सांची का स्तूप, हिंदुस्तान की तारीख़ी तामीरात और फ़ुनून-ए-लतीफ़ा का एक बेहतरीन नमूना है। ये स्तूप मध्य प्रदेश के रायसेन ज़िले में वाक़े है और इसे बौद्ध फ़न और तहज़ीब का निशान माना जाता है। ये न सिर्फ़ हिंदुस्तान में, बल्कि पूरी दुनिया में अपनी नक़्क़ाशी और मूर्तिकला की ख़ूबसूरती की वजह से मशहूर है। इसकी दीवारों, तोरण दरवाज़ों और गुंबद पर की गई नक्क़ाशी बौद्ध मज़हब के मुख़्तलिफ़ पहलुओं को बयान करती है।
सांची के स्तूप की तारीख़
सांची का स्तूप तीसरी सदी क़ब्ल मसीह में सम्राट अशोक ने तामीर करवाया था। इसे असल में गौतम बुद्ध के असार-ओ-अमानात को महफ़ूज़ करने के लिए बनाया गया था, लेकिन बाद में मुख़्तलिफ़ सल्तनतों के दौर में इसमें तौसीक और तब्दीलियां की गई। मौर्य, शुंग, कुषाण और गुप्त दौर में इस स्तूप की नक़्क़ाशी और मूर्तिकला में तरक़्क़ी होती रही और इस पर नए अंदाज़ के नक़्श-ओ-निगार बनाए गए।

मूर्तिकला और नक़्क़ाशी की ख़ास बातें
सांची के स्तूप की सबसे बड़ी ख़ासियत इसकी बेमिसाल नक़्क़ाशी और मूर्तिकला है, जो हमें उस दौर के समाजी, मज़हबी और तहज़ीबी पहलुओं की झलक दिखाती है।
1. तोरण दरवाज़ों की नक़्क़ाशी (Torana Carvings)
सांची स्तूप के चारों जानिब चार तोरण दरवाज़े बनाए गए हैं। ये दरवाज़े चारों दिशाओं में वाक़े हैं और इन पर बारीक और ख़ूबसूरत नक़्क़ाशी की गई है। इन दरवाज़ों की नक़्क़ाशी में बुद्ध की ज़िंदगी की अहम वाक़ियात, जातक कहानियां और बौद्ध मज़हब के फैलाव को बयान किया गया है।
Eastern Torana: इसमें बुद्ध की पैदाइश और उनके इल्म हासिल करने की अहम घटनाएं बयान की गई हैं।
Western Torana: इसमें बुद्ध के मुख़्तलिफ़ मोजज़ात और उनकी तालीमात का तसव्वुर मिलता है।
Northern Torana: इसमें बुद्ध के निर्वाण (Nirvana) की झलक मिलती है।
Southern Torana: इसमें सम्राट अशोक की बौद्ध मज़हब में आस्था और उनके तबलीग़-ए-मज़हब की कहानियां बयान की गई हैं।
2. स्तूप की रेलिंग और पैनलों की नक़्क़ाशी
स्तूप की रेलिंग और उसके पैनल पर भी बेहद ख़ूबसूरत नक़्क़ाशी की गई है। इन पर हाथी, घोड़े, शेर, कमल और बोधि दरख़्त जैसी मुक़द्दस शक्लें उकेरी गई हैं। ये निशान बुद्ध की ज़िंदगी, उनकी तालीमात और बौद्ध मज़हब की गहरी जज़्बातियत को उजागर करते हैं।
3. बुद्ध की मूर्तिकला (Buddha’s Iconography)
सांची स्तूप की एक अहम ख़ासियत यह भी है कि इसमें बुद्ध की मूर्तियां बहुत कम नज़र आती हैं। शुरुआती बौद्ध फ़न में बुद्ध को सीधा दिखाने के बजाय अलामतों के ज़रिए पेश किया जाता था।
बोधि दरख़्त (Bodhi Tree): यह बुद्ध के इल्म हासिल करने का निशान है।
धर्मचक्र (Dharmachakra): यह बौद्ध मज़हब की तबलीग़ और तालीमात का निशान है।
क़दमों के निशान (Footprints): यह बुद्ध की मौजूदगी और उनके असरात का निशान है।

नक़्क़ाशी में समाजी और तहज़ीबी झलक
सांची की नक़्क़ाशी और मूर्तिकला सिर्फ़ मज़हबी मज़ामीन तक महदूद नहीं है, बल्कि इसमें उस दौर के समाज, तहज़ीब और रोज़मर्रा की ज़िंदगी की झलक भी नज़र आती है।
नक़्क़ाशी में किसानों, ताजिरों, मौसिक़ारों और रक़्क़ासों को दिखाया गया है, जिससे पता चलता है कि उस दौर में फ़न-ओ-सनअत को बहुत एहमियत दी जाती थी।
कुछ नक़्क़ाशियों में हाथियों, घोड़ों और रथों को भी दिखाया गया है, जिससे उस वक़्त की सफ़र-ओ-तिजारत की हालत का अंदाज़ा होता है।
दीवारों पर उकेरी गई जातक कहानियां यह बताती हैं कि उस दौर में अख़लाक़, सख़ावत और रहमदिली को कितना अहम समझा जाता था।
सांची स्तूप की नक़्क़ाशी हिंदुस्तानी फ़न-ए-महारा का बेहतरीन नमूना है। इस पर जिस बारिक़ी से संगतराशी की गई है, वह उस दौर के फनकारों की आला सलाहियतों को ज़ाहिर करता है।
संगतराशों ने पत्थरों को इस तरह तराशा है कि उनके चेहरे और हाव-भाव बेहद क़ुदरती मालूम होते हैं। फूलों की डिज़ाइन, हैवानात की शक्लें और इंसानी तसावीर इतनी दिलकश है कि देखने वाले आज भी उन पर हैरान रह जाते हैं।

सांची का स्तूप: एक आलमी विरासत
सांची का स्तूप न सिर्फ़ हिंदुस्तानी फ़न-ओ-तहज़ीब का मरकज़ है, बल्कि ये पूरी दुनिया में बौद्ध मज़हब के फैलाव और उसके अमन-ओ-शांति के पैग़ाम का भी अज़ीम निशान है। सांची क स्तीप यूनेस्को (UNESCO) की आलमी विरासत (World Heritage Site) की फ़ेहरिस्त में शामिल है और दुनिया भर के सियाहों और माहिरीन को अपनी तरफ़ खींचता है।
सांची का स्तूप अपनी मूर्तिकला और नक़्क़ाशी की वजह से न सिर्फ़ बौद्ध मज़हब के मानने वालों के लिए अहमियत रखता है, बल्कि ये पूरी इंसानियत के लिए एक तारीख़ी विरासत है।
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