जब हम अलीगढ़ का नाम सुनते हैं, तो ज़हन में सबसे पहले ताले और चाबियां और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का ही ख़याल आता है। लेकिन इस ऐतिहासिक शहर की एक और पहचान है, जो सदियों की रिवायतों और शाही नफ़ासत से बुनी गई है। 1947 में जब मुल्क आज़ाद हुआ, तब से मेहंदी हसन टेलर सिर्फ़ कपड़े नहीं बना रहे हैं; बल्कि वो इज़्ज़त, तहज़ीब और विरासत की पहचान भी गढ़ रहे हैं। यहां की शेरवानी सिर्फ़ एक लिबास नहीं, बल्कि एक जीती-जागती तारीख़ है जिसने मुल्क की कई बड़ी हस्तियों की ज़ीनत बढ़ाई है।
मुल्क के पुराने राष्ट्रपति डॉ. ज़ाकिर हुसैन, प्रणब मुखर्जी और राम नाथ कोविंद से लेकर वज़ीर-ए-आज़म डॉ. मनमोहन सिंह तक, बेशुमार अज़ीम शख्सियतों ने अलीगढ़ की बनी शेरवानी पहनी है। यहां तक कि बॉलीवुड के मशहूर एक्टर सैफ़ अली ख़ान भी अपनी शादी के लिए शेरवानी एम हसन टेलर से बनवाई थी। ये महज़ एक दर्ज़ी की दुकान नहीं, बल्कि हमारी तहज़ीबी विरासत का एक मुहाफ़िज़ है, जहां हर टांका ख़ूबसूरती, रिवायत और बेमिसाल कारीगरी की दास्तान सुनाता है, जिसने कई नस्लों तक अपनी शान बरकरार रखी है।
शाही विरासत: तुर्की से हिंदुस्तान तक का सफ़र
शेरवानी की जड़ें सच में शाही हैं। इसकी बनावट सबसे पहले तुर्की की सल्तनत-ए-उस्मानिया के लिबास से मिलती-जुलती थी, जिसे ख़ास तौर पर बादशाह, नवाब और शाही ख़ानदान के लोग पहना करते थे। ये आम लोगों के लिए नहीं थी, सिर्फ़ मआज़िज़ और ख़ास लोग ही इसकी शान को बढ़ा सकते थे। आज़ाद हिंदुस्तान में शेरवानी का सफ़र पंडित जवाहरलाल नेहरू से शुरू हुआ, जिन्होंने सबसे पहले इस तुर्की लिबास को अपनाया। 1947 में जब मुल्क एक हुआ, तब तकरीबन 556 रियासतें थी, और हर एक नवाब और राजा शेरवानी ही अपनी शाही पोशाक के तौर पर पहनते थे।
मेहंदी हसन टेलर की कहानी 1944 में शुरू हुई, जब रामपुर से अलीगढ़ आए। उन्हें पहला बड़ा मौक़ा तालिब नगर के नवाब अब्दुल समी ख़ान से मिला, जो दिल्ली की एक ब्रिटिश कंपनी से शेरवानी बनवाने की ज़हमत से तंग आ चुके थे। किसी ने उन्हें इस मुकामी हुनरमंद दर्ज़ी का नाम सुझाया, और जब मेहंदी हसन ने उनकी पहली शेरवानी सिली – जिसमें पूरा एक महीना लगा – तो नवाब साहब इतने मुतास्सिर हुए कि उन्होंने दिल्ली की कंपनी को भूल ही गए। यहीं से उस विरासत की बुनियाद पड़ी जिसने आगे चलकर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को लिबास पहनाया।

डॉ. ज़ाकिर हुसैन ने 17 साल तक मेहंदी हसन की शेरवानी पहनी
सही मायने में बड़ा बदलाव तब आया जब डॉ. ज़ाकिर हुसैन, जो उस वक़्त जामिया मिल्लिया इस्लामिया के वाइस चांसलर थे. मेहंदी हसन टेलर की बनाई हुई शेरवानी पहनना शुरू किया। ये रिश्ता 17 साल तक चला, डॉ. हुसैन के अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर से बिहार के गवर्नर, फिर वाइस-प्रेसिडेंट और आख़िर में राष्ट्रपति बनने तक। मौजूदी मालिक इंजीनियर अनवर मेहदी बताते हैं कि उनके वालिद ने डॉ. हुसैन ज़ाकिर हुसैन के इंतकाल के बाद आख़िरी रसूमात और कफ़न के लिए भी मौजूद थे।
डॉ. हुसैन के बाद ये रिवायत अगले सदरे-जम्हूरिया (प्रधानमंत्री) जैसे वी.वी गिरि, संजीव रेड्डी, डॉ. फ़ख़रुद्दीन अली अहमद और ज्ञानी जैल सिंह ने भी जारी रखी। जब इंजीनियर अनवर ने कारोबार संभाला, तो उन्होंने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई और असिस्टेंट प्रोफे़सर की नौकरी छोड़ दी ताकि इस फ़न को ज़िंदा रख सकें। उनकी रहनुमाई में सदरे-जम्हूरिया प्रणब मुखर्जी, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और राम नाथ कोविंद ने भी इस शानदार रिवायत को आगे बढ़ाया।
बॉलीवुड से दुनिया तक
ये विरासत सिर्फ़ सियासतदानों तक ही महदूद नहीं रही। जब सैफ़ अली ख़ान को शेरवानी चाहिए थी, तो उनकी वालिदा शर्मिला टैगोर ने ख़ुद इंजीनियर अनवर को फ़ोन किया। अनवर साहब लखनऊ के ताज होटल तक गए नाप लेने, फिर मुंबई जाकर फ़िटिंग की, और सैफ़ के लिए सात-आठ शेरवानी तैयार कीं। इस तरह की ख़ास और निजी खिदमत ने मेंहदी हसन टेलर को दुनियाभर में मशहूर कर दिया है।

