जब भी उर्दू शायरी की बात होती है, ज़हन में मीर, ग़ालिब, मोमिन और फिर फ़ौरन एक नाम चमक उठता है- दाग़ देहलवी! उनका अंदाज़, उनका लहजा, उनकी शोख़ी और उनकी नज़ाकत… सब कुछ ऐसा कि दिल छू जाए। नवाब मिर्ज़ा ख़ान के नाम से पैदा हुए, लेकिन ‘दाग़’ के तख़ल्लुस ने उन्हें शायरी की दुनिया का एक ऐसा सितारा बना दिया, जिसकी चमक आज भी कम नहीं हुई है। दाग़ सिर्फ़ शायर नहीं थे, वो मोहब्बत के अफ़्सानों को ज़िंदा करने वाले, दिल की धड़कनों को अल्फाज़ देने वाले एक जादूगर थे। उनकी शायरी में कहीं हुस्न की मासूमियत थी, तो कहीं इश्क़ की शरारत, और कहीं दिल टूटने का वो दर्द जो हर सुनने वाले को अपना सा लगता था।
बचपन दिल्ली में और ग़ालिब की शागिर्दी: एक अज़ीम शायर की बुनियाद
दाग़ साहब की पैदाइश 25 मई 1831 को दिल्ली की सरज़मीं पर हुई। उस वक़्त दिल्ली अदब का मरकज़ थी, और शायरों की रौनक हर गली-कूचे में नज़र आती थी। उनका बचपन कोई आम बचपन नहीं था। उनके वालिद, नवाब शम्सुद्दीन ख़ान, बहादुर शाह ज़फ़र के दामाद थे, लेकिन सियासत के दांव-पेंच में फंसकर उन्हें फांसी दे दी गई। इस बड़े सदमे के बाद, दाग़ की परवरिश उनकी वालिदा और ग़ालिब के हमउम्र, उस्ताद शायर शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ की निगरानी में हुई। ज़ौक़ साहब, जो ख़ुद बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद थे, उन्होंने दाग़ की शायरी की नींव मज़बूत की।
सोचिए, दिल्ली के लाल क़िले की बुलंद दीवारों के साये में, जहां शहज़ादे और शहज़ादियां रहते थे, जहां हर तरफ़ अदब और फ़न का माहौल था, वहीं दाग़ ने आंखें खोलीं। इस माहौल ने उनकी शायरी को एक ख़ास रंग दिया। छोटी उम्र में ही उन्होंने शेर कहने शुरू कर दिए। शुरुआत में उन पर ज़ौक़ का असर था, लेकिन बाद में मोमिन और ग़ालिब की शायरी ने उन्हें नया अंदाज़ दिया। ज़ौक़ साहब के इंतकाल के बाद, दाग़ बाकायदा ग़ालिब के शागिर्द हो गए और उनसे इस्लाह लेने लगे। ग़ालिब की फ़िक्र और अंदाज़ उनकी शायरी में नज़र आने लगा, लेकिन दाग़ ने अपनी एक अलग ही, रूमानी और शोख़ राह बनाई, जो उनकी पहचान बनी।
मक़बूलियत का दौर और ‘बुलबुल-ए-हिंद’ का ख़िताब
दाग़ देहलवी ने जब शायरी की दुनिया में क़दम रखा, उस वक़्त दिल्ली में मुग़लिया सल्तनत का सूरज ढल रहा था, और उसके साथ उर्दू अदब की वो पुरानी चमक भी फीकी पड़ रही थी। लेकिन दाग़ की ग़ज़लों ने एक नई जान फूंक दी। उनकी शायरी में जो रवानगी, जो सादगी और जो अंदाज़ था, वो सीधे दिलों में उतर जाता था।
उनकी मक़बूलियत का आलम ये था कि उनकी महफ़िलों में सिर्फ़ नवाब या अमीर ही नहीं, बल्कि आम लोग भी शामिल होते थे। हर तबके के लोग उनके मुरीद थे। बाद में, जब हालात ने दिल्ली से दूर किया, तो हैदराबाद के निज़ाम महबूब अली ख़ान ने उन्हें अपने दरबार में बुला लिया और ‘शायर-ए-ख़ास’ के तौर पर नवाज़ा। निज़ाम ने उन्हें कई ख़िताबों से नवाज़ा, जिनमें ‘बुलबुल-ए-हिंद’, ‘जहान-ए-उस्ताद’, ‘दबीर-उद्दौला’, ‘नाज़िम-ए-जंग’ और ‘नवाब फ़सीह-उल-मुल्क’ शामिल थे। उनका वज़ीफ़ा 450 रुपये महीना तय किया गया, जो बाद में बढ़कर एक हज़ार रुपये हो गया, और उन्हें जागीर में एक गांव भी मिला। ये उनकी शायरी की ताक़त और उनके हुनर का ही कमाल था।
शायरी की ख़ासियत: इश्क़, शोख़ी और दिल्ली की ज़ुबान
दाग़ देहलवी की शायरी की सबसे बड़ी ख़ासियत उनकी रंगीन तबीयत, शहरी रूमानी अंदाज़ और ज़बान की मिठास थी। उनका लहजा आम बोलचाल की भाषा के करीब था, जिसे पढ़ना और समझना आसान था, लेकिन उसका असर बहुत गहरा होता था।
