जब भी उर्दू शायरी की रूहानी रिवायत और सुफ़ियाना तेवरों की बात होती है, तो जो नाम सबसे पहले ज़ेहन में आता है, वो है ख़्वाजा मीर दर्द। दिल्ली की सरज़मीं पर पैदा हुए इस अज़ीम शायर ने न सिर्फ़ ग़ज़ल को सुफ़ियाना रंग अता किया, बल्कि अपनी शायरी के ज़रिए ज़िंदगी, रुह और इश्क़ का ऐसा तसव्वुर पेश किया जो आज तक दिलों को सुकून देता है।
उर्दू अदब में ख़्वाजा मीर दर्द को सूफ़ियाना शायरी का ‘इमाम’ कहा गया है उनका तख़ल्लुस ही जैसे उनकी शायरी का मानी बन गया “दर्द”। लेकिन दर्द और तसव्वुफ़ के इस संगम को सिर्फ़ सूफ़ी शायरी की परिधि में सीमित करना, उनकी शायरी के साथ नाइंसाफ़ी होगी।
बेशक, उनके कलाम में तसव्वुफ़ के असर और सूफ़ियाना शऊर की शिद्दत मिलती है, लेकिन उनके अशआर महज़ ख़ुदा, इश्क़-ए-हक़ीकी या फ़ना-बाक़ा के इर्द-गिर्द नहीं घूमते बल्कि वो इंसानी एहसासात, सामाजिक हालात और शायरी की जदीद तलब को भी अपने अंदाज़ में बयां करते हैं।
ख़्वाजा मीर दर्द का असली नाम ख़्वाजा मीर मुईनुद्दीन हुसैन था। उनका जन्म 1720 में दिल्ली के एक मक़बूल और रूहानी घराने में हुआ। उनके वालिद ख़्वाजा नासिर अंदलीब एक नामवर सूफी शायर और नक़्शबंदी सिलसिले के पीर थे। मीर दर्द बचपन से ही इल्मी और रूहानी माहौल में पले-बढ़े। यही वजह थी कि उनमें कमसिनी से ही फ़लसफ़ा, तसव्वुफ़ और शायरी की समझ पैदा हो गई।
तसव्वुफ़ और शायरी का संगम
मीर दर्द के यहां शायरी महज़ ज़बान का खेल नहीं थी, बल्कि रूह की सदा थी। उन्होंने शायरी को इश्क़-ए-हक़ीक़ी और इंसानी रूह की तालीम का ज़रिया बनाया। उनकी ग़ज़लों में जहां एक तरफ़ रूहानियत का असर दिखाई देता है।
सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहां
ख़्वाजा मीर दर्द
ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहां
शायरी से लगाव कैसे हुआ?
मीर दर्द को शायरी से इश्क़ विरासत में मिला था। उनके वालिद ख़ुद एक शायर थे, और उनका घराना सूफ़ी रंग में रंगा हुआ था। लेकिन उन्होंने अपनी शायरी को फ़क़त दिल बहलाने या मुशायरे जीतने का ज़रिया नहीं बनाया। उनके लिए शायरी एक ज़िम्मेदारी थी एक सच्चाई को बयां करने का तरीक़ा।
हम तुझ से किस हवस की फ़लक जुस्तुजू करें
ख़्वाजा मीर दर्द
दिल ही नहीं रहा है जो कुछ आरज़ू करें
तो महफ़िल में बैठे मीर तकी मीर और सौदा जैसे उस्ताद शायर भी चौंक गए कि इस नौजवान की शायरी में कितनी सादगी, मगर कैसी गहराई है।
मुशायरों का सफ़र और समकालीन शायरों से मुलाक़ात
मीर दर्द ने दिल्ली के उस अदबी दौर में शायरी की जब उर्दू अदब का आसमान मीर, सौदा, सरहिंदवी, इंशा और रंगीन जैसे सितारों से रोशन था। मीर तक़ी मीर के साथ उनकी अदबी दोस्ती और हल्की सी रक़ाबत भी थी। दोनों के शायरी के अंदाज़ जुदा थे मीर की शायरी जहां मोहब्बत और ग़म की मूरत थी, वहीं दर्द की शायरी में इश्क़-ए-हक़ीकी और तसव्वुफ़ का रंग था।
‘दर्द’ कुछ मालूम है ये लोग सब
ख़्वाजा मीर दर्द
किस तरफ़ से आए थे कीधर चले
दिल्ली की शायरी की महफ़िलों में जब दर्द अपनी रूहानी ग़ज़लें सुनाते, तो समा बंध जाता। लोग उनके कलाम को सुनकर ग़म और सुकून के मेल से सराबोर हो जाते।
मक़बूलियत की बुलंदियां
