02-Jun-2025
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जां-निसार अख़्तर: अहसास, इंक़लाब और मोहब्बत का मुसव्विर

ऐसा ही एक अज़ीम नाम सय्यद जां-निसार हुसैन रिज़्वी, जिन्हें दुनिया जां-निसार अख़्तर के नाम से जानती है. वो महज़ एक शायर नहीं थे, बल्कि एक ऐसे फ़नकार थे जिन्होंने इश्क़ की रिवायती हदें तोड़कर शायरी को ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़तों से वाक़िफ़ कराया।

शायरी की महफ़िल में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो सदियों तक अपनी ख़ुशबू बिखेरते रहते हैं। ऐसा ही एक अज़ीम नाम है सय्यद जां-निसार हुसैन रिज़्वी, जिन्हें दुनिया जां-निसार अख़्तर के नाम से जानती है. वो महज़ एक शायर नहीं थे, बल्कि एक ऐसे फ़नकार थे जिन्होंने इश्क़ की रिवायती हदें तोड़कर शायरी को ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़तों से वाक़िफ़ कराया।उनकी शाइरी में रूमानी जज़्बात की शिद्दत भी थी और इंक़लाबी अनासिर की गूंज भी।

जां-निसार अख़्तर की पैदाइश 18 फ़रवरी 1914 को ग्वालियर में हुई। शायरी उन्हें विरासत में मिली थी। उनके वालिद, अज़ीम क्लासिकी शायर ‘मुज़्तर’ ख़ैराबादी थे और दादा मौलाना फ़ज़ले हक़ ख़ैराबादी भी आला दर्जे के शायर थे। घर का माहौल ही ऐसा था कि शेरो-शायरी रग-रग में बस गई। ये कहना बेजा न होगा कि वो एक ऐसे घराने से ताल्लुक़ रखते थे जहां अलफ़ाज़ और एहसासात की परवरिश होती थी।

ये इल्म का सौदा ये रिसाले ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं

जां-निसार अख़्तर

अलीगढ़ का अदबी दौर और तरक़्क़ीपसंद तहरीक़

तालीम के लिए जां-निसार अख़्तर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) पहुंचे। ये वो ज़माना था जब AMU अदबी सरगर्मियों का मरकज़ थी। वहां उन्हें अली सरदार जाफ़री, ख़्वाजा अहमद अब्बास, मजाज़, सिब्ते हसन, मंटो, मुईन अहसन जज़्बी, अख़्तर उल ईमान, हयातउल्ला अंसारी और इस्मत चुग़ताई जैसे अदबी सितारे मिले। इस अदबी माहौल ने उन पर गहरा असर डाला और वो अपने तमाम साथियों की तरह मार्क्सवादी ख़्याल के हामी हो गए। 1935-36 में उर्दू में गोल्ड मेडल के साथ एम.ए. की डिग्री हासिल करने के बाद उनकी शायरी में एक नया रंग चढ़ गया। उनकी ग़ज़लों और नज़्मों में अब एहतिजाज और बग़ावत के सुर सुनाई देने लगे। ‘मुवर्रिख से’, ‘दाना-ए-राज’, ‘पांच तस्वीरें’ और ‘रियासत’ जैसी उनकी तवील नज़्में उनके फ़लसफ़ाना मौज़ूआत की गवाह हैं।

लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फ़ा है मुझ से
तेरी आँखों ने तो कुछ और कहा है मुझ से

जां-निसार अख़्तर

ग्वालियर, भोपाल और फिर मुंबई की राह

AMU से निकलने के बाद उन्होंने ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज और फिर भोपाल के सैफ़िया कॉलेज में उर्दू के प्रोफ़ेसर के तौर पर कुछ साल पढ़ाया। मगर उनका मिज़ाज नौकरी के लिए नहीं बना था। 1952 में उन्होंने नौकरी और भोपाल दोनों छोड़ दिए और उनका नया ठिकाना था मुंबई। ये शहर सिनेमा और अदब के माहिरों से आबाद था, जहां कृश्न चंदर, इस्मत चुगताई, ख़्वाजा अहमद अब्बास, मुल्कराज आनंद, साहिर लुधियानवी, सरदार जाफ़री, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, अख़्तर उल ईमान जैसे दिग्गज पहले से ही अपना परचम बुलंद किए हुए थे। साहिर लुधियानवी से उनकी गहरी दोस्ती थी और मुंबई में ज़्यादातर वक़्त उन्होंने साहिर के साथ ही गुज़ारा।

