अमीर ख़ुसरो: शायरी, सूफ़ियत और हिन्दुस्तानी तहज़ीब का नायाब नगीना
अमीर ख़ुसरो उन नायाब शख़्सियात में से हैं, जो सदियों में एक बार पैदा होते हैं। उनका वजूद सबसे मुख़्तलिफ़ था। वो एक साथ शायर, सिपाही, सूफ़ी, अमीर और दरवेश थे।
अमीर ख़ुसरो उन नायाब शख़्सियात में से हैं, जो सदियों में एक बार पैदा होते हैं। उनका वजूद सबसे मुख़्तलिफ़ था। वो एक साथ शायर, सिपाही, सूफ़ी, अमीर और दरवेश थे। अमीर ने तुर्की नस्ल और फ़ारसी तहज़ीब के बावजूद हिन्दुस्तान की बहुजातीय और बहुभाषीय सख़ावत को एकता की शक्ल देने में एक अनूठा किरदार अदा किया। उनकी शायरी और मौसीक़ी में हिन्दोस्तान की मिट्टी की ख़ुशबू, इसकी हवा का नग़्मा और इसकी रूह की गहराई महसूस होती है।
ख़ुसरो का असल नाम अबुल हसन यमीनुद्दीन था। उनकी पैदाइश 1253 ई. में एटा ज़िला के क़स्बा पटियाली में हुआ। उनके वालिद अमीर सैफ़ुद्दीन, चंगेज़ी हमलों के दौरान ताजिकिस्तान के कश इलाक़े से हिजरत कर हिन्दोस्तान आए। ख़ुसरो की परवरिश शायरी और तहज़ीब के माहौल में हुई। बचपन से ही उनको शेर-ओ-शायरी का शौक़ था। शुरू में उन्होंने “सुल्तानी” तख़ल्लुस अपनाया, लेकिन बाद में “ख़ुसरो” नाम से मशहूर हुए।
अमीर ख़ुसरो ने अपने दौर के कई सुल्तानों और अमीरों के दरबार में शिरकत की। वो ग़यासुद्दीन बलबन, बग़रा ख़ान, मलिक मुहम्मद और कई दूसरे बादशाहों के क़रीबी रहे। उनकी शायरी और हुनर के लिए अमीर को हाथी के वज़न के बराबर सोने में तौला गया। लेकिन उनकी दरबारी शायरी के अलावा अवाम की शायरी भी उतनी ही मक़बूल थी। उन्होंने फ़ारसी और ब्रजभाषा को मिलाकर ऐसी रंगीन और दिलकश शायरी पेश की, जो आज तक हिन्दुस्तानी अदब का हिस्सा है।
ज़े-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैनाँ बनाए बतियाँ कि ताब-ए-हिज्राँ नदारम ऐ जाँ न लेहू काहे लगाए छतियाँ
अमीर ख़ुसरो
गोरी सोवै सेज पर, मुख पर डारे केस। चल ख़ुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस॥
अमीर ख़ुसरो
अमीर ख़ुसरों आला दर्जे के माहिर मौसीक़ार भी थे। तबला और सितार की ईजाद का सेहरा उनके सर बांधा जाता है। इसके अलावा, उन्होंने हिन्दुस्तानी और फ़ारसी रागों के मेल से कई नए राग ईजाद किए।
राग दर्पण के मुताबिक़, इन रागों में साज़-गरी, बाख़रज़, उश्शाक़, सर पर्दा, फ़िरोदस्त और मुवाफ़िक़ शामिल हैं। ख़ुसरो ने न सिर्फ़ इन रागों को नई पहचान दी, बल्कि क़व्वाली को भी एक फ़न का दर्जा दिया।
शिबली नोमानी लिखते हैं कि ख़ुसरो पहले और आख़िरी मौसीक़ार थे जिन्हें “नायक” का ख़िताब दिया गया। उनका ये भी दावा है कि ख़ुसरो का मक़ाम अकबर के दौर के मशहूर मौसीक़ार तानसेन से भी बुलंद था।
