आज़मगढ़ मुख्य शहर से करीब 15 किलोमीटर दूर काली मिट्टी के बने नक्काशीदार बर्तन न सिर्फ भारत में पूरी दुनिया में निज़ामाबाद को एक पहचान दिला रहे है। ब्लाक पॉटरी को भौगोलिक संकेत (GI) टैग, (Geographical Indications) का दर्जा प्राप्त है। मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक करीब 300 सालों से यह आर्ट प्रचलित है।
ब्लाक पॉटरी क्राफ्ट का इजात गुजरात के कच्छ में हुआ लेकिन औरंगजेब के शासनकाल के समय कच्छ से कई सारे कुम्हार आज़मगढ़ के निज़ामाबाद आ पहुंचे। आज उन्ही की देन है कि पूरे भारत में निज़ामाबाद से ब्लाक पॉटरी क्राफ्ट (Nizamabad Black Clay Pottery Art) का बड़े पैमाने पर प्रोडक्शन से लेकर इंपोर्ट भी किया जाता है।
15 साल की उम्र में सीखा ब्लाक पॉटरी बनाने का काम
निज़ामाबाद के करीब 200 से ज्यादा परिवारों के कारीगर मिट्टी को काले बर्तन का आकार देकर आपनी आजीविका चला रहे है। इन्हीं करीगरों में एक है सुरेंद्र प्रजापति, जिन्हें इस कला के लिए राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। निज़ामाबाद के रहने वाले सूरेंद्र प्रजापति जिनके पूर्वजो ने ब्रिटिश शासनकाल से ही ब्लाक पॉट्री क्राफ्ट के साथ ताल्लुक़ रखा। आज सूरेंद्र प्रजापति अपनी इस विरासत को आगे ले जा रहे है। उनके पिताजी ब्लाक पॉट्री बनाने का काम किया थे उन्हीं से सूरेंद्र ने इसे बनाना सीखा। उस समय उनकी उम्र15 साल थी। वह इस कला से आजीविका चलाने के साथ साथ देश दुनिया में क्राफ्ट की वजह से ख्याति भी बटोर रहे है।

सूरेंद्र कहते है कि इस समय ब्लाक पॉट्री और ट्राकोटा का बहुत डिमांड है। लोगों की मांग इतनी ज्यादा आ जाती है कि हम बना कर नहीं दे पाते। सूरेंद्र ब्लाक पॉटरी क्राफ्ट बनाने के लिए मिट्टी में किसी भी तरह का केमिकल नहीं मिलाते है। इसलिए इन काले बर्तनों में आप खाने का सामना भी रख सकते है। सूरेंद्र प्रजापति बताते है कि इन बर्तनों में खाना सेहत के लिए लाभदायक होता है। इन बर्तनों को तैयार करने में करीब आठ से दस घंटें का समय लगता है।
ब्लाक पॉटरी बनाने की पूरी प्रक्रिया
सूरेंद्र प्रजापति DNN24 को बताया कि ब्लाक पॉट्री बहुत ही खूूबसूरत कला है लोग इन बर्तनों को काफी पसंद करते है। इन काली मिट्टी के बर्तनों को बनाने के लिए कुम्हार अमूमन अप्रैल मई के महीने में तालाबों के सूखने पर इनसे मिट्टी निकालकर अपने घरों में इकट्ठा कर लेते है। बाद में इसे अच्छे से साफ कर मिट्टी को गूंथा जाता है। पहले ब्लाक पॉट्री बनाने के लिए पहले मिट्टी को हाथों और पैरों की मदद से गूंथा जाता था लेकिन अब मशीन में गूंथा जाता है।
सबसे पहले सूखी मिट्टी लाकर घोल बनाया जाता है, फिर मशीन की मदद से फेटा जाता है। मिट्टी में जो रोडे होते है मशीन उन्हें अच्छे से पीस देती है। बाद में घोल को छानने के लिए ले जाया जाता है। जब मिट्टी सूख जाती है फिर उसे मशीन से और गूंथा जाता है। फिर मिट्टी को चाक पर लाते है और अपना जादू शुरू करते है। बर्तन बन जाने के बाद इन्हें तेज धूप में रखा जाता है। बर्तन सूखने के बाद इनको फिनिशिंग देने के लिए और भट्टी में जाने से पहले इनमे सरसो का तेल लगाया जाता है। उसके बद बर्तनों पर सूई से नक्काशी की जाती है। फिर सजावट के लिए जस्ता, रांगा और पारे का इस्तेमाल किया जाता है।
बर्तनों पर काला रंग कैसे आता है
इन बर्तनों को नेचुरल काला रंग देने के लिए इन्हें चावल की भूसी वाली भट्टी में पकाया जाता है। चारों तरफ से भट्टी को ढ़ककर अंदर जमा हुए धुएं से निकला कार्बन बर्तनों में समा जाता है। जिससे बर्तन काले हो जाते है यह कालापन आसानी से नहीं निकलता है। करीब आठ से दस घंटों तक भट्टी में रखा जाता है। भट्टी में आग जल्दी लग जाए इसलिए बकरी के मल को डाला जता है भट्टी के ठंडा होने के पर बर्तनों को बाहर निकाला जाता है।

सबसे ज्यादा निर्यात दिल्ली, मुंबई और पूने भेजा जाता है। इस कला की इतनी मांग है कि आज़मगढ़ के राजस्व में यह कला सलाना 2 से 3 करोड़ रूपये का योगदान देती है। यहां बने बर्तनो का 80 प्रतिशत हिस्सा विदेशो में भी एक्सपोर्ट किया जाता है। साल 2018 की शुरूआत में राज्य सरकार ने हर जिले में ‘एक जिला एक उत्पाद’ के तहत शिल्प के पुनर्रूधार के लिए 250 करोड़ रूपये का आवंटन किया सरकार के इस प्रयास ने काली मिट्टी के बर्तनों के विज्ञापन के रूप में काम किया। आज लोग इस शिल्प के बारे में पहले से ज्यादा जानते है और इसमे दिलचस्पी लेते है।
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