उर्दू अदब की दुनिया में कई ऐसे नाम हैं जो बहुत मशहूर हुए, जिनकी शायरी, अफ़साने और नावेल किताबों में दर्ज हो गए और आने वाली नस्लें उन्हें पढ़कर इल्म और फ़िक्र हासिल करती रहीं। लेकिन कुछ अदीब और शायर ऐसे भी गुज़रे हैं जिन्होंने अपनी ज़िंदगी इल्म और अदब को सरशार की, मगर शोहरत से हमेशा किनारा किया। उन्हीं में से एक नाम है अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा का — लखनऊ की वो शायरा, जिनका फ़न उनकी शोहरत से कहीं बड़ा था।
अहमियत का मुझे अपनी भी तो अंदाज़ा है
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
तुम गए वक़्त की मानिंद गंवा दो मुझ को
बचपन और तालीम
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा का जन्म 23 अगस्त 1926 को उत्तर प्रदेश के बदायूं शहर में हुआ। यह वो दौर था जब हिंदुस्तान अंग्रेज़ी हुकूमत के साय में था और औरतों का लिखना-पढ़ना बहुत आम नहीं था। मगर अज़ीज़ बानो का ताल्लुक़ एक ऐसे घराने से था जहां तालीम और तहज़ीब की बड़ी क़दर थी। बचपन से ही उन्हें किताबों, शायरी और इल्म से लगाव रहा। उनका रुझान शुरू से ही अदबी हल्क़ों की तरफ़ था। अक्सर वो कहा करती थीं कि “लिखना मेरे लिए सांस लेने जैसा है।” यह जज़्बा ही उन्हें बाद में शायरी और अफ़साना निगारी की दुनिया में ले आया।
एक मुद्दत से ख़यालों में बसा है जो शख़्स
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ग़ौर करते हैं तो उस का कोई चेहरा भी नहीं
दोस्ती और अदबी रिश्ता – क़ुर्रतुल ऐन हैदर से
अज़ीज़ बानो की ज़िंदगी का एक बड़ा पहलू उनकी मशहूर उर्दू नावेल निगार क़ुर्रतुल ऐन हैदर (ऐनी आपा) से गहरी दोस्ती है। यह दोस्ती महज़ ताल्लुक़ तक महदूद नहीं थी, बल्कि दोनों की सोच, फ़िक्र और अदबी सफ़र में एक तरह का गहरा असर भी रहा।
जब ऐनी आपा ने अपना शहर-ए-शुहरत “आग का दरिया” लिखा, उसमें उन्होंने एक किरदार हमीद बानो पेश किया। बहुत कम लोग जानते हैं कि यह किरदार दरअसल अज़ीज़ बानो ही थीं। यानी अज़ीज़ बानो का शख़्सी क़द्र-ओ-क़ीमत इस क़दर था कि उर्दू की सबसे अहम और मशहूर तख़लीक़ में उनकी शख़्सियत झलकती है।
मेरे हालात ने यूं कर दिया पत्थर मुझ को
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
देखने वालों ने देखा भी न छू कर मुझ को
फ़न और शोहरत से बे-रुख़ी
शायरी, अफ़साना और नावेल — अज़ीज़ बानो ने सब कुछ लिखा। लेकिन उनकी ज़िंदगी का सबसे हैरान कर देने वाला पहलू यह है कि उन्होंने कभी अपने कलाम को दुनिया के सामने लाने की कोशिश नहीं की।
मैं जब भी उस की उदासी से ऊब जाऊंगी
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
तो यूं हंसेगा कि मुझ को उदास कर देगा
उनकी हवेली में एक अंधा कुआं था। और जो कुछ भी लिखतीं, उसे उस कुएं में डाल देतीं। यानी उनका लिखा हुआ कलाम काग़ज़ से निकलकर उसी कुएं की गहराइयों में हमेशा के लिए गुम हो जाता। यह उनकी शोहरत से बे-रुख़ी और तहरीर की सच्चाई का सबूत है।
अज़ीज़ बानो का मानना था कि शायरी “दिखाने” के लिए नहीं, बल्कि ज़हनी सुकून के लिए होती है। उनकी ये अदा उन्हें और भी अलग और यादगार बना देती है।
इंदिरा गांधी से मुलाक़ात और अचानक शोहरत
हालांकि अज़ीज़ बानो ने शोहरत की कभी तलब नहीं की, लेकिन तक़दीर उन्हें छुपाकर कहां रख सकती थी? उन दिनों बेगम सुल्ताना हयात ने एक ख़ास मुशायरा आयोजित किया, जिसकी सदारत उस वक़्त की सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी कर रही थीं। इस मुशायरे में अज़ीज़ बानो की ग़ज़लें भी पेश की गईं।
