो उस तस्वीर में उर्दू की मोहब्बत और गंगा-जमुनी तहज़ीब की ख़ुशबू भी घुल जाती है। डॉ. शारिक अक़ील, जो इस वक़्त AMU में चीफ़ मेडिकल ऑफ़िसर हैं, उनका ताल्लुक़ सिर्फ़ मेडिकल से नहीं, बल्कि इस ज़मीन की रूह यानी उर्दू और उसकी तहज़ीब से भी बहुत गहरा है।

हमने जब उनसे मुलाक़ात की, तो महसूस हुआ कि ये महज़ एक बातचीत नहीं, बल्कि एक अहसास है  एक दौर की दास्तान, एक ज़बान की रवायत और एक तहज़ीब का फ़ख़्र।

“उर्दू सिर्फ़ लफ़्ज़ नहीं, एहसास है…”

डॉ. शारिक कहते हैं, 

“उर्दू जिसे कहते हैं मोहब्बत की ज़बान है,
 दुनिया-ए-मोहब्बत की यही शाहजहां है।” 

उर्दू न तो हिंदू, न मुसलमान की ज़बां है, 
 ये तो दिल की ज़बां  दिल की ज़बां  हैं” 

डॉ. शारिक अक़ील

उनके लिए उर्दू महज़ एक ज़बान नहीं, दिल की आवाज़ है। जब कोई बात दिल से करनी होती है, तो वो अपने आप उर्दू की शक्ल इख़्तियार कर लेती है। ये ज़बान इतनी ख़ूबसूरत है कि इसमें जज़्बात ख़ुद-ब-ख़ुद ढल जाते हैं।  हम अपनी मादरी ज़बान में जिस शिद्दत से अपने एहसासात बयान कर सकते हैं, वो किसी और ज़बान में मुमकिन नहीं। वो एक और मशहूर शेर का हवाला देते हुए कहते हैं, ‘कभी सोचा भी है तुमने अगर उर्दू नहीं होती, हमारी गुफ़्तगू में फिर कभी ख़ुशबू नहीं होती’। ये शेर बताता है कि उर्दू हमारी बातों को सिर्फ़ अल्फ़ाज़ नहीं देती, बल्कि उनमें ख़ुशबू घोल देती है, उन्हें ज़िंदगी बख़्श देती है। यही वजह है कि जब वो अपने तालिब-ए-इल्मों से बातचीत करते हैं, तो अक्सर एक शेर सुनाते हैं:

“चमेली और बेले से तो बस गुलदान महकेगा,
जो हम सब मिलके बैठेंगे तो हिंदुस्तान महकेगा।”

डॉ. शारिक अक़ील
सर सैयद अहमद ख़ान और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU)

अलीगढ़ की गंगा-जमुनी तहज़ीब और उर्दू का किरदार

अलीगढ़ सिर्फ़ एक शहर नहीं, बल्कि एक मिसाल है गंगा-जमुनी तहज़ीब की। AMU में मुख़्तलिफ़ मज़हबों के तालिबे-इल्म, हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, सब एक छत के नीचे बड़े प्यार और भाईचारे से रहते हैं । 

डॉ. शारिक बताते हैं कि अलीगढ़ और उर्दू का रिश्ता सदियों पुराना है। ‘ये दोनों एक-दूसरे के लिए लाज़िम व मलज़ूम हैं। उन्हें अलग नहीं किया जा सकता।’ सर सैयद अहमद ख़ान ने जिस वक़्त AMU की बुनियाद रखी, उसी वक़्त उर्दू को एक फ़िक्री और अदबी ज़बान की शक्ल दी। उन्होंने याद दिलाया कि जब 8 जनवरी 1877 को MAO कॉलेज का संग-ए-बुनियाद रखा गया था, तो स्टेज पर तीन मज़ाहिब के लोग थे- मुसलमान (सर सैयद), हिंदू (राजा शंभू नारायण), और ईसाई (लॉर्ड लिटन)। यही था असली गंगा-जमुनी तहज़ीब का आग़ाज़, जो आज भी अलीगढ़ में ज़िंदा है।