दिल्ली कहां गईं तिरे कूचों की रौनक़ें
गलियों से सर झुका के गुज़रने लगा हूं मैं

जां-निसार अख़्तर

फ़िल्मी दुनिया में धूम

जां-निसार अख़्तर ने फ़िल्मी दुनिया में भी अपनी एक ख़ास पहचान बनाई. 1955 में फ़िल्म ‘यासमीन’ के लिए लिखे उनके गीत ‘बेचैन नज़र बेताब जिगर’, ‘मुझ पे इल्ज़ाम-ए-बेवफ़ाई है’ और ‘आंखों में समा जाओ’ से उनके फ़िल्मी करियर का आग़ाज़ हुआ। ये गीत इतने कामयाब हुए कि उन्हें ओ.पी. नैयर के संगीत निर्देशन में फ़िल्म ‘बाप रे बाप’ के लिए गीत लिखने का मौक़ा मिला, जिसका गीत ‘पिया पिया मेरा जिया पुकारे’ सुपरहिट हुआ। इसके बाद जां-निसार अख़्तर और ओ.पी. नैयर की जोड़ी ने कई कामयाब फ़िल्मों में काम किया, जिनमें ‘नया अंदाज़’, ‘उस्ताद’, ‘छूमंतर’, ‘रागिनी’ और ‘सीआईडी’ शामिल हैं। ‘सीआईडी’ के ‘ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां..’ और ‘आंखों ही आंखों में इशारा हो गया..’ जैसे गाने आज भी लोगों की ज़बान पर हैं. उन्होंने ‘अनारकली’, ‘सुशीला’, ‘रुस्तम सोहराब’, ‘प्रेम पर्वत’, ‘त्रिशूल’, ‘रज़िया सुल्तान’, ‘नूरी’ जैसी क़रीब 80 फ़िल्मों के लिए गीत लिखे। ख़य्याम के संगीत में उनके लिखे ‘आप यूं फ़ासलों से गुज़रते रहे…’, ‘ये दिल और उनकी निगाहों के साये..’, ‘ऐ दिले नादां …’ जैसे सदाबहार नग़मे उनकी उम्दा शायरी का सबूत हैं. फ़िल्म ‘नूरी’ के गीत के लिए उन्हें फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड से नवाज़ा गया।

हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए

जां-निसार अख़्तर

शायरी का नया अंदाज़

जां-निसार अख़्तर ने शायरी को रिवायती रूमानी दायरों से बाहर निकालकर, ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़तों से जोड़ा। उनकी शाइरी में इंक़लाबी अनासिर तो थे ही, सरमायेदारी की भी मुख़ालिफ़त थी. उनका मानना था।

“मैं उनके गीत गाता हूं, जो शाने पर बग़ावत का अलम लेकर निकलते हैं, किसी ज़ालिम हुकूमत के धड़कते दिल पे चलते हैं.”

जां-निसार अख़्तर

क़ौमी यकजहती का उनका तसव्वुर उनकी इस नज़्म में झलकता है:

“एक है अपना जहां, एक है अपना वतन, अपने सभी सुख एक हैं, अपने सभी ग़म एक हैं, आवाज़ दो हम एक हैं, ये है हिमालय की ज़मीं, ताजो-अजंता की ज़मीं.”

जां-निसार अख़्तर

उनकी शाइरी में कभी रूमानी लहजा मिलता है, कभी फ़लसफ़ियाना सोच तो कभी बग़ावत का परचम।

“अशआर मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं, कुछ शेर फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं.” और “जब ज़ख़्म लगे तो क़ातिल को दुआ दी जाए, है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए.”

