31-Aug-2025
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ख़लील-उर-रहमान आज़मी: जब एक हिंदुस्तानी शायर बना ब्रिटिश स्कॉलर का टीचर

ख़लील-उर-रहमान आज़मी (1927–1978) उर्दू के तरक्कीपसंद शायर और तालीमदान थे। आज़मी ने ग़ज़ल और नज़्म दोनों में नए तजुर्बे किए। उनकी शायरी इंसानी दर्द, समाजी हक़ीक़त और तरक्कीपसंद तहरीक की गूंज है।

उर्दू शायरी और आलोचना की दुनिया में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो सिर्फ़ एक शायर या आलोचक नहीं रहते, बल्कि पूरी नस्ल की सोच और फ़िक्र पर असर डाल जाते हैं। ख़लील-उर-रहमान आज़मी (1927–1978) उन्हीं में से एक हैं। उन्होंने बहुत लंबी ज़िंदगी नहीं पाई, मगर जितना लिखा, उतना असर छोड़ा कि आज भी उनका नाम उर्दू की तरक़्क़ीपसंद तहरीक, नई नज़्म और आलोचना के अहम पुरज़ोर किरदारों में गिना जाता है।

बचपन और तालीम

आज़मी का असल नाम ख़लील-उर-रहमान था और उनका जन्म 9 अगस्त 1927 को उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले के सीधान सुल्तानपुर गांव में हुआ। उनके वालिद मुहम्मद शफ़ी एक सादे और बेहद धार्मिक इंसान थे। घर का माहौल इल्मी और दीनी था, जिसने छोटी उम्र से ही उन्हें पढ़ाई और लिखाई की तरफ़ मुतवज्जेह किया।

ख़लील ने अपनी बुनियादी तालीम शिबली नेशनल हाई स्कूल, आज़मगढ़ से पूरी की और 1945 में मैट्रिक का इम्तिहान पास किया। इसके बाद उनकी राह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की तरफ़ खुली, जहां से उन्होंने 1948 में ग्रेजुएशन और फिर उर्दू में एम.ए. किया। दिलचस्प बात ये है कि इसी दौर में उन्होंने मशहूर ब्रिटिश स्कॉलर राल्फ़ रसेल को उर्दू पढ़ाई – यानी एक नौजवान हिंदुस्तानी शायर एक अंग्रेज़ विद्वान का उस वक़्त का उस्ताद था।

फिर उन्होंने 1957 में ए.एम.यू. से पी.एच.डी. की डिग्री हासिल की। उनका थीसिस था “उर्दू में तरक़्क़ीपसंद अदबी तहरीक”, जो बाद में उर्दू आलोचना की दुनिया में एक रेफ़रेंस की हैसियत रखता है।

अदबी सफ़र की शुरुआत

ख़लील-उर-रहमान ने बहुत छोटी उम्र से लिखना शुरू कर दिया था। स्कूल के दिनों में ही उनकी शायरी बच्चों की अदबी रिसालों में छपने लगी। “पयामी तालीम” नामी बच्चों की पत्रिका में उनकी शुरुआती नज़्में शाया हुईं।

उनका पहला बड़ा शायरी का मज्मूआ “काग़ज़ी पैरहन” 1955 में सामने आया। इसमें नज़्में और ग़ज़लें दोनों थीं। इस मज्मूए ने उन्हें एक जद्दीदी (modernist) शायर की हैसियत से पहचान दिलाई। इसके बाद 1965 में उनका दूसरा मज्मूआ “नया अहदनामा” आया, जिसने उन्हें नई नज़्म के रहनुमा शायरों की सफ़ में ला खड़ा किया।

तरक़्क़ीपसंद तहरीक और नई नज़्म

आज़मी तरक़्क़ीपसंद तहरीक से गहराई से जुड़े हुए थे। मगर उनका अंदाज़ सिर्फ़ नारे लगाने या इंक़लाबी अल्फ़ाज़ तक महदूद नहीं था। उन्होंने शायरी में ज़िंदगी के असली मसाइल, इंसान की तन्हाई, और जद्दोजहद को जगह दी। वो उर्दू के उन चुनिंदा शायरों में से थे जिन्होंने नई नज़्म की बुनियाद मज़बूत की। उनकी नज़्में महज़ अल्फ़ाज़ का खेल नहीं थीं, बल्कि समाज, सियासत और इंसान की अंदरूनी जद्दोजहद का आईना थीं।

