उन्नीसवीं सदी के शुरुआती सालों में दिल्ली में मुग़ल सल्तनत के बुरे दिन चल रहे थे जब तत्कालीन बादशाह अकबर शाह द्वितीय ने अपने छोटे बेटे मिर्ज़ा जहांगीर को राजगद्दी का उत्तराधिकारी बनाने का मन बना लिया था. परम्परा के हिसाब से अगला बादशाह उसके बड़े बेटे यानी बहादुर शाह ज़फर ने होना चाहिए था. अंग्रेज़ कम्पनी बहादुर की भी यही राय थी लेकिन बादशाह राजी न था. इस मुद्दे पर बादशाह के दरबार में रोज़ बैठकें जमने लगीं. दिल्ली में उन दिनों आर्कीबाल्ड सैटन अंग्रेज़ रेजीडेंट के तौर पर तैनात था. ज़ाहिर है वह भी इस बैठकों में हिस्सेदारी किया करता.
आसानी से हाथ आ रही सल्तनत की राह में यूँ अड़ंगे लगाने वाला वह गोरा मिर्ज़ा जहांगीर को फूटी आँख न सुहाया. एक बैठक के दौरान उसने अंग्रेज़ रेजीडेंट की सरेआम खिल्ली उड़ाई. कुछ दिन बाद सैटन लाल किले में हुई एक ऐसी ही बैठक से लौट रहा था. हद दर्जे का पियक्कड़ और मुंहफट माना जाने वाला मिर्ज़ा जहांगीर उस समय नौबतखाने की छत पर बैठा हुआ था. सैटन को देखकर उसे गुस्सा आ गया और उसने उस पर अपने तमंचे से गोली दाग दी. अंग्रेज़ तो बाल-बाल बच गया अलबत्ता उसका अर्दली मौके पर मारा गया. इससे गुस्साए आर्कीबाल्ड सैटन ने अपने सैनिकों के साथ लाल किले पर धावा बोला और मिर्ज़ा जहांगीर को कैद कर उसे इलाहाबाद भिजवा दिया.

मिर्ज़ा की दुखी माँ मुमताज महल द्वितीय ने हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जाकर कौल उठाया कि जब भी उनका बेटा निर्वासन से लौटकर घर आएगा वे एक और बड़े सूफी संत ख़्वाजा कुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी की मज़ार पर फूलों की चादर और भगवान कृष्ण की बहन योगमाया देवी के मंदिर में फूलों का पंखा चढ़ाएंगी.
1812 में किसी चमत्कार की तरह माँ की मन्नत पूरी हुई और बेटा वापस आ गया. अपना वचन पूरा करने के उद्देश्य से मुमताज महल ने महरौली पहुँच कर नंगे पाँव ख़्वाजा कुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी की मज़ार की तरफ चलना शुरू किया. राजमाता का यूँ नंगे पाँव चलना आम लोगों से देखा नहीं गया. उन्होंने उनके रास्ते को फूलों की पंखुड़ियों से ढँक दिया. बताते हैं इलाके के शहनाईवादक और गवैये गाते-बजाते उनके आगे-आगे चल रहे थे. रानी ने पहले सूफी बख़्तियार काकी की मज़ार पर चादर चढ़ाई और इबादत की. इसके बाद उनका काफिला थोड़ी दूर स्थित योगमाया देवी के मंदिर पहुंचा. इस मंदिर के बारे में विख्यात था कि इसे युधिष्ठिर ने बनवाया था. जहाँ फूलों का बना एक पंखा माता के दरबार में अर्पित किया गया और पूजा-अर्चना की गई.

पंखे की शान ऐसी थी कि शायर ने दर्ज किया –
नूर-ए-अल्ताफ़-ओ-करम की है ये सब उस के झलक
कि वो ज़ाहिर है मलिक और है बातिन में मलक
इस तमाशे की न क्यूँ धूम हो अफ़्लाक तलक
आफ़्ताबी से ख़जिल जिस के है ख़ुर्शीद-ए-फ़लक
ये बना उस शह-ए-अकबर की ब-दौलत पंखा