ख़ुसरो को हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया से एक ख़ास क़िस्म का लगाव था। दोनों की उम्र में सिर्फ़ दो-तीन साल का फ़र्क़ था। 1286 ई. में ख़ुसरो ने हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के हाथ पर बैअत की। ख़्वाजा साहब ने उन्हें सिलसिले की ख़ास टोपी अता की और अपने ख़ास मुरीदों में शामिल कर लिया। बैअत के बाद ख़ुसरो ने अपने माल-ओ-असबाब को लुटा दिया और खुद को पूरी तरह अपने मुर्शिद की ख़िदमत और इश्क़ में सरशार कर दिया।
ख़ुसरो का इश्क़-ओ-अक़ीदत अपने मुर्शिद के लिए मिसाल बन गया। ख़्वाजा साहब अक्सर फ़रमाते थे, “क़ियामत के रोज़ मुझसे सवाल होगा कि निज़ामुद्दीन क्या लाया, तो मैं ख़ुसरो को पेश कर दूँगा।” ये भी कहा करते थे, “अगर एक क़ब्र में दो लाशें दफ़न करना जाइज़ होता, तो मैं अपनी क़ब्र में ख़ुसरो को दफ़न करता।
साजन ये मत जानियो तोहे बिछड़त मोहे को चैन दिया जलत है रात में और जिया जलत बिन रैन
अमार ख़ुसरो
जब हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया का विसाल हुआ, उस वक़्त ख़ुसरो बंगाल में थे। जैसे ही उन्हें ख़बर मिली, वो दिल्ली दौड़े चले आए। उन्होंने जो भी ज़र-ओ-माल था, सब लुटा दिया और स्याह लिबास पहनकर ख़़्वाजा साहब की मज़ार पर मुजाविर बन गए। सिर्फ़ छः महीने बाद ख़ुसरो ने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया और अपने मुर्शिद के क़दमों में दफ़न किए गए। उनकी क़ब्रें बराबर में बनाई गईं लेकिन इतनी दूरी पर कि उनकी शनाख़्त में कोई मुश्किल न हो।
अमीर ख़ुसरो उन अनमोल हस्तियों में से थे जिन पर सरस्वती और लक्ष्मी दोनों एक साथ मेहरबान थीं। उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी शे’र-ओ-मौसीक़ी के लिए वक़्फ़ कर दी। नस्लीय विदेशी होने और विजेता शासक वर्ग से संबंध रखने के बावजूद उन्होंने हिन्दुस्तान की मिली-जुली तहज़ीब की बुनियाद रखी।
क़व्वाली भारत में 13वीं सदी के दौरान सूफ़ी संतों के साथ पहुंची। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया और उनके मुरीद अमीर ख़ुसरो ने क़व्वाली को रिवाज दिया। ख़ुसरो ने फ़ारसी, अरबी और तुर्की ज़ुबानों के साथ भारतीय लोक संगीत का अनूठा मेल कर क़व्वाली को नई पहचान दी। इसके ज़रिए अमन, मोहब्बत और रूहानी पैग़ाम लोगों तक पहुंचाए गए। हज़रत अमीर ख़ुसरो, बुल्ले शाह, बाबा फ़रीद, वारिस शाह और हज़रत सुल्तान बाहू जैसे सूफ़ीयां कराम ने क़व्वाली को जो मक़बूलियत दी, वो आज तक बरक़रार है। 20वीं सदी में उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान, अजीज़ नाज़ां और राशिदा ख़ातून जैसे क़व्वालों ने इसे दुनिया भर में मक़बूल बना दिया। इनकी क़व्वाली ने मज़हब, मुल्क़ और ज़बान की सरहदों को पार करते हुए रूहानी पैग़ाम हर शख़्स तक पहुंचाया।
ये कहना ग़लत न होगा कि ख़ुसरो वो पहली ईंट हैं, जिस पर हिन्दुस्तानी तहज़ीब की इमारत खड़ी हुई। उनकी शख़्सियत हिन्दी और उर्दू, दोनों ज़बानों के अदब का ऐसा फ़ख़्र है, जिसे हर दौर सलाम करता रहेगा।