उनका एडिट किया हुआ मज्मूआ “नई नज़्म का सफ़र (1936–1972)” उर्दू अदब का एक अहम दस्तावेज़ है, जिसमें चार दशकों की नज़्मों का बेहतरीन इंतिख़ाब उन्होंने पेश किया। सिर्फ़ शायर ही नहीं, ख़लील-उर-रहमान एक बड़े आलोचक भी थे। उनकी किताबें “फ़िक्र-ओ-फ़न” (1956), “ज़ाविया-ए-निगाह” (1966) और “मज़ामीन-ए-नौ” (1977) उर्दू अदब में आलोचना की संजीदा मिसालें मानी जाती हैं।

उनकी आलोचना का अंदाज़ बहुत मुतवाज़िन और वाज़ेह था। वो किसी भी शायर या तहरीक की खूबियों और कमियों को खुलकर लिखते, मगर तहज़ीब और इल्मी एहतियात को कभी हाथ से नहीं जाने देते। उनकी नज़्मों और ग़ज़लों में वो आदमी बोलता है जो समाज में जीता है, सवाल करता है और तक़लीफ़ झेलता है। उनकी शायरी में न कोई बनावटी लहजा है, न किसी किस्म की सजावट — बस सच्ची जज़्बात और सोच की सादा मगर असरदार आवाज़ है।

उनकी किताबें और योगदान

काग़ज़ी पैरहन (1953) – पहला शायरी संग्रह (नज़्में और ग़ज़लें)।

नया अहदनामा (1965) – दूसरा शायरी संग्रह।

ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी (1983) – देहांत के बाद शाया हुआ तीसरा संग्रह।

फ़िक्र-ओ-फ़न (1956) – आलोचना।

ज़ाविया-ए-निगाह (1966) – आलोचना।

मज़ामीन-ए-नौ (1977) – आलोचना।

नई नज़्म का सफ़र (संपादित) – 1936 से 1972 तक की नज़्मों का इंतिख़ाब।

तरक़्क़ीपसंद तहरीक (1965) – आलोचना।

उर्दू में तरक़्क़ीपसंद अदबी तहरीक (1972) – पीएचडी थीसिस, अदब का एहम दस्तावेज़।

1978 में, यानी उनकी ज़िंदगी के आख़िरी साल में उन्हें ग़ालिब अवार्ड से नवाज़ा गया। ये उनके अदबी सफ़र और शायरी की बड़ी तस्दीक़ थी। सिर्फ़ 51 बरस की उम्र में, 1 जून 1978 को, वो ल्यूकेमिया (ख़ून के कैंसर) की वजह से दुनिया से रुख़्सत कर गए। उनकी मौत उर्दू अदब के लिए एक बहुत बड़ा नुक़सान थी।

उनके देहांत के बाद उन्हें प्रोफ़ेसर के ओहदे पर मरणोपरांत तरक़्क़ी दी गई। और उनकी किताब “ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी” 1983 में छपी, जो उनके अदबी सफ़र का मुकम्मल दस्तावेज़ बन गई। ख़लील-उर-रहमान आज़मी की शख़्सियत सादा मगर असरदार थी। उन्होंने उर्दू शायरी में नई रहगुज़र बनाई, आलोचना को इल्मी और मुतवाज़िन रुख़ दिया और अपने वक़्त के दर्द को अल्फ़ाज़ में ढाल कर हमें ऐसी शायरी दी जो आज भी ताज़ा लगती है।

उनकी ज़िंदगी एक मिसाल है कि शोहरत और तवील ज़िंदगी ज़रूरी नहीं, बल्कि असल चीज़ है – फिक्र, ईमानदारी और इंसानियत से जुड़ी शायरी। ख़लील-उर-रहमान आ’ज़मी को उर्दू का वो शायर कहा जा सकता है जिसने अपने अल्फ़ाज़ से एक पूरी नस्ल की सोच को रौशन किया। वो आज भी हमें याद दिलाते हैं कि शायरी सिर्फ़ तख़ैयुल का खेल नहीं, बल्कि इंसानी ज़िंदगी का आईना है।

ये भी पढ़ें: नए लब-ओ-लहज़े की शायरा: परवीन शाकिर की शायरी का जादू और रग-ए-जां में उतरते अल्फ़ाज़

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