उन्नीसवीं शताब्दी के उस दौर में लखनऊ के नवाबों की रसोइयों में पाककला अपने चरम पर पहुँच चुकी थी जिसका विस्तृत वर्णन मौलाना अब्दुल हलीम शरर की किताब ‘गुज़िश्ता लखनऊ’ में पाया जाता है। क़िस्सा है कि लखनऊ के नज़दीक की एक रियासत के ऐसे ही एक शौक़ीन नवाब सैयद मोहम्मद हैदर काज़मी ने अंग्रेज़ लाटसाहब को खाने पर बुलाया।
मेहमान ने दावत का खूब आनंद लिया और सभी व्यंजनों पर आज़माइश कर उनकी तारीफ़ की। बस कबाबों में नुक्स निकाल दिए- मसलन वे ज़्यादा मुलायम नहीं थे और उन्हें चबाने में थोड़ी मशक्कत करनी पड़ रही थी। हल्के-फुल्के में कही गई इस बात को नवाब काज़मी ने दिल पर ले लिया और अगले दिन ही अपने खानसामों से कबाबों की गुणवत्ता सुधारने को कहा। खानसामों ने तमाम तरह के प्रयोग किये। एक प्रयोग के तौर पर उन्होंने मांस को कोमल बनाने के लिए कच्चे मलीहाबादी आमों के गूदे का इस्तेमाल किया। ऐसा करने के बाद जो कबाब बने वे बेमिसाल निकले और उन्हें नवाब काज़मी की रियासत के नाम पर काकोरी कबाब कहा गया।

लखनऊ से कुल चौदह किलोमीटर दूर काकोरी को उसके कबाबों ने तो शोहरत दिलाई ही, हमारी आज़ादी की लड़ाई के इतिहास में भी उसे जगह मिली जब 9 अगस्त 1925 को इसी जगह कुछ क्रांतिकारियों ने शाहजहांपुर से लखनऊ जा रही रेलगाड़ी रोककर उसमें से सरकारी खज़ाना लूट लिया। इस घटना को अंजाम देने वाले दल के मुखिया थे रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ और अशफाक़उल्ला खान। आज भी काकोरी का नाम आता है तो सबसे पहले हमारे मन में फांसी पर झूल गए भारत माता के ये दो सपूत याद आते हैं।

धार्मिक-साम्प्रदायिक समता और सौहार्द इस काकोरी की रग-रग में बसता था। इसकी प्रतिनिधि बानगी 1826 में यहाँ जन्मे एक मशहूर शायर की कविता में देखने को मिलती है। हिन्दू धर्म की छवियों को अपनी अद्वितीय शायरी में पिरोने वाले मोहसिन काकोरवी का एक शेर यूं है-
देखिए होगा श्री–कृष्ण का दर्शन क्यूँ–कर
सीना–ए–तंग में दिल गोपियों का है बेकल
पेशे से वकील मोहसिन साहब ने रोजी के सिलसिले में आगरा और मैनपुरी जैसी जगहों पर ज़िन्दगी बिताई। शुरू में ग़ज़ल कहते थे लेकिन बाद के सालों में नातें लिखने लगे। पैगंबर मोहम्मद साहब की तारीफ़ में लिखा जाने वाला काव्य नात कहलाता था।
काकोरी उस ज़माने में उर्दू अदब और सूफ़ीवाद का बड़ा गहवारा माना जाता था। यहीं रहते हुए मोहम्मद मोहसिन उर्फ़ मोहसिन काकोरवी ने अपने पिता और मौलवी अब्दुल रहीम से शायरी और वहां के सूफ़ी कलंदरों से धार्मिक समभाव के शुरुआती सबक सीखे।
इस तालीम का गहरा असर उनकी कितनी ही रचनाओं में देखने को मिलता है। नात शैली में लिखे गए उनके एक लम्बे क़सीदे को ख़ास तौर पर बड़ी शोहरत हासिल हुई। इस कविता में एक बादल के सफ़र का वर्णन है जो काशी से निकलता है और मथुरा की तरफ जा पहुंचता है। दो पंक्तियों में यही बादल काबा भी पहुँच जाता है। मोहसिन कल्पना करते हैं कि प्रातःकाल की समीर इन बादलों से पैदा होने वाली बिजली के कन्धों पर गंगाजल लेकर आती है।

जो गंगा-जमुनी तहजीब हमारी गौरवशाली साझी परम्परा का अन्तरंग हिस्सा रही है, काकोरी के एक शायर के यहाँ तीर्थयात्रा पर निकले एक बादल के बहाने वह कैसे निखर कर झिलमिलाने लगती है –
सम्त-ए-काशी से गया जानिब-ए-मथुरा बादल
तैरता है कभी गंगा कभी जमुना बादल
ख़ूब छाया है सर-ए-गोकुल-ओ-मथुरा बादल
रंग में आज कन्हैया के है डूबा बादल
यह सच है कि काकोरी में नवाब सैयद मोहम्मद हैदर काज़मी की ज़िद से परम स्वादिष्ट काकोरी कबाब ईजाद हुए और काकोरी में ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक गौरवशाली पन्ना काकोरी भी लिखा गया। एक सच यह भी है कि कालिदास के बाद दूसरा ‘मेघदूत’ भी इसी काकोरी में लिखा गया।
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अशोक पांडे चर्चित कवि, चित्रकार और अनुवादक हैं। पिछले साल प्रकाशित उनका उपन्यास ‘लपूझन्ना’ काफ़ी सुर्ख़ियों में है। पहला कविता संग्रह ‘देखता हूं सपने’ 1992 में प्रकाशित। जितनी मिट्टी उतना सोना, तारीख़ में औरत, बब्बन कार्बोनेट अन्य बहुचर्चित किताबें। कबाड़खाना नाम से ब्लॉग kabaadkhaana.blogspot.com। अभी हल्द्वानी, उत्तराखंड में निवास।
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