अकबर इलाहाबादी (सय्यद अकबर हुसैन) उर्दू शायरी के ऐसे मशहूर शायर हैं जिन्होंने अपनी पहली ही ग़ज़ल से पढ़ने-सुनने वालों को दीवाना बना लिया। 16 नवंबर 1846 को इलाहाबाद के कस्बा बारह में पैदा होने वाले अकबर इलाहाबादी ने उर्दू अदब को एक नई दिशा दी। उनकी शायरी में न सिर्फ़ ज़िंदगी की सच्चाईयां झलकती हैं, बल्कि समाज, राजनीति, और संस्कृति का भी गहरा अक्स नज़र आता है।
अकबर के पिता, तफ़ज़्ज़ुल हुसैन, तहसीलदार थे। अकबर ने अपनी शुरुआती तालीम घर पर ही हासिल की और कम उम्र में फ़ारसी और अरबी लैंग्वेज में महारत हासिल कर ली। परिवार के नाज़ुक हालात की वजह 15 साल की उम्र में नौकरी करनी पड़ी। अकबर ने रेलवे में छोटे पदों पर काम किया और बाद में वकालत का एग्ज़ाम पास किया। अपने जीवन में संघर्ष और अलग अलग तर्जुबों से शायरी को और भी ख़ास बनाया।
अकबर का शायराना सफ़र
हंगामा है क्यूं बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है
अकबर इलाहाबादी की ग़ज़लें, नज़्में, और रुबाइयां न सिर्फ़ फनकारी से भरपूर हैं, बल्कि शायरी में समाज के हर पहलू देखने को मिलता है। उनकी शायरी में आम शब्दों जैसे ऊंट, इंजन, या मिर्ज़ा को गहरे मायने देने के लिए इस्तेमाल किया गया है। अकबर इलाहाबादी की उर्दू शायरी में हास्य एक हल्का-फुल्का अंदाज़ देखने को मिलता है और जो आपको रिफ्रेश और एनरजेटिक बनाता है। उनकी रचनाएं मज़ाकिया होते हुए भी गहरी सीख देते हैं। उन्होंने अपने दौर के मौलवियों, अंग्रेज़ हाकिमों, और नेताओं पर खुलकर तंज़ किया। उनके तंज़ का मकसद सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज को आईना दिखाना था।
अकबर डरे नहीं कभी दुश्मन की फौज से,
लेकिन शहीद हो गए बेगम की नौज से
इस तरह की पंक्तियां हंसी के साथ-साथ संदेश को भी उजागर करती हैं। अकबर की ज़ाती ज़िंदगी काफी उतार-चढ़ाव से भरी रही। उन्होंने दो शादियां की, लेकिन दोनों ही उनके लिए सुखद साबित नहीं हुई। दूसरी बेगम और बेटे की मौत ने गहरे दुःख में डाल दिया।
दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं
बाज़ार से गुज़रा हूं ख़रीदार नहीं हूं
अकबर इलाहाबादी की भाषा आम-फहम उर्दू थी, जिसमें फ़ारसी और हिंदी का मिलन था। उनकी शायरी में उत्तर भारत की तहज़ीब की झलक और हिन्दुस्तानी ज़बान का असर साफ़ दिखाई देता है।
शम्सुर रहमान फ़ारूकी के मुताबिक़, मीर तक़ी मीर के बाद अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में सबसे ज़्यादा अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल किया।
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता
अकबर इलाहाबादी की शायरी में हंसी, तंज़, नसीहत, और शक्ल का कमाल मेल है। उनकी रचनाएं सिर्फ़ उनके वक्त तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि आज भी लोगों की ज़बां पर हैं। अकबर ने उर्दू शायरी के नज़र अंदाज़ करने वाले पहलुओं को उभारा और आने वाले शायरों के लिए नई राहें खोलीं।
9 सितंबर 1921 को उनका इंतकाल हुआ, लेकिन उनकी शायरी आज भी ज़िंदा है। अकबर इलाहाबादी को एक ऐसा शायर माना जाता है जिसने अपने कलाम से न सिर्फ़ उर्दू अदब को ख़ुशहाल किया, बल्कि समाज को भी दिशा दी।
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