ज़बानों का कोई मज़हब नहीं होता

आजकल कुछ सियासी लोग उर्दू को सिर्फ़ मुसलमानों की ज़बान कहकर बांटने की कोशिश करते हैं, लेकिन डॉ. अक़ील इस सोच की सख़्त मुख़ालफ़त करते हैं। वो कहते हैं, “ज़बानों का मज़हब नहीं होता है, मज़हब इंसानों का हो सकता है।’ वो इस बात पर ज़ोर देते हैं कि उर्दू एक तहज़ीब का ज़रिया है, बातचीत का ज़रिया है, अपने ख़्यालात और जज़्बात दूसरों तक पहुंचाने का ज़रिया है। इसमें मज़हब कहां से आ गया?

और आगे कहते हैं कि उर्दू अदब की तारीख़ गवाह है कि कितने ही ग़ैर-मुस्लिम शायरों और अदीबों ने इस ख़िदमत में अपनी ज़िंदगी लगा दी। पंडित रघुपति सहाय ‘फ़िराक़ गोरखपुरी’, राम लाल, गोपीचंद नारंग, पंडित दया शंकर नसीम, ब्रज नारायण चकबस्त, राजेंद्र सिंह बेदी, कृष्णानंद… ये तो कुछ ही नाम हैं। उनकी फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है। इन सब ने उर्दू को अपना ख़ून-पसीना दिया है। डॉ. अक़ील साहब कहते हैं कि उर्दू ने हर मज़हब के मानने वालों को अपने सीने से लगाया है और इस ज़बान की ख़िदमत करने में सब बराबर के शरीक हैं। इसी वजह से अलीगढ़ और उर्दू का ये रिश्ता गंगा-जमुनी तहज़ीब की एक बेहतरीन मिसाल बन गया है।

सर सैयद अहमद ख़ान और उर्दू का इंक़लाब

सर सैयद अहमद ख़ान को जदीद उर्दू नस्र (गद्य) का बानी माना जाता है। उन्होंने जो कुछ उर्दू में लिखा, उसने आम लोगों में बेदारी पैदा की। उस वक़्त 1857 के बाद मुस्लिम क़ौम पज़मुर्दा और मायूस थी। सर सैयद के क़लम ने उन्हें जगाया, एक बंद गली से रास्ता निकाला। उन्होंने सोई हुई क़ौम को बताया कि दुनिया कहां से कहां पहुंच रही है, उठो, जागो! इस तरह सर सैयद के क़लम और उनकी ज़बान ने क़ौम में एक नई जान फ़ूंक दी।  इसमें उर्दू का बहुत बड़ा किरदार था।

सर सैयद ने उर्दू के साथ-साथ संस्कृत को भी उतनी ही अहमियत दी। वो जानते थे कि तालिबे-इल्मों को मुख़्तलिफ़ ज़बानों का इल्म होना चाहिए। उन्होंने शिबली नोमानी जैसे उर्दू के अज़ीम अदीबों को AMU लेकर आए, जिन्होंने उर्दू अदब की ज़बरदस्त ख़िदमत की। इसी तरह संस्कृत के भी बड़े-बड़े विद्वानों को अलीगढ़ बुलाया गया और शोबा-ए-संस्कृत क़ायम किया गया। 

