दिल्ली में परेड ग्राउंड में एक जलसा चल रहा था। एक मंत्री बार बार चीख-चीखकर मुसलमानों पर सवाल पे सवाल दाग रहे थे। कह रहे थे, मुसलमानों को देश के प्रति अपनी वफादारी साबित करनी होगी। हैदराबाद और कश्मीर पर उन्हें खुलकर बोलना होगा, अपना पक्ष तय करना होगा। दो नावों में से एक पर आना होगा और ऐसी ही तमाम बातें। इस भाषण से माहौल में चारों तरफ आक्रोश और द्वेष की ताप उमड़ चुकी थी। मंत्री के भाषण खत्म करते ही एक औरत को मंच पर बुलाया गया। माइक पकड़ उन्होंने जब बोलना शुरू किया तो वे आंखे शर्म से झुक गईं जो अबतक द्वेष में तप रही थीं।
मंच पर आई औरत ने कहा, कई जलसों में शरीक हो चुकी हूं। आजकल यह आम हो गया है कि कोई भी मुंह उठाकर मुसलमानों से वफादारी की मांग करता है। सबको मुसलमानों की ही फिक्र रह गई है। हालांकि उनसे वफादारी की मांग केवल वही कर सकता है, जो खुद खरा हो। बापू खरे थे। वे कह सकते थे। जवाहरलाल जी या उनके दूसरे राष्ट्रवादी साथी सवाल कर सकते हैं, मगर वे क्या रास्ता दिखाएंगे जो खुद खोटे हों? अपने गिरहबान में देखती हूं तो मैं किसी को नहीं पाती हूं, जिसे दुनिया को दिखाया जा सके।’
उनके इतना बोलते ही तमाम बेजा सवाल मुंह के बल गिर पड़े।
तमतमाई औरत ने आगे कहा, ‘भारत का जितना नुकसान कुछ मुसलमानों की बेवफाई से हुआ है, उतना ही वफादारों की नावफादारी से भी हुआ है। जिन्होंने पाकिस्तान बनवाया था, वे जा चुके हैं। अब जो बाकी हैं, वे ऐसे लोग हैं, जो पाकिस्तान के घोर विरोधी थे। इस देश के साथ खड़ा होना ही तो देशप्रेम है।’
यह सुनकर जलसे में एक पल के लिए तो खामोशी तैर गई पर अगले ही पल पूरा प्रांगण तालियों से गूंज उठा। ये तलियां जंग ए आज़ादी की कद्दावर नेता बेगम अनीस किदवई के लिए बजाई जा रही थीं। अनीस किदवई जिन्होंने भारत के बंटवारे का घनघोर विरोध किया था। अनीस किदवई जिन्होंने घर-घर जाकर मुसलमानों को मानने की कोशिश की कि वो पाकिस्तान का समर्थन न करें।
![Anis Kidwai](https://dnn24.com/wp-content/uploads/2023/02/Untitled-design-6-1024x683.jpg)
बेगम अनीस किदवई की पैदाइश सन् 1906 मे बाराबंकी (उत्तरप्रदेश) में हुई थी। उनके वालिद का नाम शेख विलायत अली था। अनीस बेगम किदवई की शादी शफ़ी अहमद किदवई के साथ हुई थी। अनीस के वालदेन और सौहर जंग ए आज़ादी के मुजाहेदीन थे। सौहार अहमद किदवई मसूरी के ऑफिस में काम करते थे और अनीस अपने परिवार संग लखनऊ में रहा करती थीं।
सन् 1946 के आखिरी दिनों में जब मुल्क के बंटवारे की बात चली तो बेगम अनीस किदवई और शौहर ने मुल्क के बंटवारे की पुरज़ोर मुखालिफत की। अनीस बेगम घर-घर जाकर लोगों को समझाती कि यह फैसला मुसलमानों के हक में नहीं है। इसी दौरान सन् 1947 के शुरू में ही हिन्दू-मुस्लिम फ़साद भी शुरू हो गयी।
![Communal riots in Calcutta](https://dnn24.com/wp-content/uploads/2023/02/Untitled-design-7-1024x683.jpg)
अपनी लिखी किताब आज़ादी की छाँव में बेगम अनीस किदवई ने एक किस्से का जिक्र किया है, जो भारत के आज़ादी के बाद के देश के बदलते हालात का मंज़र दिखाती हैं।
“मेरी आदत थी कि सुबह सवेरे नमाज़ के बाद ला मार्टिनेयर रोड के साथ-साथ मील-दो मील का चक्कर लगाया करती थी। मैं हमेशा अकेली जाती थी, भला इतने सवेरे कोई क्यों मेरा साथ देती ? फिर न कोई डर था न खौफ। लेकिन सितंबर शुरू होते ही फ़ज़ा बोझिल होनी शुरू हो गई। चार-चार, पांच-पांच आदमी इकट्ठे पंजाब और हिंदुस्तान की सियासत पर बहस करते हुए पास से गुज़र जाते। उनमें वकील, प्रोफेसर, किसान, विद्यार्थी सभी होते थे। कभी-कभार गरमा-गरम बहस होती और कभी-कभी उस पर दुख का इज़हार करने वाले भी मिलते। हालात की यह तब्दीली क्षितिज के धूल से भरे होने का पता दे रही थी।“
