उर्दू और हिंदी अदब में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो अपनी रोशनी से हमेशा चमकते रहते हैं। इन्हीं में से एक हैं निदा फ़ाज़ली, एक ऐसे अदीब, शायर, गीतकार, संवाद लेखक और पत्रकार जिन्होंने उर्दू शायरी को एक बिल्कुल नया लहजा और अंदाज़ दिया। उनका अंदाज़ इतना अलग था कि उस वक़्त के उर्दू अदब के बड़े-बड़े लोग भी पहले इसे आसानी से नहीं अपना पाए थे। लेकिन निदा फ़ाज़ली की शायरी में उर्दू का एक ऐसा नया मुहावरा सामने आया, जिसने नई पीढ़ी को ख़ूब लुभाया और उन पर गहरा असर डाला।
निदा फ़ाज़ली के लिखने का तरीक़ा ऐसा था, जैसे संतों की सीधी-सादी बातें हों, एक मस्त क़लंदर की बेफ़िक्री हो, और लोक गीतों जैसी मीठी धुन हो। उन्होंने आम लोगों से बात की, उन्हीं की ज़बान में गुफ़्तगु की और बड़े ही प्यार भरे, हल्के-फुल्के मज़ाक़िया अंदाज़ में ऐसी बातें कहीं जो सीधे दिल में उतर जाती थीं। उन्होंने अमीर ख़ुसरो, मीर, रहीम और नज़ीर अकबराबादी जैसी पुरानी शायराना रिवायतों को फिर से ज़िंदा करने की कोशिश की। उन्होंने न सिर्फ़ उस पुरानी विरासत को वापस लाया, बल्कि उसमें आज के ज़माने की ज़बान की ख़ूबसूरती जोड़ दी। इससे उर्दू के गद्य साहित्य में भी नए रास्ते खुल गए। निदा फ़ाज़ली वैसे तो मूल रूप से शायर थे, लेकिन उनकी गद्य शैली ने भी अपनी एक अलग पहचान बनाई। मशहूर अदीब वारिस अल्वी ने कहा था कि निदा उन चंद ख़ुशक़िस्मत लोगों में हैं जिनकी शायरी और नस्र (गद्य) दोनों ने लोगों का दिल जीत लिया।
सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
निदा फ़ाज़ली
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
ये शेर हमें हिम्मत देता है कि ज़िंदगी की मुश्किलों में भी आगे बढ़ते रहना चाहिए। निदा फ़ाज़ली सही मायनों में “शब्दों के जादूगर” थे, जिन्होंने अपनी शायरी से लाखों दिलों को रोशन किया और उर्दू अदब को एक नया आयाम दिया।
बचपन, संघर्ष और एक नई राह की तलाश
निदा फ़ाज़ली का असल नाम मुक़तिदा हसन था। उनका जन्म 12 अक्टूबर 1938 को दिल्ली में हुआ था। उनके वालिद मुर्तज़ा हसन ख़ुद एक शायर थे और ‘दुआ डबाईवी’ तख़ल्लुस करते थे। वे ग्वालियर रियासत के रेलवे विभाग में मुलाज़िम थे। घर में शेर-ओ-शायरी का माहौल था, जिसने निदा के अंदर बचपन से ही शायरी का शौक़ पैदा कर दिया।
उनकी शुरुआती पढ़ाई ग्वालियर में हुई और उन्होंने विक्रम यूनिवर्सिटी, उज्जैन से उर्दू और हिंदी दोनों में एम.ए. की डिग्रियां लीं। देश के बंटवारे के बाद वालिद को ग्वालियर छोड़ना पड़ा और वे भोपाल आ गए। इसके बाद उन्होंने पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया, लेकिन निदा घर से भाग निकले और पाकिस्तान नहीं गए। घरवालों से बिछड़ जाने के बाद निदा ने अपना संघर्ष अकेले ही जारी रखा और अपना ज़्यादातर वक़्त पढ़ाई और शायरी में गुज़ारा।
हर एक बात को चुप-चाप क्यूं सुना जाए