जब इंदिरा गांधी ने उनके अश्आर सुने, तो वो इतनी मुतास्सिर हुईं कि खुलकर उनकी दाद-ओ-तहसीन की। उन्होंने अज़ीज़ बानो की शायरी को “ग़ैर मामूली” क़रार दिया और उनकी हौसला-अफ़ज़ाई की। बस यहीं से अज़ीज़ बानो का नाम उर्दू अदब के हल्क़ों में मशहूर हो गया।
लेकिन दिलचस्प बात यह रही कि शोहरत आने के बाद भी उन्होंने कभी इसे अपनी ज़िंदगी का मक़सद नहीं बनाया। वो उसी सादगी और बे-रियाई से अपनी तहरीर और शायरी को देखती रहीं।
ये हौसला भी किसी रोज़ कर के देखूंगी
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
अगर मैं ज़ख़्म हूं उस का तो भर के देखूंगी
शख़्सियत और अदबी फ़लसफ़ा
अज़ीज़ बानो की शख़्सियत की सबसे बड़ी ख़ासियत उनकी इंकिसार-पसंदी थी। उन्हें अपनी तख़लीक़ पर नाज़ था, लेकिन दिखावे से नफ़रत थी। उनकी सोच यह थी कि “अगर मेरी तहरीर में दम होगा, तो वो किसी न किसी तरह लोगों तक पहुंच जाएगी, वरना मेरे लिए मेरा लिखा होना ही काफ़ी है।” उनकी शायरी और गद्य में अक्सर इंसानी जज़्बात, औरत की हैसियत, मोहब्बत, जुदाई, और तहज़ीब की झलक दिखाई देती है। लेकिन अफ़सोस कि उन्होंने अपनी बहुत-सी तख़लीक़ात ख़ुद ही कुएं में दफ़्न कर दीं। अगर वो सब हमारे पास होतीं, तो यक़ीनन उर्दू अदब का एक बड़ा खज़ाना और भी समृद्ध होता।
हमारी बेबसी शहरों की दीवारों पे चिपकी है
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
हमें ढूंडेगी कल दुनिया पुराने इश्तिहारों में
वफ़ात और “गूंज” का इशाअत
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा ने 2005 में इस फ़ानी दुनिया से रुख़्सत ली। वो हमेशा एक सादा, मुक़ल्लिद और गुमनाम सी ज़िंदगी जीती रहीं। लेकिन उनकी तहरीर पूरी तरह गुम नहीं हुई। उनकी वफ़ात के चार साल बाद, 2009 में, सय्यद मोइनुद्दीन अल्वी ने उनका शायरी का मज्मूआ “गूंज” के नाम से शाया किया। यह मज्मूआ इस बात की गवाही है कि अज़ीज़ बानो की आवाज़ भले ही ज़माने तक न पहुंची हो, मगर उनकी शायरी की गूंज आज भी सुनाई देती है।
आज जब शायरी और अदब में लोग शोहरत और पहचान के पीछे भाग रहे हैं, अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा हमें एक अलग पैग़ाम देती हैं। उन्होंने दिखाया कि अस्ल शायरी वो है जो दिल से निकले और दिल तक पहुंचे। उनका नाम इस लिए भी यादगार है कि वो औरतों की उस नस्ल से थीं जिन्होंने उस दौर में लिखने की हिम्मत की, जब औरतों के लिए अदब की दुनिया में क़दम रखना आसान नहीं था।
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा की ज़िंदगी और शायरी हमें यह सिखाती है कि फ़न का अस्ल मक़सद शोहरत या दावेदारी नहीं, बल्कि इंसान के दिल और रूह का सुकून है। उनकी तहरीरें भले ही कुएं में डाल दी गई हों, लेकिन उनका नाम और उनकी याद उर्दू अदब में हमेशा ज़िंदा रहेगी।
निकल पड़े न कहीं अपनी आड़ से कोई
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
तमाम उम्र का पर्दा न तोड़ दे कोई
ये भी पढ़ें: नए लब-ओ-लहज़े की शायरा: परवीन शाकिर की शायरी का जादू और रग-ए-जां में उतरते अल्फ़ाज़
आप हमें Facebook, Instagram, Twitter पर फ़ॉलो कर सकते हैं और हमारा YouTube चैनल भी सबस्क्राइब कर सकते हैं