उत्तर प्रदेश का एक छोटा-सा शहर अमरोहा। आज बात करेंगे उस दौर की जब आज पक्की हो चुकीं यहाँ की सड़कें कच्ची और ऊबड़ खाबड़ हुआ करतीं थीं और उन पर तांगे दौड़ते नज़र आते थे। कहीं भी आना जाना हो, लोग या तो पेैदल चलते थे या फ़िर तांगे का इस्तेमाल करते थे। हाईस्कूल की पढ़ाई के लिए भी मुरादाबाद जनपद जाना होता था । एक छोटा सा, कम भीड़-भाड़ वाला स्टेशन यहाँ तब भी था और आज भी है। इस स्टेशन पर ट्रेनें बहुत कम वक़्त के लिए ही रुकती हैं।
साल 1997 में अमरोहा, महात्मा ज्योतिबा फुले की याद में बने ज्योतिबा फुले नगर ज़िले में शामिल कर लिया गया। वैसे ज़्यादातर लोग अमरोहा नाम ही इस्तेमाल करते हैं। उत्तर प्रदेश के इस एक शहर की बात ही निराली है। अगर यूँ कहें कि पूरे देश को अपनी ढोलक की थाप पर यही शहर नचाता है तो शायद कोई ज़्यादती नहीं होगी। अमरोहा में बने ढोलक दूर दूर तक मशहूर हैं।
अमरोहा में आप किसी से भी मशहूर फिल्मकार कमाल अमरोही का पुश्तैनी मकान पूछें, पता चल जाएगा। जब मैं उनके मकान के बाहर पहुंचा तो दरवाज़े के बगल में ही लिखा मिला, ‘चंदन का घर’। कमाल अमरोही को घर में सब चंदन के नाम से बुलाते थे।
कमाल के पुश्तैनी घर का बड़ा सा दरवाज़ा आंगन में खुलता है। आंगन पार करके ऊंचे बरामदे से होते हुए हम एक बड़े से खाली हॉल में क़दम रखते हैं। यहां कदम रखते ही कई सुनहरी यादें जगमगा उठती हैं। यहाँ दीवार पर ‘पाकीज़ा’ और ‘रज़िया सुल्तान’ के फोटो तो टंगे दिखते हैं, लेकिन ‘महल’ की तस्वीरें कहीं नहीं दिखतीं। कमाल अमरोही के इस परिवार का अदब और तहज़ीब से गहरा ताल्लुक था। मशहूर शायर जॉन एलिया की पैदाइश भी इसी घर में हुई थी। जौन कमाल अमरोही के चाचा के बेटे थे। उनके एक और भाई रईस अमरोही, जिनका असली नाम सैयद मुहम्मद मेहदी था, एक जाने-माने विचारक, कलम-निगार और शायर थे। एक दूसरे भाई सैयद मोहम्मद तक़ी पाकिस्तान के जाने-माने पत्रकार और फलसफ़े के जानकार बने। तक़ी पाकिस्तान के मशहूर अख़बार ‘जंग’ के संपादक भी रहे।
क्यों कमाल नाराज़ होकर घर से चले गए?
नन्हे कमाल के घर में शादी का माहौल था। लड़कियां गीत गा रहीं थीं और ढोलक बजा रही थीं। बारह-तेरह बरस के कमाल की शरारतें उन दिनों बहुत ज़्यादा हो गयी थीं। उनसे उम्र में करीब 18 साल बड़े भाई रज़ा हैदर ने कमाल की किसी बात पर बहुत ज़्यादा नाराज़ होकर उन्हें ज़ोर का एक थप्पड़ मार दिया, और कहा..’तुम इसी तरह ख़ानदान का नाम रोशन करोगे’? ढोलक की थाप एकाएक थम गई और कुछ देर बाद लड़कियां खिलखिला कर हंस पड़ीं। शर्मसार कमाल उस दिन शाम से लेकर रात तक अंधेरे कमरे में बंद रहे। घर वालों ने सज़ा देने के ख़्याल से उन्हें बंद ही रहने दिया। कमाल रात में बहन के चांदी के कंगन ले कर भाग निकले और बिना टिकट के लाहौर पहुंच गए। लाहौर में उन्होंने भूखे-प्यासे इधर उधर घूमते हुए कई दिन बिता दिए।
कैसे हुई कमाल अमरोही के फ़िल्म करियर की शुरूआत?