निदा फ़ाज़ली
कभी तो हौसला कर के नहीं कहा जाए
मुशायरों की शान: जब निदा ने ‘नज़ीर’ को किया याद
निदा फ़ाज़ली अपनी सादगी और सीधेपन के लिए जाने जाते थे। उन्हें मुशायरों में बहुत पसंद किया जाता था क्योंकि वो महज़ किताबी बातें नहीं करते थे, बल्कि ज़िंदगी के असल रंग दिखाते थे। वो नज़ीर अकबराबादी की रिवायत से बहुत मुतास्सिर थे, जिन्होंने आम लोगों की ज़िंदगी पर शायरी की।
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें
निदा फ़ाज़ली
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए
एक बार दिल्ली के एक बड़े मुशायरे में निदा फ़ाज़ली को बुलाया गया। मुशायरा बहुत ही ख़ास अंदाज़ में चल रहा था, जहां बड़े-बड़े आला दर्जे के शायर मौजूद थे। जब निदा फ़ाज़ली का नंबर आया, तो उन्होंने अपनी एक ग़ज़ल पढ़ी जिसमें उन्होंने आम आदमी की ज़िंदगी की परेशानियों और उसकी छोटी-छोटी ख़ुशियों को बयां किया था। मुशायरे में कई लोग ऐसे थे जो सिर्फ़ क्लासिकी उर्दू और मुश्किल अलफ़ाज़ वाली शायरी पसंद करते थे। उन्हें निदा का ये आम बोलचाल का अंदाज़ कुछ अजीब लगा।
जब निदा ने अपनी ग़ज़ल ख़त्म की, तो एक बड़े शायर ने तंज़न कहा, “मिया, ये तो बाज़ारू ज़बान है। ऐसी शायरी मुशायरों में अच्छी नहीं लगती।” निदा फ़ाज़ली मुस्कुराए और बड़े अदब से बोले, “जनाब, आप सही फ़रमाते हैं। ये ज़बान बाज़ार की ही है, उन्हीं आम लोगों की है जो बाज़ारों में घूमते हैं, जो रोज़मर्रा की ज़िंदगी जीते हैं। मेरी शायरी सड़कों पर चलती है, गलियों में घूमती है।”
उन्होंने आगे कहा, “मैं अपनी ज़बान तलाश करने सड़कों पर, गलियों में, जहां शरीफ़ लोग जाने से कतराते हैं, वहां जा कर अपनी ज़बान लेता हूं। जैसे मीर, कबीर और रहीम की ज़बानें। मेरी ज़बान न चेहरे पर दाढ़ी बढ़ाती है और न पेशानी पर तिलक लगाती है।
उनके इस जवाब ने मुशायरे में सन्नाटा कर दिया। फिर तालियों की गड़गड़ाहट शुरू हो गई। लोगों को निदा की बात में सच्चाई नज़र आई। इस वाक़ये ने साबित किया कि निदा फ़ाज़ली सिर्फ़ शायर नहीं थे, बल्कि वो अपनी बात को बेबाकी से रखने वाले एक सच्चे इंसान थे, जिन्होंने उर्दू शायरी को आम आदमी से जोड़ा।
धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो
निदा फ़ाज़ली
ज़िंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो
बंबई का सफ़र और फ़िल्मी दुनिया से रिश्ता
तालीम पूरी करने के बाद निदा फ़ाज़ली ने कुछ दिनों तक दिल्ली और दूसरी जगहों पर नौकरी की तलाश में भटकते रहे। फिर 1964 में वे मुंबई चले गए। मुंबई में शुरुआती दिनों में उन्हें बहुत जद्दोजहद करना पड़ा। उन्होंने धर्मयुग और ब्लिट्ज़ जैसी मशहूर पत्रिकाओं और अख़बारों में काम किया। इसके साथ ही अदबी हलक़ों में भी उनकी पहचान बनती गई। उनकी पहली काव्य संग्रह “लफ़्ज़ों का पुल” की ज़्यादातर नज़्में, ग़ज़लें और गीत वे मुंबई आने से पहले ही लिख चुके थे। उनकी इस नई आवाज़ ने लोगों को अपनी तरफ़ खींचा। यह किताब 1971 में छपी और हाथों-हाथ ली गई। वे मुशायरों के भी लोकप्रिय शायर बन गए थे।
दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है
निदा फ़ाज़ली
मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है
फ़िल्मी दुनिया से उनका रिश्ता तब शुरू हुआ जब मशहूर फ़िल्मकार कमाल अमरोही ने अपनी फ़िल्म ‘रज़िया सुल्तान’ के लिए उनसे दो गीत लिखवाए। उसके बाद उन्हें गीतकार और संवाद लेखक के रूप में अलग-अलग फ़िल्मों में काम मिलने लगा और उनकी आर्थिक परेशानियां दूर हो गईं। हालांकि, वे फ़िल्मों में साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, गुलज़ार या अख़्तरुल ईमान जैसी बड़ी कामयाबी हासिल नहीं कर पाए, लेकिन एक शायर और गद्यकार के रूप में उन्होंने अदब पर अपनी गहरी छाप छोड़ी।
“लफ़्ज़ों का पुल” के बाद उनके कलाम के कई संग्रह आए, जैसे “मोर नाच”, “आंख और ख़्वाब के दरमियान”, “शहर तू मेरे साथ चल”, “ज़िंदगी की तरफ़”, “शहर में गांव” और “खोया हुआ सा कुछ”। उनके गद्य लेखन में दो जीवनीपरक उपन्यास “दीवारों के बीच” और “दीवारों के बाहर” के अलावा मशहूर शायरों के रेखाचित्रों का संग्रह “मुलाक़ातें” भी शामिल है।
फ़िल्मी दुनिया में एक अनोखा रिश्ता
निदा फ़ाज़ली फ़िल्मी दुनिया में भी एक अलग अंदाज़ के गीतकार के तौर पर जाने गए। उन्होंने कई यादगार गीत लिखे। उनकी फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत कमाल अमरोही की फ़िल्म ‘रज़िया सुल्तान’ से हुई, जिसके लिए उन्होंने दो गीत लिखे। एक और दिलचस्प क़िस्सा फ़िल्म ‘सरफ़रोश’ के मशहूर गीत “होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है” से जुड़ा है। ये गीत इतना मक़बूल हुआ कि आज भी लोगों की ज़बान पर है। कहा जाता है कि जब जॉन मैथ्यू मैथन (फ़िल्म के डायरेक्टर) निदा फ़ाज़ली के पास इस गीत की सिचुएशन लेकर गए, तो उन्हें कुछ ऐसा चाहिए था जो इश्क़ और जुनून को एक अलग अंदाज़ में बयां करे।
होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है
निदा फ़ाज़ली
इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कहीं ज़मीन कहीं आसमां नहीं मिलता
निदा फ़ाज़ली ने बड़ी सादगी से कहा, “मोहब्बत कोई हिसाब-किताब नहीं है, न ही कोई फ़ॉर्मूला। ये तो एक ऐसी कैफियत है जहां इंसान होश-ओ-हवास खो बैठता है।” उन्होंने तुरंत ही ये शेर कहा:
“होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है इश्क़ कीजिए फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है।” ये एक शेर उस पूरे गाने की रूह बन गया। उनकी यही सादगी और गहराई फ़िल्मी गीतों में भी नज़र आती थी, जिसने उन्हें भीड़ से अलग पहचान दी।
निदा की मां: “बेसिन की सोंधी रोटी”