उन्होंने उर्दू ग़ज़ल को विरह की तड़प और कल्पना की बेलगाम उड़ानों से बाहर निकाल कर एक शगुफ़्ता लहजा दिया। दाग़ ने क़िला-ए-मुअल्ला की ख़ालिस टकसाली उर्दू में शायरी की, जिसकी दाग़-बेल उनके उस्ताद शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ रख गए थे। ये नई शैली इतनी लोकप्रिय हुई कि हज़ारों लोगों ने इसकी पैरवी की और उनके शागिर्द बन गए। उर्दू ज़बान को उसकी मौजूदा शक्ल में हम तक पहुंचाने का श्रेय भी दाग़ के सिर है।
उनकी ग़ज़लों में इश्क़ की शोख़ी, शिकवे-शिकायतें, हुस्न की तारीफ़ और दिल की उलझनें सब कुछ था। उन्होंने मोहब्बत को जिया था, पढ़ा नहीं था, और यही बात उनकी शायरी में झलकती थी। उनकी ग़ज़लें अक्सर मिलन की शायरी होती थीं, जिनमें ख़ुशकन अंदाज़ और गैर-पाखंडी रवैया होता था। उनकी बातों में शोख़ी, बेतकल्लुफ़ी, तंज़, गहरी भावनाएं और ज़िंदगी का तजुर्बा साफ़ दिखता था, जो उनकी ग़ज़लों को ख़ास बनाता था।
किस्से और दिलचस्प बातें: एक खुशदिल शायर की झलक
दाग़ देहलवी की ज़िंदगी दिलचस्प किस्सों से भरी पड़ी थी, जो उनके खुशदिल और हाज़िरजवाब मिजाज़ को दर्शाते हैं। एक बार किसी ने उनसे पूछा, “दाग़ साहब, आपकी शायरी में इतनी नज़ाकत और शरारत कहां से आती है?” दाग़ मुस्कुराए और जवाब दिया, “हमने मोहब्बत को जिया है, पढ़ा नहीं!” ये एक छोटा सा जुमला उनकी पूरी शायरी का निचोड़ था।
दाग़ की ज़िंदगी का एक और पहलू उनकी हुस्न-परस्ती थी। उस ज़माने में तवाइफ़ो से रिश्ता खुशहाली की निशानी समझा जाता था। दाग़ भी खूबसूरत चेहरों के रसिया थे और उनकी शायरी का सबसे बड़ा प्रेरक भी यही खूबसूरत चेहरे थे। उन्होंने किसी अफ़लातूनी इश्क़ को नहीं जिया, बल्कि वो खूबसूरत चेहरों की तलाश में रहे।
शागिर्दों की लंबी क़तार: एक उस्ताद की विरासत
दाग़ के पास सीखने वालों की कमी नहीं थी। उनकी शागिर्दों की तादाद हज़ारों तक पहुंच गई थी, जिनमें फ़क़ीर से लेकर बादशाह तक, और विद्वान से लेकर आम लोग तक शामिल थे। ये उनकी शायरी की जादूगरी का ही कमाल था कि हर कोई उनके अंदाज़ का कायल हो जाता था।
अल्लामा इक़बाल, जिगर मुरादाबादी,अमीर मीनाई, हसरत मोहानी से लेकर मौलाना ज़फ़र अली तक शागिर्दों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है। इन बड़े नामों से पता चलता है कि दाग़ का अदबी असर कितना गहरा था। उनकी शायरी का असर आने वाली नस्लों पर भी साफ़ नज़र आता है।
आख़िरी दिन और एक अमर विरासत
दाग़ देहलवी ने 17 मार्च 1905 को हैदराबाद में अपनी आख़िरी सांस ली। लेकिन उनका कलाम आज भी महफ़िलों, मुशायरों और दीवानों की रूह बना हुआ है। उन्होंने पांच दीवान छोड़े, जिनमें 1028 ग़ज़लें शामिल हैं। उनकी ग़ज़लों में जो रवानगी है, जो दिलकशी है, वो आज के दौर में भी उतनी ही ताज़ा लगती है जितनी उनके ज़माने में थी।
दाग़ वो शायर हैं जिन्होंने उर्दू ग़ज़ल को उसकी निराशा से निकालकर मोहब्बत के वो तराने गाए जो उर्दू ग़ज़ल के लिए नए थे। साथ ही, उन्होंने भारी-भरकम फ़ारसी शब्दों से दूर रहकर शुद्ध और आम दिल्ली की ज़बान में शायरी की। उनकी पूरी शायरी में मिलने की खुशी, खुलापन और बिना बनावट की सच्चाई झलकती है। यही सहज भाषा, मिलन का जश्न और दिल्ली की बोलचाल पर उनकी पकड़ ही उन्हें इतना लोकप्रिय बनाती है।
दाग़ देहलवी वो शायर हैं जिन्होंने नज़्म और ग़ज़ल के बीच इश्क़ का एक ख़ूबसूरत पुल बनाया। उनकी शायरी आज भी दिलों को वही सुकून देती है, जैसे कभी दिल्ली की पुरानी गलियों में देती थी। वो एक ऐसे चिराग़ हैं जिनकी रौशनी उर्दू अदब की महफ़िलों को आज भी रोशन कर रही है। उनका नाम उर्दू शायरी की तारीख़ में हमेशा ज़ेब-ओ-ज़ीनत बनकर रहेगा।
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