आफ़त तो है वो नाज़ भी अंदाज़ भी लेकिन
अमीर मीनाई
मरता हूं मैं जिस पर वो अदा और ही कुछ है
शायरी अगर दिल की ज़ुबान है, तो अमीर मीनाई उस दिल के सबसे ख़ूबसूरत और सच्चे तर्जुमान थे। उन्होंने उर्दू अदब को वो दिया जिसे सदियां सलाम करती हैं। लखनऊ की बाहरी चमक और दिल्ली की गहराई, दोनों का ऐसा भरपूर मेल उनके कलाम में दिखाई देता है कि पढ़ने वाला हर बार एक नया मतलब, एक नई रवानी महसूस करता है।
किस्सा-ए-ज़िंदगी: एक फ़क़ीर, एक अदीब, एक आशिक़
अमीर मीनाई का असली नाम अमीर अहमद था। वह 1828 में नवाब नसीर उद्दीन हैदर के दौर में लखनऊ की रूमानी सरज़मीं पर पैदा हुए। उनके वालिद मौलवी करम अहमद एक पाक दिल इंसान और उनके दादा मख़दूम शाह मीना के भाई थे, इसी वजह से वो ‘मीनाई’ कहलाए।
अमीर की शुरुआती तालीम घर पर हुई। फ़ारसी और अरबी में महारत उन्होंने मुफ़्ती सादउल्लाह मुरादाबादी से हासिल की। लेकिन उन्होंने हमेशा कहा कि उनका असल इल्म उनकी मेहनत और तजुर्बे का नतीजा है। शायरी से उनका रिश्ता बचपन में ही बन गया था। 15 साल की उम्र में उन्होंने मुंशी मुज़फ़्फ़र अली असीर के पास शागिर्दी इख़्तियार की, जो अपने दौर के माहिर शायर थे।
लखनऊ की फिज़ा और शायरी का उजाला
उस वक़्त लखनऊ अदब का अड्डा था। आतिश और नासिख, अनीस और दबीर जैसे सूरमा अपनी शायरी से माहौल को गर्माए हुए थे। इन्हीं रंगों के दरमियान अमीर का शायरी की तरफ़ झुकाव और तेज़ हुआ। जल्द ही वह लखनऊ और उसके बाहर के मुशायरों में मशहूर हो गए।
उल्फ़त में बराबर है वफ़ा हो कि जफ़ा हो
अमीर मीनाई
हर बात में लज़्ज़त है अगर दिल में मज़ा हो
1852 में नवाब वाजिद अली शाह ने उन्हें अपने शहज़ादों की तालीम के लिए नियुक्त किया और 200 रुपये माहवार वज़ीफ़ा दिया। लेकिन 1856 में जब अंग्रेज़ों ने अवध पर क़ब्ज़ा किया, तो उनकी नौकरी जाती रही और फिर 1857 के ग़दर में उनका सब कुछ तबाह हो गया, यहां तक कि उनकी शायरी का पहला मज्मूआ भी।
वो पहले काकोरी, फिर कानपुर और फिर मीरपुर पहुंचे। वहां उनके ससुर की सिफ़ारिश पर नवाब यूसुफ़ अली ख़ां ने उन्हें रामपुर बुलाया। वहां अमीर को अदालत-ए-दीवानी में ओहदा मिला और बाद में प्रेस, समाचार और मुसाहिबत की ज़िम्मेदारियां भी। 216 रुपये वज़ीफ़ा, इनामात और सुख-सुविधाएं दी गईं।
रामपुर उस वक़्त उर्दू अदब का मर्कज़ बन चुका था। वहां दाग़ देहलवी, बहर, तस्लीम, मुनीर, असीर जैसे शायर जमा थे। इस माहौल में अमीर की शायरी ने वो ऊंचाई छूई जो बहुत कम शायरों को हासिल होती है।
हैदराबाद की तरफ़ सफ़र और आख़िरी सांसें