![Azadi Kee Chhaon Mein : Begum Anees Kidwai](https://dnn24.com/wp-content/uploads/2023/02/Untitled-design-8-1024x683.jpg)
हालांकि शहर में बनी अमन कमेंटीयों ने अपनी कोशिशों से शहर में फ़साद होने नहीं दिया और लखनऊ का अमन कायम रहा। लेकिन मसूरी के हाल उस वक्त बिल्कुल विपरीत थें।
मसूरी में जब सांप्रदायिक हिंसा फैल गई तो बेगम अनीस किदवई अपने सौहार से घर वापस आने की गुहार लगाने लगीं, कहतीं कि लौट आइए, ये दंगे हमें कमजोर कर देंगे। पर अहमद का मानना था की वो अपनी कोशिश से यहाँ के हालत में बेहतरी ला सकते हैं। अनीस के एक खत के जवाब में अहमद ने लिखा, जिंदगी कैसी भी हो, उससे वह मौत कहीं अधिक खूबसूरत होगी, जब हम दो दिलों को जोड़ते हुए शहीद होंगे। वह सोचतीं कि यह कैसा शख्स है जो दंगों में अमन के लिए खुद को खत्म कर रहा है? आखिरी खत मिलने के हफ्ते भर के अंदर टुकड़ों में बंटी शौहर की लाश आई तो वह चीख उठीं। पर शौहर को खोने का गम उन पर हावी नहीं हुआ। शौहर के लफ्जों का यह सच उनके अंदर उतरता गया कि दो दिलों को जोड़ने की कोशिश के दौरान हासिल हुई मौत जिंदगी से ज्यादा होती है। शौहर की शहादत के पीछे काम कर रहे जज्बे ने उन्हें बैठनें नहीं दिया। वह उठीं और सैकड़ों किलोमीटर दूर दिल्ली में महात्मा गांधी के पास पहुंच गईं। दिल्ली कांग्रेस के दफ्तर में दोनों की मुलाकात हुई।
![Delhi Refugee Camp](https://dnn24.com/wp-content/uploads/2023/02/Untitled-design-9-1024x683.jpg)
महात्मा गांधी ने बेगम अनीस किदवई के दुख को महसूस किया। गांधी भर्राई भारी आवाज में बोले, ‘अनीस, तुम्हारा दर्द इतना भारी है कि इसकी कल्पना ही मुश्किल है। लेकिन तुम अनीस हो। तुम उन कैंपों में जाओ, जहां ऐसे ही मायूस दिलों की भीड़ लगी हुई है। जाओ और उन्हें दिलासा दो।’ तमाम गमों की मारी अनीस महात्मा की सलाह पर विभाजन के मारे लोगों के दुखों पर मरहम लगाने लगीं। उनके कदमों से शरणार्थी कैंप गुलजार हो जाते। वे रोने वालों को गले लगातीं। अनगिनत अपहरण की जा चुकी लड़कियों को दूर-दूर से खोजकर लातीं और परिवार से मिलवातीं। खोजी हुई लड़कियों को जब उनके ही सगो ने लेने से इनकार किया,तो अनीस ने उनकी देखभाल की, उन्हें पाला। इस नेक काम में उनके कंधे से कंधा मिलकर चलती थी उनकी दोस्त सुभद्रा जोशी। इन दिनों लोग इन्हे अनीस आपा के नाम से पुकारते थे।
![Begum Anees Kidwai](https://dnn24.com/wp-content/uploads/2023/02/Untitled-design-10-1024x683.jpg)
आज़ादी के बाद सन् 1957 में और 1968 में वह राज्यसभा के लिए चुनी गयीं। बेगम अनीस किदवई ने कई किताबें भी लिखीं जो देश के बंटवारे के दर्द को उजागर करती हैं। इन किताबों के लिए साहित्य कला परिषद् (दिल्ली) ने अनीस को सम्मानित भी किया। साल 1982 में राजनीतिक, साहित्यिक और समाजसेवी तीनों खूबियों की चादर ओढ़े अनीस बेगम का इंतकाल 16 जुलाई को हुआ।
बेगम अनीस किदवई ने दिन रात बिना फर्क किये काम किया| सवालों और बदले की आग पर ठंडा पानी डालकर सेवा की, लोगों को भड़काने की जगह बनाने पर ज़ोर दिया। रोने की जगह उठ खड़े होने की बातें की। इन सब के बावजूद बंटवारे के बाद उस ओर से आए लोगों की बेगम अनीस ने जो सेवा की, उसका अहसान देश पर हमेशा रहेगा।
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