अगर उर्दू शायरी को एक रूहानी इंक़लाब की ज़रूरत होती, तो उसका नाम सिर्फ़ “अल्लामा इक़बाल ” होता। अल्लामा इक़बाल की शायरी सिर्फ़ जज़्बात का इज़हार नहीं बल्कि एक पूरी तहज़ीब, एक सोच, एक मिशन का सार है। उनकी शायरी में जहां एक तरफ़ तसव्वुफ़ का सुकून है, वहीं दूसरी जानिब इंक़लाब की सदा ज़ोरों पर है।
पैदाइश और तालीम की शुरुआत
अल्लामा इक़बाल मुल्क-ए-हिंद की सरज़मीं पर 9 नवंबर 1877 को सियालकोट (अब पाकिस्तान ) में पैदाइश हुई। अल्लामा इक़बाल को दुनिया “शायर-ए-मशरिक़”, “हकीम-उल-उम्मत”, और “अल्लामा इक़बाल” के नाम से जानती है। उनके वालिद शेख़ नूर मुहम्मद एक नेक शख्स थे और उनकी मां ईमानदार, नेक दिल और दरमियानी तबक़े से ताल्लुक़ रखती थीं। इक़बाल की बुनियादी तालीम एक मक़तब से शुरू हुई। वो स्कूल और कॉलेज में हमेशा अव्वल रहे। सियालकोट से एफ.ए और फिर लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज से बी.ए (B.A) और एम.ए (M.A) किया। टी.डब्ल्यू. आर्नोल्ड जैसे अदीब और फ़लसफ़ी के क़रीब आकर इक़बाल ने इंग्लैंड में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी (University of Cambridge) में दाख़िला ले लिया और बैचलर ऑफ़ आर्ट्स की डिग्री हासिल की। अल्लामा इक़बाल ने जर्मनी के म्यूनिख यूनिवर्सिटी से दर्शनशास्त्र में पीएचडी की।
शायरी का आगाज़ और मक़सद
अल्लामा इक़बाल की शायरी का सफ़र एक ऐसे दौर में शुरू हुआ जब शायरी का मतलब सिर्फ़ इश्क़, महबूब और जाम-ओ-सागर के इर्द-गिर्द था। लेकिन इक़बाल इस रवायत से हटकर एक नया रास्ता खोलना चाहते थे, एक ऐसा रास्ता जिसमें शायरी, एक उम्मत की रहनुमाई करे।
“मोती समझ के शान-ए-करीमी ने चुन लिए
अल्लामा इक़बाल
क़तरे जो थे मिरे अर्क़-ए-इंफ़िआल के
ये मिसरा उन्होंने उस वक़्त के मुशायरे में पढ़ा और अदबी हलक़ों में एक नई उम्मीद की तरह चमकने लगे।

फ़िक्र और तसव्वुर की शायरी
इक़बाल की शायरी सिर्फ़ अल्फ़ाज़ का खेल नहीं, बल्कि एक मक़सद की तर्जुमानी है। वो कहते हैं: “शायरी कोई महज़ दिल बहलाने का ज़रिया नहीं, बल्कि ये एक नज़रिया है जो क़ौम की रहनुमाई कर सकती है।” इक़बाल ने “ख़ुदी” का जो फ़लसफ़ा पेश किया, वो इंसान को उसकी अस्ल पहचान से रूबरू कराता है। उनके मुताबिक, ख़ुदी एक ऐसी क़ुव्वत है जो इंसान को ज़िंदगी की रूह बना देती है।
“ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
अल्लामा इक़बाल
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है।”
इश्क़ का नया मायार
इक़बाल का इश्क़ महबूब की ज़ुल्फ़ों और आंखों का तसव्वुर नहीं, बल्कि एक आला दर्जे की रूहानी और फ़लसफ़ियाना तजुर्बा है। वो इश्क़ को ज़िंदगी की सच्ची क़ुव्वत मानते हैं।