जब दाग़ हैदराबाद गए और बुलंदी पाई, तो उन्होंने अमीर को भी बुलाया। 1899 में उनकी निज़ाम से मुलाक़ात हुई और उन्होंने एक क़सीदा पढ़ा जिससे निज़ाम बेहद ख़ुश हुए। लेकिन जब अमीर 1900 में वहां पहुंचे, तो अचानक बीमार हो गए और हैदराबाद में ही इंतेक़ाल फरमा गए।
ख़ंजर चले किसी पे तड़पते हैं हम ‘अमीर’
अमीर मीनाई
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है
अमीर मीनाई सादगी और इबादत में यक़ीन रखते थे। वह दरगाह साबरिया के सज्जादा नशीं से ख़िलाफ़त पाए हुए थे। तवक्कुल, फ़क़ीरी, विनम्रता और बेबाकी उनके मिज़ाज का हिस्सा थे। दोस्त नवाज़ी में उनका कोई सानी नहीं था। दाग़ से उनकी दोस्ती थी, मगर कुछ मुआमलात में रक़ाबत भी।
अमीर की शायरी: उर्दू का रंगीन गुलदस्ता
अमीर मीनाई ने उर्दू शायरी की लगभग हर विधा में क़लम आज़माया ग़ज़ल, क़सीदा, मसनवी, नाअत, मसद्दस। उनकी शायरी में शब्दों की रवानी, विचारों की नज़ाकत, और शगुफ़्ता बयानी का ऐसा मेल है कि वो हर दिल को छू जाती है।
कश्तियां सब की किनारे पे पहुंच जाती हैं
अमीर मीनाई
नाख़ुदा जिन का नहीं उन का ख़ुदा होता है
मज़हबी और अख़लाक़ी अदब में शिरकत
अमीर का नातिया कलाम “मोहम्मद ख़ातिम-उल-नबीयीन” उर्दू धार्मिक साहित्य की अमानत है। उन्होंने चार मुसद्दस “ज़िक्र-ए-शहे अंबिया”, “सुब्ह-ए-अज़ल”, “शाम-ए-अबद” और “लैलत-उल-क़द्र” — लिखे। उनकी मसनवियां “नूर-ए-तजल्ली” और “अब्र-ए-करम” ने तसव्वुफ़ और इख़लाक़ का जो अंदाज़ उर्दू में पेश किया, वह काबिल-ए-रश्क़ है। “ख़्याबान-ए-आफ़रीनिश” नबी की मिलाद पर एक सुंदर गद्य कृति है।
अमीर मीनाई को उनके दौर में नवाबों और दरबारों से कई सम्मान और इनामात मिले। रामपुर और हैदराबाद जैसे राज्य उनकी प्रतिभा के मुरीद रहे। उनकी साहित्यिक विरासत को गुल-ए-राना, राम बाबू सक्सेना, और हकीम अब्दुलहई जैसे आलोचकों ने भी सराहा।
आज भी उर्दू अदब का कोई क़ारी ऐसा नहीं जो अमीर का नाम ना जानता हो। उनके अशआर आज भी महफ़िलों की रौनक हैं। अमीर मीनाई की शख़्सियत और साहित्य दोनों में एक इंकलाबी ताक़त है उन्होंने सिर्फ़ शायरी नहीं की, उर्दू को तराशा, संवारा और संवारा। उनका कलाम हमें सिखाता है कि इश्क़ सिर्फ़ एक ज़ात से नहीं, एक ज़ुबान,
गाहे गाहे की मुलाक़ात ही अच्छी है ‘अमीर’
अमीर मीनाई
क़द्र खो देता है हर रोज़ का आना जाना
अमीर मीनाई की शायरी, भाषा और विचार आज भी ज़िंदा हैं। उन्होंने उर्दू को अदब का नहीं, अदब को उर्दू का अक्स बना दिया। उनका नाम ता-क़यामत अदब के अफ़्क़ार में ज़िंदा रहेगा।
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