कमाल अमरोही भूखे-प्यासे और नाज़ुक हालात में लाहौर की सड़कों में घूम रहे थे। तभी ओरिएंटल कॉलेज के जर्मन प्रिंसपल वूल्मर और उनकी पत्नी की निगाह उस बिखरे बालों और अस्त-व्यस्त कपड़े पहने लड़के पर पड़ी। कमाल को इस जोड़े ने गोद ले लिया और आगे की पढ़ाई भी मुकम्मल कराई। कमाल अमरोही के लिए लाहौर उनकी ज़िंदगी की दिशा बदलने वाला साबित हुआ। वहाँ उन्होंने मास्टर्स की डिग्री हासिल की और पंजाब विश्वविद्यालय को भी टॉप किया। जर्मन दंपती अपने देश लौटने लगे तो कमाल से भी साथ चलने को कहा, मगर कमाल अपना देश नहीं छोड़ना चाहते थे।
कमाल ने बतौर पत्रकार फिल्म दुनिया में कैसे कदम रख़ा?
कमाल सिर्फ़ 18 साल के थे जब लाहौर से निकलने वाले एक अख़बार ‘हुमायूँ’ में बाकायदा कॉलम लिखने लगे। बाद में उसी अख़बार में बतौर सब-एडिटर नौकरी शुरू कर दी। उनकी मेहनत को देखते हुए अख़बार के सम्पादक ने उनकी तनख़्वाह बढ़ाकर 300 रुपये महीने कर दी, जो उस समय के लिए काफ़ी बड़ी रक़म थी। कमाल अमरोही मिज़ाज से लेखक थे और कहानियां और नज़्में भी लिखते थे। यही वजह है कि उन्होंने अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत में कई गीत भी लिखे। उनके पास आसान शब्दों में नाज़ुक बात कहने का अज़ीम फन था। वे ज़िंदगी के छोटे-छोटे लम्हों को बड़ी खूबसूरती से चंद लाइनों में पिरो लेते थे। कुछ वक़्त बाद ही पत्रकारिता से उनका मन उखड़ने लगा।
पत्रकारिता के बाद कहाँ का किया रुख?
अब कमाल ने लाहौर से निकल कर किस्मत आज़माने की सोची। कुछ दिन कलकत्ता (आज का कोलकाता) रहे और फिर किसी की सलाह पर बंबई (आज के मुंबई) चले गए। मुंबई में वो ऐसे लोगों के साथ उठना बैठना शुरू किया जिनसे कुछ नया, कुछ अलग सीखने को मिले। ऐसे में ही एक शख़्स से मुलाकात हुई और उन्होंने ख़्वाजा अहमद अब्बास से मुलाक़ात करवा दी। अब्बास और कमाल की अच्छी छनने लगी और इसी दौरान उन्होंने कमाल की एक कहानी ‘ख़्वाबों का महल’ सुनी। कहानी ख़्वाजा अहमद अब्बास को बहुत पसंद आ गई और वे उस पर फिल्म बनाने के लिए निर्माता भी ढूंढ़ने लगे। मगर सफ़लता नहीं मिली। वक़्त बहुत कठिन था। मुंबई में टिके रहने के लिए कमाल को पैसों की भी बहुत ज़रुरत थी। कमाल अमरोही में कहानी को बयां करने का कमाल का हुनर तो था, मगर किस्मत शायद साथ नहीं दे रही थी। इस बीच मुलाक़ात हुई सोहराब मोदी से।
क्या हुआ सोहराब मोदी से मुलाक़ात के बाद?