AMU से तालीम हासिल करने वाले उर्दू के अज़ीम नाम एक लंबी फ़ेहरिस्त बनाते हैं: हाली, शिबली, हसरत मोहानी, जोश मलीहाबादी, फ़ानी बदायुंनी, शकील बदायूंनी, साहिर लुधियानवी, जानीसार अख़्तर, अली सरदार जाफ़री, शहरयार, रशीद अहमद सिद्दीक़ी, अब्दुल ग़फ़्फ़ार, खुर्शीद-उल-इस्लाम, अख़्तर शीरानी, इस्मत चुग़ताई, कुर्रतुलएन हैदर, रशीद जहां बेगम, मंटो, जावेद अख़्तर, बशीर बद्र, अनवर जलालपुरी, राही मासूम रज़ा, ख़्वाजा अहमद अब्बास और न जाने कितने।  इन सबने अलीगढ़ से तालीम हासिल की और फिर उर्दू अदब को अपनी ज़बरदस्त ख़िदमात से नवाज़ा। डॉ. साहब तो यहां तक कहते हैं कि सर सैयद ये कहते थे कि अगर आख़िरत में अल्लाह उनसे पूछेगा कि क्या लेकर आए हो, तो वो कहेंगे कि मैंने हाली से ‘मुसद्दस’ लिखवाई। मौलवी अब्दुल हक़, जिन्हें बाबा-ए-उर्दू कहा जाता है, उनका ताल्लुक़ भी अलीगढ़ से था। ये तमाम नाम गवाह हैं कि अलीगढ़ और उर्दू अदब का रिश्ता कितना मज़बूत है।

Wall Of Fame पर लगी मशहूर शख़्सियतों की तस्वीर

AMU में मुशायरे और ग़ज़लों की महफ़िलें 

अलीगढ़ में आज भी उर्दू की महफ़िलें और मुशायरे क़ायम हैं। यूनिवर्सिटी के अंदर सालाना दो बड़े मुशायरे होते हैं, एक जश्न-ए-जम्हूरियत के मौक़े पर 25 जनवरी को, और दूसरा यौमे-आज़ादी के मौक़े पर 14 अगस्त को होता है। इसका मतलब है कि AMU में जश्न-ए-जम्हूरिया और यौम-ए-आज़ादी की इब्तिदा उर्दू की महफ़िलों से होती है। आज भी बहुत से लोग अलीगढ़ से ताल्लुक़ रखते हैं और अच्छी शायरी कर रहे हैं, जैसे शहपर रसूल, सैयद मोहम्मद अशरफ़, सिराज अजमली, शाहबुद्दीन साकिब, और सरवर साजिद और इस तरह के लोग अभी भी बेहतरीन शायरी करते हैं। 

जब बात टेक्नोलॉजी की आती है, तो डॉ. साहब मानते हैं कि उर्दू को अभी इसमें और काम करने की ज़रूरत है। वो कहते हैं, ‘हमें तेज़ी के साथ बदलते हुए ज़माने के साथ अपने क़दमों को मिलाना होगा और अपनी चाल को, अपनी ढाल को, अपने क़दम को उसी अंदाज़ से आगे बढ़ाना होगा’। 

डॉ. अक़ील साहब कहते हैं कि ज़बानें इंसानों को आपस में मिलाती हैं, ख़ासकर उर्दू. वो गंगा-जमुनी तहज़ीब की ज़बान है, जो मुख़्तलिफ़ मज़हबों के मानने वालों को जोड़ती है. वो ‘जश्न-ए-रेख़्ता’ का ज़िक्र करते हैं, जहां उर्दू के प्रोग्राम होते हैं और ऐसा लगता है जैसे कोई क़ौमी प्रोग्राम हो रहा हो. उर्दू सिर्फ़ एक प्लेटफ़ॉर्म नहीं है, ये क़ौमी यकजहती का एक मंज़रनामा पेश करती है।

इस वक़्त समाज में जो नफ़रतें पनप रही हैं, उनका मुक़ाबला करने का बेहतरीन ज़रिया ये ज़बानें हैं, ख़ासकर मोहब्बत की ज़बान उर्दू। कहते हैं, ‘उर्दू दिल की ज़बान है, तो जब दिल से बात करनी होती है, जब दिलों को मिलाना होता है, तो ज़रूरी है कि इस ज़बान को फ़रोग़ दिया जाए और सरकारी सतह पर इसकी निगरानी और पुश्त पनाही की जाएगी तो इंशाल्लाह उसके मुसबत नतीजे देखने को मिलेंगे।’


अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) का कैंपस

उर्दू और अलीगढ़ का मुस्तक़बिल

डॉ. अक़ील साहब उर्दू और अलीगढ़ के मुस्तक़बिल को बहुत रोशन देखते हैं। वो मानते हैं कि बहुत से लोग ऐसे हैं जिनका उर्दू से रोज़ी-रोटी का ताल्लुक़ नहीं है, फिर भी उन्होंने उर्दू की बड़ी ख़िदमात अंजाम दी हैं। हालांकि, वो इस बात पर भी अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं कि तालिब-ए-इल्मों (छात्रों) में अब उर्दू की किताबें, रिसाले और अख़बार पढ़ने का शौक़ कम हुआ है।

वो ज़ोर देकर कहते हैं कि हमें सिर्फ़ हुकूमत से रोना नहीं चाहिए कि वो कुछ नहीं करती, बल्कि हमें ख़ुद भी अपना किरदार अदा करना चाहिए. वो शेर पढ़ते हैं:

ज़ुल्मतें शेख़वाई ज़ुल्मतें सबसे तो कहीं अच्छा था, अपने हिस्से की कोई शम्मा जलाते जाते 

उनका कहना है कि हमें अपने हिस्से की शमा रोशन करनी चाहिए। हमें उर्दू अख़बार, रिसाले और मैगज़ीन पढ़ने चाहिए और उन्हें ख़रीदना चाहिए, ताकि ये ज़बान ज़िंदा रहे, ताकि उर्दू की प्रेस ज़िंदा रहे। वो ख़ासकर आने वाले तालिब-ए-इल्मों से कहते हैं कि वो अपनी तहज़ीब से अपना रिश्ता जोड़ें, अपनी ज़बान से अपना रिश्ता जोड़ें और पढ़ें. तारीख़ को पढ़ें, उर्दू को पढ़ें, यूनिवर्सिटी की तारीख़ को पढ़ें और अपने कोर्स के साथ-साथ थोड़ा वक़्त निकालें। 

आज के दौर में लोग सिर्फ़ अपने कोर्स तक महदूद हो गए हैं, चाहे वो इंजीनियरिंग हो, मेडिकल हो या लॉ. लेकिन पहले ऐसा नहीं था। सर सैयद ने हॉस्टल लाइफ़ को इसलिए इस तरह से डिज़ाइन किया था कि सब तालिब-ए-इल्म एक साथ रहेंगे, तो मुख़्तलिफ़ मज़ामीन सीखेंगे, एक-दूसरे से सीखेंगे। 

मेडिकल साइंस के तालिब-ए-इल्म इंजीनियरिंग वालों के साथ, लॉ वालों के साथ एक ही हॉस्टल में रहते थे और बहुत कुछ सीखते थे। और सबसे ज़रूरी बात, डॉ. अक़ील साहब कम्युनिकेशन स्किल्स पर बहुत ज़ोर देते हैं। वो बताते हैं कि सर सैयद ने 1884 में ऑक्सफ़ोर्ड और कैम्ब्रिज की तर्ज़ पर सिटिज़न्स डिबेटिंग क्लब क़ायम किया था, जहां डिबेट मुक़ाबले होते थे और ख़ुद सर सैयद उसकी सरपरस्ती करते थे। सर सैयद को ज़बानों की अहमियत और कम्युनिकेशन स्किल्स का इतना ख़्याल था कि वो जानते थे कि आने वाले वक़्त में जब तक हम अपने आप को अच्छी तरह रिप्रेजेंट नहीं कर सकेंगे, एक्सप्रेस नहीं कर सकेंगे, काम नहीं चलेगा। आज भी इंटरव्यूज़ में पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ कम्युनिकेशन स्किल्स की अहमियत बहुत ज़्यादा है।

डॉ. अक़ील साहब ने बहुत ख़ूबसूरती से उर्दू अदब और अलीगढ़ के गहरे रिश्ते को बयान किया। ये रिश्ता सिर्फ़ एक इदाराती रिश्ता नहीं, बल्कि दिलों का रिश्ता है, तहज़ीब का रिश्ता है, और हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी विरासत का एक अहम हिस्सा है।

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