उर्दू शायरी की महफ़िल सजी हो और मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ां ‘ग़ालिब’ का ज़िक्र न हो, ये तो ऐसी बात है जैसे चांदनी रात में सितारों की चमक न हो। ग़ालिब, वो नाम है जो शायरी की दुनिया में एक रोशन सितारे की तरह हमेशा जगमगाता रहेगा। उनकी शायरी, सिर्फ़ कुछ लफ़्ज़ों का जोड़ नहीं, बल्कि एहसासात, जज़्बात और गहरी सोच का एक ऐसा ख़ज़ाना है, जिसे जितना खोलो, उतनी ही नई दुनियाएं नज़र आती हैं।
ग़ालिब की ज़िन्दगी: तंगहाली, तक़लीफ़ और तज़ुर्बा
ग़ालिब की ज़िन्दगी सिर्फ़ शेर-ओ-शायरी नहीं, बल्कि जद्दोजहद और परेशानियों का दास्तान भी थी। उनका असली नाम मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ान ग़ालिब था, और वो 1797 में आगरा में पैदा हुए। बचपन में ही वालिद का साया उठ गया और तालीम अधूरी रह गई। छोटी उम्र में शादी हो गई लेकिन ज़िन्दगी की तल्ख़ हक़ीक़तें उनका पीछा न छोड़ सकीं।

वो अक्सर कर्ज़ में डूबे रहते थे, और मुफ़लिसी की हालत में भी इज़्ज़त-ए-नफ़्स से समझौता नहीं किया। उन्होंने खुद एक जगह लिखा:
“कर्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां,
रंग लाएगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन।”
उनकी ज़िन्दगी का हर तजुर्बा उनकी शायरी में किसी न किसी अंदाज़ से झलकता है, चाहे वो हंसी हो या हसरत, दर्द हो या दार्शनिकता।
अंदाज़-ए-बयां ऐसा कि जैसे दिल बोल रहा हो
ग़ालिब की सबसे बड़ी पहचान है उनका अंदाज़-ए-बयां यानी बातें कहने का तरीक़ा। वो आम बातों को भी कुछ इस तरह पेश करते थे कि सुनने वाला सोच में डूब जाए। उदाहरण के तौर पर उनका ये मशहूर शेर देखिए:
“हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमां, लेकिन फिर भी कम निकले।”
इसमें न कोई भारी भरकम लफ़्ज़ हैं, न कोई मुश्किल तशबीह, लेकिन जो बात कही गई है, वो दिल को छू जाती है। यही ग़ालिब की ताक़त थी आसान को भी गहरा और गहरे को भी आसान बना देना।
मीर की सादगी और ग़ालिब की गहराई
ग़ालिब से पहले मीर तकी मीर जैसे शायरों की शायरी दिल के सीधे एहसासात पर आधारित होती थी। मीर का दर्द बेमिसाल था, उनकी शायरी रूह को छू लेती थी। जैसे मीर ने कहा:
“इब्तिदा-ए-इश्क़ है, रोता है क्या,
आगे-आगे देखिए होता है क्या।”
लेकिन ग़ालिब ने शायरी को एक नई सोच, एक नई परवाज़ दी। उन्होंने दर्द को सिर्फ़ बयां नहीं किया, बल्कि उस पर सोचने, उसे समझने और उससे सीखने का नज़रिया दिया। वो दिल के साथ-साथ दिमाग़ को भी शायरी में शामिल करते थे।
दर्द से नहीं, सोच से निकली शायरी
ग़ालिब की शायरी महज़ रूमानी नहीं, उसमें एक गहरी फ़लसफ़ियाना सोच होती थी। उन्होंने इश्क़ को भी तजुर्बे की तरह समझा। दर्द को सिर्फ़ दर्द नहीं, एक मुकम्मल एहसास माना। जिसमें सुकून भी है, सबक भी है और सच्चाई भी। उन्होंने कहा:
“इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है ये वो आतिश ग़ालिब
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने।”
इस शेर में इश्क़ की वो सच्चाई है जिसे हर शख़्स अपने अंदाज़ में महसूस करता है।

फ़ारसी और उर्दू: दो ज़बानों का फ़नकार
ग़ालिब की एक ख़ासियत ये भी थी कि वो सिर्फ़ उर्दू में नहीं, बल्के फ़ारसी में भी बेहद आला दर्जे की शायरी करते थे। असल में उनकी शुरुआती शायरी ज़्यादातर फ़ारसी में थी। उनका मानना था कि फ़ारसी में इज़हार की गुंजाइश ज़्यादा है। हालांकि उर्दू में उनका योगदान इतना बे-मिसाल रहा कि वो इस ज़बान के सबसे बड़े शायर बन गए। उन्होंने लिखा:
“हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया, पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूं होता तो क्या होता”
ग़ालिब की ज़बान में फ़ारसी की मिठास और उर्दू की नर्मी थी। उन्होंने अल्फ़ाज़ का ऐसा चुनाव किया, जिससे उनका हर शेर एक नगीना बन गया। उर्दू अदब में उन्होंने जो गुलदस्ता पेश किया, उसमें मीर की सादगी नहीं, बल्कि एक रंगीनियत, एक फ़लसफ़ा और एक तहज़ीब थी। उन्होंने शायरी को एक नई शक्ल दी, ऐसी शक्ल जो दिल और दिमाग़ दोनों को मुतास्सिर करती है।
ग़ालिब की शख़्सियत, उनकी नज़्म, उनका दर्द और उनका हुस्न-ए-बयान,सब मिलकर उन्हें एक आला दर्जे का फ़नकार बना देते हैं। वो सिर्फ़ ग़ज़ल के उस्ताद नहीं थे, वो अहसासात के जादूगर, अल्फ़ाज़ के बादशाह और सोच के रहबर थे। उनकी शायरी एक दरवाज़ा है जहां से गुज़र कर हर इंसान अपने अंदर की किसी खोई हुई आवाज़ को पा सकता है।
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