निदा फ़ाज़ली की शायरी में उनकी मां का किरदार बहुत अहमियत रखता है। उन्होंने अपनी मां पर एक ऐसी नज़्म लिखी है जो हर सुनने वाले की आंखें नम कर देती है। उनकी मशहूर नज़्म में मां को याद करते हुए लिखते हैं:
बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां याद आती है चौका-बासन, चिमटा फुंकनी जैसी मां बांस की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे आधी सोई आधी जागी, थकी दुपहरी जैसी मां चिड़ियों के चहकार में गूंजे राधा-मोहन अली-अली मुर्गे की आवाज़ से खुलती, घर की कुंड़ी जैसी मां।
ये शेर सिर्फ़ चंद लफ़्ज़ नहीं हैं, बल्कि ये हर उस इंसान के बचपन की ख़ुशबू है जिसने अपनी मां को घर के कामों में मसरूफ़ देखा है। निदा फ़ाज़ली ने अपनी मां के साथ गुज़ारे उन सादा पलों को अपनी शायरी में ऐसे ढाल दिया कि वो हर दिल की आवाज़ बन गए। ये दिखाता है कि उनकी शायरी सिर्फ़ बड़े-बड़े फलसफों की बात नहीं करती थी, बल्कि ज़िंदगी की छोटी-छोटी, दिल छू लेने वाली हक़ीक़तों को भी बड़ी ख़ूबसूरती से पेश करती थी।
निदा फ़ाज़ली की शादी उनकी तंगदस्ती के दिनों में इशरत नाम की एक टीचर से हुई थी, लेकिन यह रिश्ता ज़्यादा नहीं चल पाया। बाद में मालती जोशी उनकी जीवनसंगिनी बनीं। उनकी अदबी ख़िदमात को मुल्क़ और अदबी हलक़ों में ख़ूब सराहा गया। उन्हें कई बड़े और इज़्ज़तदार पुरस्कार मिले:
साहित्य अकादमी अवार्ड (1998): उन्हें उनकी उर्दू शायरी के संग्रह “खोया हुआ सा कुछ” के लिए यह प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला।
पद्मश्री (2013): भारत सरकार ने उन्हें साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए भारत के चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘पद्मश्री’ से नवाज़ा।
स्क्रीन अवार्ड: फ़िल्म “सुर” के लिए उन्हें स्क्रीन अवार्ड भी मिला।
इसके अलावा, देश की अलग-अलग प्रादेशिक उर्दू अकादमियों ने भी उन्हें कई इनामों से नवाज़ा। उनकी शायरी का अनुवाद देश की अलग-अलग भाषाओं और विदेशी भाषाओं में भी किया गया है। 8 फ़रवरी 2016 को दिल का दौरा पड़ने से उनका इंतकाल हो गया।
कबीर का दर्शन और इंसानियत का पैग़ाम
निदा फ़ाज़ली की शायरी में कबीर के जीवन दर्शन के वो मूल्य साफ़ दिखते हैं जो मज़हब के आम फलसफे से कहीं ज़्यादा ऊंचे और बेहतर हैं। उनकी शायरी का निचोड़ इंसानियत के दर्द और हमदर्दी में है। निदा सारी दुनिया को एक कुनबे की तरह और सरहदों से आज़ाद एक विश्वव्यापी इकाई के तौर पर देखना चाहते थे। उनके नज़दीक सारी कायनात एक ख़ानदान है चांद, सितारे, दरख़्त, नदियां, परिंदे और इंसान, सब एक-दूसरे के रिश्तेदार हैं।
निदा फ़ाज़ली ने अपनी शायरी से एक ऐसी अमिट छाप छोड़ी है जो हमेशा ज़िंदा रहेगी। उन्होंने उर्दू शायरी को एक नया आयाम दिया और उसे आम लोगों के दिलों तक पहुंचाया। उनकी आवाज़ हमेशा इंसानियत, सादगी और मोहब्बत का पैग़ाम देती रहेगी।
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