उस ज़माने में महरौली के जहाज़ महल के नज़दीक फूलों की बड़ी आढ़त थी. राजमाता मुमताज महल की अगुवाई में इस आढ़त के तमाम फूल बेचने वालों ने अपनी-अपनी हैसियत भर हाथ बंटाया और जुलूस में शिरकत की. जश्न का ऐसा शानदार माहौल बंधा कि बादशाह ने हुक्म दिया ऐसा जुलूस हर साल निकाल कर सात दिन का जश्न मनाया जाए.
जहाज़ महल के इन फूलवालों ने बादशाह को वचन दिया कि वे इस जश्न को भरपूर बना रखने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. यूं दिल्ली शहर की तारीख में सैर-ए-गुल फ़रोशां यानी फूलवालों की सैर की शुरुआत हुई. धीरे-धीरे इस सैर के साथ उत्सव मनाने के लिए दुनिया भर के तामझाम वाबस्ता होते गए. शहनाइयों की आवाजें दिन रात हवा में घुला करतीं, आम के पेड़ों पर झूले लगाए जाते, बटेरों-मुर्गियों की लड़ाइयां होतीं, दूर-दूर से आकर बड़े पतंगबाज़ अपना फ़न दिखाते, तैराकी और पहलवानी के मुकाबले होते और खूब गाना-बजाना होता.
बादशाह के संरक्षण में सार्वजनिक खान-पान का ऐसा ठाठ इस मौके पर बंधता कि उसकी मिसाल नहीं मिलती. शहर भर के हलवाई और खानसामे पूरियों, कचौरियों, कबाब-परांठों और बिरयानियों के खोमचे लगाते. पनवाड़ी पान लगाते, हुक्का पिलवाते.
मिर्ज़ा फरहतुल्ला बेग ने फूल वालों की पहली सैर से सम्बंधित एक संस्मरण में लिखा है –
“कोई एक बजे लोग पंखा चढ़ा कर वापस हुए, दूसरे दिन दरगाह शरीफ़ का पंखा भी इसी धूम से उठा ,बाब-ए-ज़फ़र के सामने आकर ठहरा. बा’ज़ मुसाहिबों ने कोशिश की कि बादशाह सलामत को भी पंखे के साथ दरगाह शरीफ़ में किसी न किसी तरह ले चलें. मगर बादशाह किसी तरह इस पर राज़ी न हुए. बोले, “ये कैसे हो सकता है कि जब मैं जोग माया जी के पंखे के साथ नहीं गया तो अब इस पंखे साथ कैसे जाऊं. हिंदू भाई क्या ख़्याल करेंगे. कहेंगे कि मुसलमान था मुसलमानों के पंखे में शरीक हो गया, हमको ग़ैर समझा इसलिए झरोकों से नीचे भी नहीं आए. ना जी ना! जैसा एक के साथ करना वैसा दूसरे के साथ करना, शहज़ादे पहले भी गए थे अब भी जाऐंगे. आतिशबाज़ी में हिंदू मुसलमान सब ही शरीक होते हैं वहाँ हम भी चलेंगे”.
इस एक संस्मरण में फूल वालों की इस सैर की आत्मा शामिल है. अगर एक सूफी संत की दरगाह पर इबादत होगी तो इलाके की कुलदेवी मानी जाने वाली योगमाया की भी. योग माया देवी का पुरातन मंदिर उन दिनों बेहद जीर्णशीर्ण स्थिति में पहुँच चुका था. सैर शुरू हुई तो बादशाह अकबर शाह के आग्रह पर महरौली के लाला सीडूमल ने नया मंदिर निर्मित करवा दिया.
बरसातों के ऐन बाद होने वाली इस सैर को सप्ताह-भर लम्बे उत्सव की सूरत मिली. मजहब और वर्ग की सीमाएं तोड़कर समूची दिल्ली के लोग महरौली के इलाके में उमड़ आते.

फूल वालों की सैर ने अपने समय के सामाजिक तानेबाने में कैसी ज़रूरी जगह बना ली थी इसका ज़िक्र मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपने एक दोस्त को लिखे खत में किया है. 1857 के ग़दर के बाद की उजड़ी हुई दिल्ली की पुरानी शान-ओ-शौकत को याद करते हुए वे फरमाते हैं–
“दिल्ली की हस्ती मुनहसिर कई हंगामों पर थी. लाल क़िला, चांदनी चौक, हर रोज़ मजमा जामा मस्जिद का, हर हफ़्ते सैर जमुना के पुल की, हर साल मेला फूल वालों का. ये पांचों बातें अब नहीं.फिर कहो दिल्ली कहाँ?”

ख़ुद बादशाह बहादुरशाह ज़फर ने कहा –
वाकई सैर है ये देखने के काबिल
चश्म-ए-अंजुम हो न इस सैर पे क्यों माइल
ग़दर के बाद अंग्रेजों ने कुछ साल इस सैर पर रोक लगाई ज़रूर लेकिन वह फिर शुरू हो गई. ऐसी ही रोक 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के बाद भी लगाई गई जो आज़ादी मिलने और विभाजन हो जाने के बाद भी अघोषित रूप से लगी रही. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर 1961 में अंजुमन सैर-ए-गुल फ़रोशां का पुनर्गठन हुआ और सैर बाकायदा दोबारा शुरू की गई.
हमारे देश के गौरवशाली इतिहास की किताब का एक बेहद महत्वपूर्ण और खुशबूदार पन्ना इस सैर में लिखा हुआ है. फूलों का कोई मजहब नहीं होता. फूल वालों की सैर का भी कभी कोई मजहब नहीं रहा.
अशोक पांडे चर्चित कवि, चित्रकार और अनुवादक हैं। पिछले साल प्रकाशित उनका उपन्यास ‘लपूझन्ना’ काफ़ी सुर्ख़ियों में है। पहला कविता संग्रह ‘देखता हूं सपने’ 1992 में प्रकाशित। जितनी मिट्टी उतना सोना, तारीख़ में औरत, बब्बन कार्बोनेट अन्य बहुचर्चित किताबें। कबाड़खाना नाम से ब्लॉग kabaadkhaana.blogspot.com। अभी हल्द्वानी, उत्तराखंड में निवास।