“इश्क़ सिखाता है अदब-ए-ख़ुद्दारी,
अल्लामा इक़बाल
इश्क़ ही है सरमाया-ए-कार-ए-आफ़ताबी।”
उनका मानना था कि सिर्फ़ इल्म होने से यक़ीन नहीं आता, बल्कि सच्चा यक़ीन तो इश्क़ से पैदा होता है। वही इश्क़ जो इंसान को सोज़, लगन और सरफ़रोशी की राह दिखाता है।
फ़लसफ़ा, मज़हब और समाज
इक़बाल की शायरी में मज़हब कोई जड़ का निज़ाम नहीं बल्कि इंसान की ज़ात को तरक़्क़ी की राह दिखाने वाला ज़रिया है। वो मज़हब को हक़ीक़त की तलाश का रास्ता मानते थे। उनके यहां इस्लाम एक तहज़ीब, एक तर्ज़-ए-हयात है जो इंसान को बेक़द्री, ज़िल्लत और ग़ुलामी से नजात दिला सकता है। वो कहते हैं:
जलाल-ए-पादशाही हो कि जमहूरी तमाशा हो,
अल्लामा इक़बाल
जुदा हो दीं सियासत से तो रह जाती है चंगेज़ी।
उर्दू शायरी में नया इज़ाफ़ा
इक़बाल ने उर्दू शायरी को एक नया आयाम अता किया। उनकी नज़्में “हिमाला”, “नाला-ए-यतीम”, “शिकवा”, “जवाब-ए-शिकवा”, “तुलूअ-ए-इस्लाम”, “ख़िज़्र-ए-राह” जैसे शाहकार क़लाम आज भी दिलों को गुनगुनाने पर मजबूर कर देते हैं। नज़्म के अंदाज़ को उन्होंने गहराई, मंजिल और ताज़गी अता की। उनकी फ़ारसी किताबें—”इसरार-ए-ख़ुदी”, “रमूज़-ए-बेख़ुदी”, “पायाम-ए-मशरिक़”, “ज़ुबूर-ए-अजम”, “जावेद-नामा”—सिर्फ़ शायरी नहीं बल्कि एक रूहानी दस्तावेज़ हैं।
सियासत और क़ौमी सोच
1930 के इलाहाबाद अधिवेशन में जब इक़बाल ने मुसलमानों के लिए अलग वजूद की बात की तो उन्होंने सिर्फ़ सियासी नक़्शा नहीं खींचा, बल्कि एक तहज़ीबी, समाजी और फ़लसफ़ियाना तसव्वुर को ज़ाहिर किया। उन्होंने पाकिस्तान का ख़्वाब देखा लेकिन उसका तसव्वुर महज़ सरहदों तक महदूद नहीं था। बल्कि एक ऐसी क़ौम की तामीर थी जो रूहानी और इख़लाक़ी उसूलों पर क़ायम हो।
ज़िंदगी के आख़िरी लम्हात
1935 में उनके गले में रसौली हो गई, आवाज़ बैठने लगी। वकालत छोड़नी पड़ी। दो छोटे बच्चों की परवरिश की फ़िक्र ने मर्ज़ को और बढ़ा दिया। 21 अप्रैल 1938 को लाहौर में अल्लामा इक़बाल इस फ़ानी दुनिया से रुख़सत हुए। मगर उनका कलाम, उनकी सोच, उनका तसव्वुर आज भी ज़िंदा और हर ज़माने में बुलंद रहेगी।
“जो कबूतर पर झपटने में मज़ा है ए पिसर, वो मज़ा शायद कबूतर के लहू में भी नहीं।”
इक़बाल ने शायरी के ज़रिए एक क़ौम की रूह में हरकत पैदा की। उन्होंने मुसलमानों को सिर्फ़ अपने अतीत पर नाज़ करने से आगे बढ़कर एक नई सोच अपनाने का पैग़ाम दिया। उनका कलाम सिर्फ़ पढ़ने की चीज़ नहीं, बल्कि अमल करने का पैग़ाम है।
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