06-Oct-2025
HomePOETशकेब जलाली: जिनकी ज़िन्दगी अधूरी ग़ज़ल थी लेकिन लफ़्ज़ एहसास बनकर उतरे  

शकेब जलाली: जिनकी ज़िन्दगी अधूरी ग़ज़ल थी लेकिन लफ़्ज़ एहसास बनकर उतरे  

शकेब जलाली ने कम उम्र में ही तन्हाई को अपना हमसफ़र बना लिया। रातों को आसमान के नीचे बैठकर वो अपने जज़्बात काग़ज़ों पर उतारते थे। अक़्सर दुकानों से फेंके गए काग़ज़ उठाकर उन पर शेर लिखा करते।

तू ने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूं,
आंखों को अब न ढांप, मुझे डूबते भी देख।

शकेब जलाली

शायरी की दुनिया में कुछ नाम ऐसे हैं जो अपने अल्फ़ाज़ से नहीं, अपने लफ्ज़ों में उकेरे दर्द से याद रखे जाते हैं। ऐसा ही एक नाम है शक़ेब जलाली- वो शायर, जिसकी ज़िंदगी एक अधूरी ग़ज़ल की तरह थी, मगर हर मिसरा दिलों में उतर जाता है।

बचपन का दर्द और तन्हाई

शक़ेब जलाली का असली नाम सैयद हसन रिज़वी था। उनकी पैदाइश 1 अक्टूबर 1934 को अलीगढ़ के क़रीब एक छोटे से गांव जलाल में हुई। ये वही गांव था, जहां से एक मासूम बच्चा आगे चलकर उर्दू अदब का एक बड़ा नाम बना, मगर उसकी ज़िंदगी दर्द और तन्हाई से भरी रही।

जब शकेब सिर्फ़ 10 साल के थे, तब उनकी माे का एक सड़क हादसे में इंतिकाल हो गया। मां की मौत ने उनके पिता को तोड़ दिया। वो धीरे-धीरे अपनी अकल खो बैठे और कुछ ही दिनों में उनका भी इंतिकाल हो गया। इस तरह एक छोटा बच्चा, दो बहनों के साथ, दुनिया में बिल्कुल अकेला रह गया।

ये वही उम्र थी जब बच्चे खेलते-कूदते हैं, मगर शकेब को ज़िंदगी की सख़्त हक़ीक़तों से रूबरू होना पड़ा। मगर यही दर्द आगे चलकर उसकी शायरी की सबसे बड़ी ताक़त बना।

शायरी की शुरुआत: दर्द को अल्फ़ाज़ देना

कहा जाता है कि तन्हाई में इंसान अपने असली रूप से मिलता है। शक़ेब ने भी उसी तन्हाई में शायरी को अपना हमसफ़र बना लिया। किशोर उम्र में ही वो रातों को आसमान के नीचे बैठकर, चांदनी में काग़ज़ों पर अपने जज़्बात लिखते थे।

कभी दुकान से फेंके गए पुराने काग़ज़ उठाते, और उन पर शेर लिखते रहते। एक बार उन्होंने अपने हाथों से लिखी हुई शायरी बदायूं के एक किताब-फरोश को दी। वो किताब वाला हर शुक्रवार उन अशआर को ऊंची आवाज़ में पढ़ता और लोग उसे सुनने जमा हो जाते।

कोई भूला हुआ चेहरा नज़र आए शायद
आईना ग़ौर से तू ने कभी देखा ही नहीं।

शकेब जलाली

उनके शेरों में वो गहराई थी जो किसी तजुर्बे से आती है वो तजुर्बा जो दर्द, जुदाई और तन्हाई से पैदा होता है। 

हिजरत का दर्द: घर से बेघर होना

साल 1947, हिंदुस्तान की तक़सीम यानी पार्टीशन का साल। शक़ेब को भी अपने वतन, अपने गांव को छोड़कर रावलपिंडी (पाकिस्तान) जाना पड़ा। ये सफ़र उनके लिए बेहद मुश्किल था रास्ते में डर, भूख और अंधेरा। 