आज दुबई, अमेरिका, कनाडा और गल्फ़ के मुल्कों से भी आर्डर आते हैं, जो साबित करता है कि ये कारीगरी सरहदों की मोहताज नहीं है। ये दुकान तकरीबन 20-22 तरह की शेरवानियां बनाती है, हर एक अलग मिज़ाज और मौक़े के लिए, सादे लिबास से लेकर भारी ज़री-कशीदाकारी वाले शादी के लिबास तक।
बनावट का इल्म: साइंस और फ़न का मेल
मेहंदी हसन टेलर की ख़ासियत ये है कि वो शेरवानी को सिर्फ़ नाप से नहीं, बल्कि जिस्म की बनावट को समझकर बनाते हैं। इंजीनियर अनवर बताते हैं कि हर शख़्स के जिस्म का ढांचा अलग होता है। इसी वजह से कोई भी दो शेरवानी एक ही पैटर्न से नहीं काटी जा सकती। नाप लेने के बाद कारीगर ख़ुद हर चीज़ का ध्यान रखते हैं, जैसे कि कॉलर कैसे लगाना है, कपड़ों को कैसे ढालना है, ताकि पहनने वाले की शख़्सीयत में चार चांद लग जाएं।
सर सैयद डे: जब अलीगढ़ काले रंग में रंग जाता है
मेहंदी हसन टेलर के लिए सबसे ख़ास वक़्त अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ‘सर सैयद डे’ का होता है। उस दिन पूरी यूनिवर्सिटी काले रंग की शेरवानियों से भर जाती है। ये माहौल ईद की तरह ख़ुशनुमा हो जाता है। इस एक दिन के लिए, एक-डेढ़ महीने में 1000-1500 शेरवानी के आर्डर आ जाते हैं।
इंजीनियर अनवर के बेटे उमैर अनवर, जो पिछले 23 साल से इस काम में हैं, बताते हैं कि ख़ासकर नए तालिब-ए-इल्म शेरवानी पहनने को लेकर बहुत जोश में रहते हैं। ये रिवायत एक क़िस्म का अपनापन और फ़ख़्र पैदा करती है।

एक बेहतरीन कारीगर बनना आसान नहीं है। अनीस अहमद ख़ान, जो पिछले 40 साल से इस दुकान पर काम कर रहे हैं, बताते हैं कि एक उस्ताद कारीगर बनने में क़रीब 15 साल लग जाते हैं। एक छोटा शागिर्द 12-15 साल की उम्र में काम शुरू करता है और 30 साल की उम्र तक ही उस्ताद बन पाता है। ये लंबा सफ़र इस बात की ज़मानत है कि काम का हर पहलू – चाहे वो मशीन का काम हो, हाथ की सिलाई हो, प्रेस हो या बारीक काम – अच्छी तरह सीखा जाता है।
अलीगढ़ से दुनिया भर में पहचान
आज मेहंदी हसन टेलर का नाम दुनिया के हर कोने में पहुंच चुका है कनाडा, यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और गल्फ़ के मुल्कों से भी आर्डर आते हैं। ये लोग सिर्फ़ एक लिबास नहीं ख़रीदते, बल्कि अपनी तहज़ीब से जुड़ाव महसूस करते हैं।
मेहंदी हसन टेलर की ख़ास बात ये भी है कि वे ज़रूरतमंद तालिब-ए-इल्मों को मुफ़्त में शेरवानी देते हैं, ताकि ये रिवायत ज़िंदा रहे। ये साबित करता है कि उनके लिए तहज़ीब को ज़िंदा रखना कारोबार से ज़्यादा अहम है। यह विरासत जो आज़ादी के साथ शुरू हुई थी, आज दुनिया भर में हिंदुस्तानी तहज़ीब की ख़ूबसूरती फैला रही है।
ये भी पढ़ें: अज़ीज़ बानो: लफ़्ज़ों की ताज़गी और दिल की तन्हाई, मैं ने ये सोच के बोये नहीं ख़्वाबों के दरख़्त…
आप हमें Facebook, Instagram, Twitter पर फ़ॉलो कर सकते हैं और हमारा YouTube चैनल भी सबस्क्राइब कर सकते हैं