जां-निसार अख़्तर

शख़्सियत और ज़िंदगी का फ़लसफ़ा

जां-निसार अख़्तर एक बोहेमियन शख़्सियत के मालिक थे, हर क़िस्म की रूढ़ियों और रसूमात से आज़ाद। वो सही मायने में तरक़्क़ीपसंद और आज़ादख़्याल थे। उनके अज़ीज़ दोस्त जोय अंसारी ने उनकी दिलकश शख़्सियत का ख़ाका खींचते हुए कहा था कि वो मुशायरों में एक तरफ़दार नौजवान नज़र आते थे, बेदाग़ शेरवानी, बेतक़ल्लुफ़ ज़ुल्फ़ें और दिलकश चेहरा लिए हुए। वो बहुत ही मिलनसार, महफ़िलबाज़ और ख़ुशमिज़ाज इंसान थे।

उनकी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा उनकी शरीक-ए-हयात सफ़िया अख़्तर के नाम रहा। सफ़िया की बेवक़्त मौत ने उन पर गहरा असर डाला। उनकी दिल को झंझोड़ देने वाली नज़्में ‘ख़ामोश आवाज़’ और ‘ख़ाके-दिल’ सफिया की मौत के बाद ही लिखी गईं। ‘ख़ाके-दिल’ में उनकी ज़ुदा अंदाज़ देखिए:

“आहट मेरे क़दमों की सुन पाई है, इक बिजली सी तनबन में लहराई है। दौड़ी है हरेक बात की, सुध बिसरा के रोटी जलती तवे पर छोड़ आई है। डाली की तरह चाल लचक उठती है, ख़ुशबू हर इक सांस छलक उठती है। जूड़े में जो वो फूल लगा देते हैं, अन्दर से मेरी रूह महक उठती है। हर एक घड़ी शाक गुज़रती होगी, सौ तरह के वहम करके मरती होगी। घर जाने की जल्दी तो नहीं मुझको मगर… वो चाय पर इंतज़ार करती होगी.”

जावेद अख़्तर ने अपने वालिद को याद करते हुए एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्होंने हमेशा यही सीख दी कि मुश्किल ज़बान को लिखना आसान है, मगर आसान ज़बान कहना मुश्किल है

अहम किताबें और अवार्ड्स

जां-निसार अख़्तर ने ढेर सारा अदबी सरमाया छोड़ा है। नेहरू के कहने पर उन्होंने ‘हिंदुस्तान हमारा’ नाम से दो वॉल्यूम में एक किताब लिखी, जो तीन सौ सालों की हिंदुस्तानी शायरी का अनमोल ख़ज़ाना है। इसमें वतनपरस्ती, क़ौमी यकजहती, मुल्क की क़ुदरत, रिवायत और अज़ीम माज़ी को उजागर करने वाली ग़ज़लें और नज़्में शामिल हैं।

उनकी कुछ अहम किताबें हैं: ‘ख़ाके-दिल’, ‘ख़ामोश आवाज़’, ‘तनहा सफ़र की रात’, ‘जां निसार अख़्तर-एक जवान मौत’, ‘नज़र-ए-बुतां’, ‘सलासिल’, ‘तार-ए-गरेबां’, ‘पिछले पहर’, ‘घर-आंगन’ (रुबाइयां). ‘आवाज़ दो हम एक हैं’ उनकी चुनिंदा रचनाओं का संकलन है।

उन्हें 1976 में ‘ख़ाके-दिल’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया। इसके अलावा उन्हें महाराष्ट्र अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार भी मिले।

जां-निसार अख़्तर का इंतक़ाल 19 अगस्त 1976 को हुआ. वो मानते थे कि “आदमी जिस्म से नहीं, दिल-ओ-दिमाग़ से बूढ़ा होता है.” ये बात उन पर आख़िरी दम तक लागू रही. उन्होंने कभी बुढ़ापे को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया और ज़िंदगी के आख़िरी वक़्त तक महफ़िलों और मुशायरों में ख़ुद को मशगूल रखा।

“फ़िक्रो फ़न की सजी है नयी अंजुमन, हम भी बैठे हैं कुछ नौजवानों के बीच.”

जां-निसार अख़्तर

जां-निसार अख़्तर एक ऐसे शायर थे जिनकी शायरी आज भी हमारे दिलों में ज़िंदा है और हमें इश्क़, इंक़लाब और इंसानियत का पैग़ाम देती है।

ये भी पढ़ें: ख़्वाजा मीर दर्द: सूफ़ियाना शायरी के ‘इमाम’ और रूहानी ग़ज़ल के बेताज बादशाह


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