मीर दर्द ने कभी शोहरत को हासिल करने की कोशिश नहीं की, लेकिन उनकी शायरी ने उन्हें अमर कर दिया। उनके कलाम की सादगी, लफ़्ज़ों का तहज़ीब याफ़्ता इस्तेमाल और सूफ़ी तसव्वुर ने उन्हें अदब की दुनिया में एक आला मक़ाम अता किया। उनकी ये पंक्तियां उनके मक़बूल रंग की मिसाल हैं:
ग़ाफ़िल ख़ुदा की याद पे मत भूल ज़ीनहार
ख़्वाजा मीर दर्द
अपने तईं भुला दे अगर तू भुला सके
ज़िंदगी के क़िस्से और रूहानी सफ़र
मीर दर्द ने अपने वालिद के बाद नक़्शबंदी सूफ़ी सिलसिले की ज़िम्मेदारी संभाली। उन्होंने अध्यात्म और अध्ययन को एक साथ साधा। कहा जाता है कि एक बार किसी अमीर ने उन्हें शाही शायर बनने का न्योता भेजा, मगर उन्होंने इंकार कर दिया। उनका जवाब था “जो कलम खुदा के ज़िक्र में उठी हो, उसे ताम-झाम के लिए झुकाना गुस्ताख़ी है।” उन्होंने अपनी ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा इबादत, तसव्वुफ़, ख़िदमत और शायरी में बिताया।
शायरी की ख़ासियत
मीर दर्द की शायरी की सबसे बड़ी ख़ूबी उसकी रूहानियत है। वो अशआर को सिर्फ़ ख़ूबसूरत जुमलों का खेल नहीं समझते थे, बल्कि उन्हें दिल और रूह की आवाज़ मानते थे। उनकी ग़ज़लों में अक्सर ‘दर्द’ का ज़िक्र आता है, जो उनके तख़ल्लुस के साथ-साथ उनके शायरी के असल मायने को भी बयां करता है।
अर्ज़-ओ-समा कहां तिरी वुसअ’त को पा सके
ख़्वाजा मीर दर्द
मेरा ही दिल है वो कि जहाँ तू समा सके
मीर तक़ी मीर ने कहा था — “दर्द की शायरी में जो अल्लाह से मुहब्बत का जज़्बा है, वो किसी और में नहीं।” जबकि सौदा ने उन्हें ‘रूहानी ग़ज़ल का इमाम’ कहा था। मीर दर्द की शायरी की रवानी और तहज़ीब ने आने वाली नस्लों को भी गहरे प्रभावित किया।
अदबी विरासत
मीर दर्द की शायरी का असर सिर्फ़ उनके दौर तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने उर्दू अदब को एक ऐसा रुख़ दिया जिसमें सादगी, सूफ़ियाना असर और ज़िंदगी की हकीक़तें एक साथ मौजूद थीं। उनकी ग़ज़लें आज भी पढ़ी जाती हैं, और कई सूफ़ी गायकों ने उनके कलाम को अपनी आवाज़ में सजाया है।
उनका दीवान आज भी उर्दू अदब का एक नायाब ख़ज़ाना माना जाता है। उन्होंने नज़्मों और मसनवियों में भी हाथ आज़माया, लेकिन उनका असल फ़न ग़ज़ल में ही निखर कर सामने आया।
1785 में जब मीर दर्द का इंतक़ाल हुआ, तो दिल्ली की अदबी और रूहानी फ़िज़ा में एक ख़ामोशी सी छा गई। मगर उनका कलाम आज भी ज़िंदा है, और हर उस दिल में धड़कता है जो सच्ची मोहब्बत और रूहानियत से वाबस्ता है। मीर दर्द एक ऐसा नाम है जो उर्दू शायरी में इश्क़ और रूह की आवाज़ बनकर हमेशा ज़िंदा रहेगा। उन्होंने दिखा दिया कि शायरी सिर्फ़ हुस्न की बात नहीं होती, बल्कि वो खुदा से मुहब्बत, समाज से सरोकार और इंसान की तलाश का सफ़र भी हो सकती है। उनका ये शेर जैसे उनके सफ़र का निचोड़ है:
मस्त-ए-शराब-ए-इश्क़ वो बे-ख़ुद है जिस को हश्र
ख़्वाजा मीर दर्द
ऐ ‘दर्द’ चाहे लाए ब-ख़ुद पर न ला सके
ख़्वाजा मीर दर्द, एक शायर नहीं — एक सूफ़ी, एक रूहानी रहबर और एक अदबी दुनिया के चमकते सितारे थे। उनकी शायरी आने वाली नस्लों को ज़िंदगी का हक़ीक़ी मतलब सिखाती रहेगी।
ये भी पढ़ें: मजरूह सुल्तानपुरी: शायरी का वो मस्तमौला मुसाफ़िर, जिसने कलम से किया इश्क़
आप हमें Facebook, Instagram, Twitter पर फ़ॉलो कर सकते हैं और हमारा YouTube चैनल भी सबस्क्राइब कर सकते हैं।