अदब की दुनिया में कुछ नाम ऐसे होते हैं, जिनकी शख़्सियत और जिनकी तहरीर, दोनों ही दिल पर गहरा असर छोड़ जाती हैं। पंडित हरिशंकर शर्मा भी एक ऐसी ही अज़ीम हस्ती थे। उनका नाम सिर्फ़ एक अदीब (लेखक) या एक सहाफ़ी (पत्रकार) का नहीं, बल्कि एक ऐसे फ़नकार का है, जिसने अपनी क़लम से समाज की बुराइयों पर पैनी नज़र डाली और उन्हें बड़े ख़ूबसूरत अंदाज़ में पेश किया। उनकी ज़िंदगी इल्म (ज्ञान) और अदब (साहित्य) की ख़िदमत में गुज़री, जिसमें स्वाभिमान और सादगी का गहरा रंग था।
इल्म-ओ-अदब की महफ़िल
हरिशंकर शर्मा 19 अगस्त, 1891 को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ के क़स्बे हरदुआगंज में पैदा हुए। उनकी तालीम किसी मदरसे या कॉलेज में नहीं हुई, लेकिन उन्हें घर में ही एक ऐसी महफ़िल मिली और घर पर रह कर ही उन्होंने उर्दू, फ़ारसी, गुजराती तथा मराठी आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उनके वालिद (पिता), पंडित नाथूराम शंकर शर्मा, ख़ुद एक मशहूर शायर थे। घर का माहौल इस क़दर अदबी था कि बड़े-बड़े दानिश्वर और अदीब अक्सर यहां तशरीफ़ लाते थे। बचपन से ही हरिशंकर जी ने इन इल्मी गुफ़्तगूओं को ग़ौर से सुना, जिसका नतीजा यह हुआ कि उन्होंने उर्दू, फ़ारसी, गुजराती और मराठी जैसी ज़बानों का इल्म हासिल किया और उनकी अपनी अदबी सलाहियतें परवान चढ़ीं।
उनकी शख़्सियत में ग़ैरत (स्वाभिमान) और सादगी का अनोखा मेल था। उनके दोस्त बाबू गुलाबराय ने उनकी शख़्सियत को बयान करते हुए लिखा था कि उनका तकब्बुर (अहंकार) अपने लिए नहीं, बल्कि अदब के लिए था। वह आज़िज़ (विनम्र) थे और हर किसी की इज़्ज़त करते थे। एक और क़ाबिल-ए-एहतराम दोस्त, विष्णु प्रभाकर, उन्हें सादगी का पैकर (मूर्ति) मानते थे। उनके पास बैठने से हर तरह का रंज (दुःख) और फ़िक्र (चिंता) दूर हो जाता था। वह ख़ुद भी हंसमुख मिज़ाज के थे और दूसरों को भी हंसाना जानते थे।
कलम की ताक़त: सहाफ़त का कामयाब सफ़र
पंडित हरिशंकर शर्मा एक आला दर्जे के सहाफ़ी थे, जिन्होंने अपनी क़लम को सिर्फ़ तफ़रीह (मनोरंजन) का ज़रिया नहीं बनाया, बल्कि उसे समाज में तब्दीली लाने का एक हथियार समझा। उन्होंने कई अहम रसाइल (पत्रिकाएं) की इदारत (संपादन) की, जिनमें ‘आर्यमित्र’, ‘भाग्योदय’, ‘आर्य संदेश’, और ‘दैनिक दिग्विजय’ ख़ास तौर पर क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं।
‘आर्यमित्र’ की इदारत उनके लिए एक बड़ा इम्तिहान था। जब उन्होंने इसकी ज़िम्मेदारी संभाली, तो उन्होंने इसे एक नया मकाम दिया और इसे दीगर (अन्य) हिंदी अख़बारात की क़तार में खड़ा कर दिया। राहुल सांकृत्यायन जैसे अज़ीम इल्मी शख़्सियत ने भी उनकी इदारत की तारीफ़ करते हुए लिखा था कि ‘आर्यमित्र’ उनकी सरपरस्ती (नेतृत्व) में सबसे ज़्यादा मक़बूल (लोकप्रिय) हुआ। हरिशंकर शर्मा ने इन रसाइल में सिर्फ़ संजीदा मज़ामीन (गंभीर लेख) ही नहीं, बल्कि पुरलुत्फ़ और ज़राफ़त से भरे हुए मज़ामीन (हास्य-व्यंग्य) भी शाया (प्रकाशित) किए। इन तहरीरों के ज़रिए वह समाज की पुरानी रस्मो-रिवाज और बुराइयों पर गहरी चोट करते थे, लेकिन उनका अंदाज़ कभी भी फ़ुहश (अश्लील) या घटिया नहीं होता था।
