शकील बदायूंनी (Shakeel Badayuni), एक ऐसा नाम, जिनकी लिखी हुई शायरी और नग़मे आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं। वो नग़मे जो न सिर्फ़ सुनाई देते हैं, बल्कि महसूस भी होते हैं। हिंदी सिनेमा के सुनहरे दौर में अगर मोहब्बत को सबसे दिल से और ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ में किसी ने लिखा, तो वो थे शकील बदायूंनी। उनके अशआरों में इश्क़, रूहानियत और तहज़ीब का ऐसा संगम था, जिसने उन्हें उर्दू शायरी और फिल्म़ी गीतों की दुनिया में अमर बना दिया।
बदायूं की गलियों से मुंबई तक का सफ़र
शकील बदायूंनी (Shakeel Badayuni) की पैदाइश 3 अगस्त 1916 में उत्तर प्रदेश के बदायूं ज़िलें में हुई। मुंबई की फ़िल्मी दुनिया तक शकील साहब के सफ़र में बदायूं की परंपरा, विरासत और अदब की झलक नज़र आती है। उनके पिता मोहम्मद जमाल अहमद क़ादरी चाहते थे कि उनका बेटा बेहतर तैयार हो। इसके लिए उन्होंने घर पर ही अरबी, उर्दू, फ़ारसी और हिंदी के ट्यूशन की व्यवस्था की।
1936 में जब शकील साहब पढ़ाई के लिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पहुंचे, तब उन्होंने कॉलेज के मुशायरों में जमकर हिस्सा लिया। 1940 में उनका निकाह हुआ, हालांकि, ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद वो बतौर सप्लाई ऑफ़िसर दिल्ली पहुंच गए। नौकरी के साथ-साथ उनका मुशायरों में जाना जारी रहा और क़रीब साल 1944 में नौकरी छोड़ मुंबई आ गए।
मैं शकील दिल का हूं तर्जुमन कह मोहब्बतों का हूं राज़दान
मुझे फ़ख़्र है मेरी शायरी मेरी ज़िंदगी से जुदा नहीं
शकील बदायूंनी
जब 300 रूपये महीने में मिला पहला काम
कहा जाता है जब शकील बदायूंनी (Shakeel Badayuni) एक मुशायरे में शिरकत करने के लिए मायानगरी मुंबई गए, तो वहां उनकी मुलाक़ात मशहूर संगीतकार नौशाद अली से हुई। नौशाद अली ने उनकी मुलाकात फ़िल्म निर्माता अब्दुल रशीद करदार से करवाई। नौशाद साहब ने एक इंटरव्यू में कहा था- “ए.आर करदार साहब ‘दर्द’ फ़िल्म बना रहे थे। हम शकील साहब को लेकर आए और उनका तारूफ़ कराया और कहा आप (ए.आर कारदार) जो फ़िल्म बना रहे हैं उसमें शकील साहब गीत लिखेगे।”
साल 1947 में ‘दर्द’ फ़िल्म का गाना “हम दर्द का अफ़साना दुनिया को सुना देंगे” शकील साहब ने लिखा और करदार साहब को ये गाना बहुत पसंद आया। तब ए.आर कारदार ने कहा कि सभी गाने इनसे लिखवाइए। फिर 300 रूपये महीने पर शकील साहब को पहली नौकरी मिली। तब उनका परिवार बदायूं में रहता था, लेकिन शकील साहब नौशाद साहब के साथ रहते थे। करीब 20 साल से ज़्यादा वक़्त तक साथ में काम किया और कई बेहतरीन फ़िल्में दी। दोनों की जोड़ी फ़िल्मों की क़ामयाबी की मिसाल समझी जाती थी।
वो शायर जो कृष्ण को गा गया
शकील बदायूंनी (Shakeel Badayuni) के लिखे हुए भजनों में एक मासूमियत और आत्मा की पुकार थी। 1960 में आई फ़िल्म ‘कोहिनूर’ में “मधुबन में राधिका नाचे रे” गीत लिखा। 1960 में आई फ़िल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में उनका लिखा गीत ‘मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे” एक ख़ास गीत है, जिसे मधुबाला पर फ़िल्माया गया था। इसके अलावा, साल 1952 में ‘बैजू बावरा’ फ़िल्म में “मन तड़पत हरि दर्शन” भजन लिखा। 1962 में आई फ़िल्म ‘बीस साल बाद’ में “कहीं दीप जले कहीं दिल” गीत लिखा। 1964 में फ़िल्म ‘कैसे कहूं’ में “मनमोहन मन में हो तुम्हीं” और 1961 में फ़िल्म ‘घराना’ में “जय रघुनन्दन जय सियाराम” जैसे भजन लिखे, जो लोगों के दिलों में आज भी ज़िंदा हैं।
मेरा अज़्म इतना बुलंद है कि पराए शोलों का डर नहीं
मुझे ख़ौफ़ आतिश-ए-गुल से है,ये कहीं चमन को जला न दे।
शकील बदायूंनी
शकील बदायूंनी का गाना लता मंगेशकर के लिए कैसे बना ख़ास?
