कैफ़ी आज़मी, जिनका असल नाम सैयद अतहर हुसैन रिज़वी था, उर्दू अदब और तरक़्कीयाफ़्ता तहरीक के वो रौशन चिराग़ थे जिन्होंने शायरी को महज़ हुस्नो-जमाल तक महदूद नहीं रखा, बल्कि उसे मज़दूर की झोपड़ी से लेकर औरत की दबी चीख़ों और समाज की ठंडी खामोशी तक पहुंचाया। उनकी शायरी सिर्फ़ लफ्ज़ों की नहीं बल्कि एहसास की ज़ुबान थी।
मिजवां से इंक़लाब तक
कैफ़ी आज़मी का जन्म उत्तर प्रदेश के ज़िला आज़मगढ़ के एक छोटे से गांव मिजवां में हुआ। एक ज़मींदार और इल्मी ख़ानदान में पले-बढ़े कैफ़ी साहब ने बचपन में ही अरबी-फ़ारसी की तालीम हासिल की और कम उम्र में शे’र कहना शुरू कर दिया।
उनके वालिद चाहते थे कि वो एक आलिम बनें, इसी मंशा से उन्हें लखनऊ के मशहूर मदरसे सुल्तान-उल-मदारिस भेजा गया। लेकिन कैफ़ी का दिल तर्क व तज्जिया और इंक़लाब की ओर खिंचता गया। मदरसे की सख़्त रवायतों से टकराकर उनके अंदर का शायर और सवाल करने वाला इंसान जाग उठा।
लखनऊ के अदबी माहौल ने कैफ़ी को प्रगतिशील तहरीक से जोड़ा। वो दौर था जब अदब सिर्फ़ रूमानी नहीं, बग़ावती और इंक़लाबी हो रहा था। बाद में वो कानपुर गए, जहां मज़दूर आंदोलन जोरों पर था। यहीं उन्होंने मार्क्सवादी लिटरेचर की डीप स्टडी की और एक शायर सच्चा इंक़लाबी बन गया।
बंबई का सफ़र और फ़िल्मी दुनिया में अदबी चमक
1940 के दशक में सरदार जाफ़री और सज्जाद ज़हीर के कहने पर कैफ़ी बंबई (अब मुंबई) आए और प्रगतिशील आंदोलन का अहम हिस्सा बन गए। पैसों की कमी ने उन्हें फ़िल्मी दुनिया की ओर मोड़ा, लेकिन उन्होंने फ़िल्मों में भी अपने फन को समझौते का शिकार नहीं बनने दिया।
उनकी लिखी कुछ मशहूर फ़िल्में:
- ‘काग़ज़ के फूल’
- ‘गर्म हवा’
- ‘हीर रांझा’
- ‘हक़ीक़त’
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो,
कैफ़ी आज़मी
क्या ग़म है जिसको छुपा रहे हो
आंखों में नमी हंसी लबों पर
क्या हाल है क्या दिखा रहे हो
कैफ़ी आज़मी की शायरी में नज़्म की रवानी और ग़ज़ल की गहराई मिलती है। न बहुत पेचीदा, न बहुत सादा, लेकिन सीधे दिल में उतर जाने वाली आवाज़।
उनके कलाम की ख़ास बातें:
- मेहनतकशों की आवाज़
- औरतों के हक़ में बुलंद लहज़ा
- ज़ुल्म के खिलाफ़ सीधा सवाल
- इंसाफ़ और बराबरी की तलब
सज्जाद ज़हीर ने कहा था कैफ़ी की शायरी एक सुर्ख़ फूल है, जो जलते सवाल उठाता है।
चंद अहम मजमुए और नज़्में
- झंकार – उनकी पहली किताब, जिसमें इंक़लाबी तेवर साफ़ झलकते हैं।
- आख़िर-ए-शब – रात के बाद उजाले की उम्मीद वाली शायरी।
- आवारा सजदे – समाज के बदलते रंगों पर एक शायर की सजदे जैसी सोच।
- मेरी आवाज़ सुनो – फ़िल्मी गीतों का संकलन।
- इबलीस की मजलिसें श़ूरा (दूसरा इजलास) – एक बेहद गहरी सियासी और फिक्री नज़्म।
मिजवां: सिर्फ़ गांव नहीं, एक मिशन
कैफ़ी आज़मी के दिल के सबसे क़रीब रहा उनका पैतृक गांव मिजवां। उन्होंने महज़ शायरी में नहीं, हक़ीक़त में गांव को संवारा।
लड़कियों के लिए स्कूल और सिलाई केंद्र बनवाए
गांव में पढ़ाई और हुनर को बढ़ावा दिया
कहा थी कि,अगर मैं किसी एक लड़की को पढ़ा सका, तो मेरी शायरी मुकम्मल हो जाएगी। उनकी बेटी और फेमस एक्ट्रेस शबाना आज़मी और “मिजवां वेलफेयर सोसाइटी” उनके इस ख़्वाब को आगे बढ़ा रहे हैं। कैफ़ी आज़मी सिर्फ़ एक शायर नहीं थे। वो एक सोच थे, एक रविश थे, एक रोशनी थे। उनकी शायरी आज भी ग़ज़लों में, गीतों में, और इंसानियत की सोच में ज़िंदा है।
मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया,
कैफ़ी आज़मी
हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया…”
कैफ़ी आज़मी की शायरी, ज़िंदगी और सोच ने यह साबित किया कि शायर सिर्फ़ महबूब की आंखों का तर्ज़ुमान नहीं, बल्कि ज़माने की आंख का शाहिद भी हो सकता है।
ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहां
कैफ़ी आज़मी
मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया
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