अब कमाल काम तलाशने की जद्दोज़हद में जुट गए। हर वक़्त बस यही ख़्याल रहता था कि कैसे काम मिले। कमाल को सोहराब मोदी के बारे में पता चला। फिर अब्बास ने उनकी मदद की और सोहराब मोदी से मुलाकात का यह पल भी बहुत दिलचस्प है। कमाल अमरोही जब सोहराब मोदी के पास अपनी कहानी सुनाने पहुंचे तो उनके पास कहानी की प्रति यानी कॉपी नहीं थी। उन्हें पता था कि साथ में कुछ ले गए बिना सोहराब मोदी उनको नहीं सुनेंगे। कमाल ने झूठमूठ में उसे एक किताब से देखने का फ़रस करते हुए पूरी कहानी सुनाई। सोहराब मोदी को कमाल की कहानी बहुत पंसद आई और सोहराब मोदी की फ़रमाईश पर दो बार कमाल से ‘जेलर’ की कहानी सुनी, जब उन्होंने किताब मांगी तो यह देखकर हैरान हो गए कि उस पर कुछ भी नहीं लिखा था।क्योंकि कमाल के पास अंदाज़- ए- बयां बाखूब था जेलर की कहानी सोहराब मोदी को पसंद आई और कमाल को 750 रूपये भी ईनाम के तौर पर दिये।
45 साल के करियर में महज़ 4 फिल्में डायरेक्ट की
1939 की सुपरहिट फिल्म ‘पुकार’ से कमाल अमरोही को सुपर स्टार लेखक का दर्ज़ा मिल गया। बतौर डायरेक्टर 1949 में कमाल की पहली फिल्म महल आई। ये भारतीय सिनेमा की पहली हॉरर फिल्म मानी जाती है। इसी फिल्म से मधुबाला और लता मंगेशकर को भी हिंदी सिनेमा में पहचान मिली। ‘महल’ फिल्म के कुछ डायलॉग, आज भी लोगों की जुबां पर क़ायम दायम हैं- ‘मुझे ज़रा होश में आने दो, मैं खामोश रहना चाहता हूं…’
फिल्मों के लिए कहानी, पटकथा और संवाद लिखने का सिलसिला लगातार जारी रहा। लेखक के तौर पर कमाल ने कई शानदार फ़िल्में लिखीं। इनमें मैं हारी (1940), भरोसा (1940), मज़ाक (1943), फ़ूल (1945) और शाहजहाँ (1946) फ़िल्में काफ़ी पसंद की गयीं।
डायरेक्टर के तौर पर भी कमाल ने कई अनमोल फ़िल्में दीं। इनमें से ‘पाकीज़ा’ और ‘रज़िया सुल्तान’ इन दो फिल्मों को बनाने में इतना लंबा वक़्फ़ा गुज़र गया कि फ़िल्म इंडस्ट्री में बहुत से लोगों का करियर भी उससे छोटा हुआ करता है। उनकी फ़िल्में अपनी कहानी, गीत -संगीत और डायलॉग्स के लिए जानी जाती थीं।
जैसे कि फ़िल्म पाकीज़ा। भला इस डायलॉग को कौन भुला सकता है जब मीना कुमारी राजकुमार से कहती है, “आप आ गए और आप की दिल की ध़डकनों ने मुझे कहने भी नहीं दिया कि मैं एक तवायफ़ हूं…”
कमाल अमरोही अपने निर्देशन और लेखन में किरदारों को बड़ी ही ख़ूबसूरती से पेश करते थे। उनकी ये सारी फिल्में अपनी नफ़ासत और स्टाइल के लिए हमेशा याद आती हैं और साथ ही याद आते है कमाल अमरोही। अपने नायाब कमाल से समां बांध देने वाली मेरे अमरोहा की ये ये अज़ीम शख़्सियत 11 फरवरी 1993 को इस दुनिया को अलविदा कह गयी।