शकील साहब ने 1962 में आई फ़िल्म ‘बीस साल बाद’ में “कहीं दीप जले कहीं दिल” गीत लिखा। ये गीत लता मंगेशकर जी के ज़िदगी और करियर का एक बहुत ही ख़ास गाना बन गया था। एक समय ऐसा आया जब लता जी की आवाज़ कुछ समय के लिए चली गई थी। डॉक्टर ने उन्हें तीन महीने तक आराम करने को कहा था और यहां तक कहा कि शायद वो दोबारा कभी गा न सकें।
लेकिन जब लता जी ठीक हुई और उन्होंने दोबारा गाना शुरू किया, तो उनका पहला रिकॉर्डिंग गाना यही था। ये गाना सिर्फ़ एक गीत नहीं था, बल्कि उनकी वापसी की पहचान बना था और इसने साबित कर दिया कि वो फिर से उतनी ही सुंदर और असरदार आवाज़ में गा सकती हैं।
वो तीन गाने जिन्होंने फ़िल्मफेयर अवॉर्ड दिलाए
शकील साहब के गीतों में एक ख़ास बात थी- वो सादे थे, मगर असरदार। उन्होंने ज़िंदगी के हर रंग को अपने शब्दों में पिरोया। चाहे वो प्रेम हो, विरह हो, देशभक्ति हो या भक्ति, उन्होंने हर भाव को इतनी ख़ूबसूरती से कहा कि सुनने वाला ख़ुद को उसमें महसूस करने लगे।
1961 में फ़िल्म ‘चौदहवीं का चांद’ के लिए फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला।
1962 में फ़िल्म ‘घराना’ के गीत “हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं” के लिए फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला।
1963 में फ़िल्म ‘बीस साल बाद’ के “कहीं दीप जले” गाने के लिए फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ गीतकार पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यूँ आज तिरे नाम पे रोना आया
शकील बदायूंनी
आख़िरी साल और विरासत
नौशाद साहब ने एक इंटरव्यू में बताया था कि जिस वक़्त शकील बदायूंनी (Shakeel Badayuni) बीमार हुए उस दौरान ‘राम और श्याम’ फ़िल्म बन रही थी तो शकील साहब को डॉक्टर ने महाबलेश्वर में रहने की सलाह दी, जिससे उनकी आबोहवा बदले। उस दौरान नौशाद साहब ‘राम और श्याम’ फ़िल्म के प्रोड्यूसर से मिलने के लिए गए और उन्हें कहा कि इस फ़िल्म के गाने शकील साहब लिखेंगे।
वहां मौजूद सभी लोगों ने कहा कि वो बीमार हैं, तब नौशाद साहब ने कहा कि गीत तो वही लिखेंगे। फिर वो शकील बदायूंनी से मिलने महाबलेश्वर पहुंचे और दस हज़ार रूपये का एडवांस चेक उनके तकीए के नीचे रख दिया। इस पर शकील बदायूंनी (Shakeel Badayuni) बोले- “ये क्या कर रहे हो?” नौशाद ने जवाब दिया- “आप गाने लिखेंगे, ये उसका एडवांस है।” फिर शकील साहब ने पूछा- “क्या मैं लिख सकूंगा?” नौशाद बोले- “आप बिल्कुल लिख सकेंगे।”
बदायूं के इस नौजवान ने गलियों से निकलकर उर्दू अदब और हिन्दी सिनेमा को ऐसी दौलत दी, जिसे वक़्त भी नहीं मिटा सका। आज वो हमारे साथ एक एहसास की तरह हैं, जो हर बार किसी गाने की एक मीठी पंक्ति में लौट आता है।
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