हरिशंकर शर्मा की तसनीफ़ात (रचनाएं) में बहुत तनव्वो (विविधता) था। उन्होंने नज़्म (कविता), नस्र (गद्य), तंज़-ओ-मिज़ाह (हास्य-व्यंग्य), और लुग़त (कोश) जैसी कई अस्नाफ़ (विधाओं) में काम किया। उनकी चंद मशहूर तसनीफ़ात ये हैं:
- लुग़त (कोश): ‘हिन्दुस्तानी कोश’ और ‘अभिनव हिन्दी कोश’ जैसी अहम् लुग़त की तसनीफ़ ने उनके इल्मी रुतबे को बुलंद किया।
- तंज़िया तसनीफ़ात (व्यंग्यात्मक रचनाएं): ‘घास-पात’, ‘पिंजरा पोल’, और ‘चिड़ियाघर’ जैसी तहरीरों के ज़रिए उन्होंने समाजी रियाकारी (पाखंड) पर सख़्त तंज़ किया। उनका तंज़ सिर्फ़ हंसाने के लिए नहीं था, बल्कि सोचने पर मजबूर करने के लिए था।
- दीगर तसनीफ़ात (अन्य रचनाएं): ‘रत्नाकर’, ‘रामराज्य’, ‘कृष्ण संदेश’, और ‘पाखंड’ जैसी रचनाएं उनकी अदबी सलाहियत का सबूत हैं।
हरिशंकर शर्मा की सबसे बड़ी ख़ासियत उनकी अदबी ज़बान (साहित्यिक भाषा) थी। उनकी ज़बान सादा, रवां और पुरअसर थी। वह जानते थे कि अपनी बात को किस तरह सीधे और ताक़तवर तरीक़े से कहना है। उनकी तहरीरों में एक गहरा तफ़क्कुर (चिंतन) और तहक़ीक़ (शोध) दिखाई देता है। उनका अदब इस बात का गवाह है कि किताब पर तब्सिरा (समीक्षा) भी एक संजीदा और अहम फ़न हो सकता है।
एक अमर शख़्सियत
हरिशंकर शर्मा को उनकी ज़िंदगी में कई एज़ाज़ (सम्मान) मिले, जो उनकी मेहनत और क़ाबिलियत (क्षमता) की पहचान थे। उन्हें ‘देव पुरस्कार’ से नवाज़ा गया और आगरा यूनिवर्सिटी ने उन्हें ‘डी.लिट.’ की मानद डिग्री दी। 1968 में, हुकूमत-ए-हिंद (भारत सरकार) ने उन्हें ‘पद्मश्री’ के ख़िताब से नवाज़ा, जो उनके लिए एक बहुत बड़ा एज़ाज़ था।
मैथिलीशरण गुप्त जैसे महान शायर ने उनके बारे में कहा था कि “हरिशंकर शर्मा के मुशाबा (समान) नेक और साफ़ दिल अदीब कम होंगे।” यह जुमला उनके किरदार की पाकीज़गी और सादगी को बयान करता है। वो एक ऐसे शख़्स थे, जिन्होंने शोहरत और ओहदे की परवाह किए बग़ैर, निस्वार्थ भाव से मुल्क और अदब की ख़िदमत की।
9 मार्च, 1968 को हरिशंकर शर्मा इस फ़ानी दुनिया को छोड़ गए, लेकिन उनकी तहरीरे और उनके ख़यालात (विचार) आज भी हमें राह दिखाते हैं। उनका जीवन हमें ये सिखाता है कि एक लेखक की क़लम में समाज को बदलने की कितनी ताक़त होती है, और यह ताक़त आज़िज़ी (विनम्रता) और ग़ैरत से ही आती है। वह सिर्फ़ अदीब नहीं, बल्कि एक मुफ़क्किर (विचारक) और सहाफ़ी थे, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी सच्चाई और तख़लीक़ी सलाहियत (रचनात्मक क्षमता) के लिए वक़्फ़ (समर्पित) कर दी।
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