नई ज़मीन पर उन्होंने अपनी बहनों के साथ ज़िंदगी की नई शुरुआत की। ग़रीबी थी, लेकिन हिम्मत भी थी। उन्होंने रावलपिंडी और सियालकोट में पढ़ाई जारी रखी। स्कॉलरशिप और छोटे-मोटे कामों से गुज़ारा करते रहे। कभी-कभी फटे जूतों में मीलों पैदल चलकर मुशायरों में हिस्सा लेते, सिर्फ़ शायरी सुनाने के लिए।

सोचो तो सिलवटों से भरी है तमाम रूह,
देखो तो इक शिकन भी नहीं है लिबास में।

शकेब जलाली

लाहौर की गलियों में पहचान

आख़िरकार शक़ेब लाहौर चले आए। वहां उन्हें एक अख़बार में प्रूफ़रीडर की नौकरी मिली। दिन में वो दूसरों की ख़बरें सुधारते और रात को अपने दिल के जज़्बात को अल्फ़ाज़ में ढालते। सहकर्मी कहते थे-’वो हमेशा मुस्कुराते थे, मगर उनकी आंखों में समंदर छुपा था।’

लाहौर में ही उन्होंने B.A. किया और साहित्यिक हलक़ों में पहचान बनाने लगे। उनकी ग़ज़लें मुशायरों में सुनाई जाने लगीं और लोग उनके हर शेर को तालियों से नवाज़ते।

जा‍ती है धूप उजले परों को समेट के,
ज़ख़्मों को अब गिनूंगा मैं बिस्तर पे लेट के।

शकेब जलाली

मोहब्बत और सुकून के पल

साल 1956 में उन्होंने सय्यदा मोहिद्दिसा ख़ातून से निकाह किया। ये रिश्ता सुकून देने वाला था। शक़ेब अक्सर शाम को अपनी बीवी के साथ नहर किनारे टहलते और उसे अपनी नई ग़ज़लें सुनाते। उनके दोस्त कहते हैं कि मोहब्बत ने उन्हें कुछ वक़्त के लिए मुस्कुराना सिखा दिया था। इसी दौरान उनकी शोहरत बढ़ती गई और वो उर्दू अदब के अहम नामों में शुमार होने लगे।

ये एक अब्र का टुकड़ा कहां-कहां बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है।

शकेब जलाली

शायरी में ‘अंधेरे की रोशनी’

एक बार लाहौर के एक मुशायरे में किसी मशहूर शायर ने कहा- “शक़ेब की शायरी बहुत उदास है, इसमें उम्मीद नहीं।” इस पर शक़ेब ने वहीं एक नई ग़ज़ल पढ़ी, जिसमें कहा:

लोग देते रहे क्या-क्या न दिलासे मुझ को
ज़ख़्म गहरा ही सही, ज़ख़्म है भर जाएगा।

शकेब जलाली

और फिर उन्होंने वो मशहूर शेर पढ़ा जिसने सबको खामोश कर दिया —

हम उस से बच के चलते हैं
जो रास्ता आम हो जाए।

शकेब जलाली

उस रात शक़ेब जलाली एक लफ़्ज़ नहीं, एक एहसास बन गए। शायरी में शोहरत आने के बावजूद, उनके अंदर का दर्द कभी ख़त्म नहीं हुआ। वो थल डेवलपमेंट अथॉरिटी में नौकरी करते थे, जिसकी वजह से उन्हें जोहराबाद और भक्कर जैसे दूर इलाक़ों में रहना पड़ता था। वहां की तन्हाई, शहरों से दूरी और बेचैनी ने उनके अंदर की उदासी को और गहरा कर दिया।

कहते हैं, वो रातों को रेलवे ट्रैक के पास बैठा करते, जहां से गुज़रती ट्रेनों की आवाज़ उनके शेरों में उतर आती।  उनकी ग़ज़लों में अक्सर “सफ़र”, “रास्ता” और “वक़्त” जैसे अल्फ़ाज़ आने लगे।

मलबूस ख़ुश-नुमा हैं मगर जिस्म खोखले,
छिलके सजे हों जैसे फलों की दुकान पर।

शकेब जलाली

12 नवंबर 1966 — सिर्फ़ 32 साल की उम्र में, शक़ेब जलाली ने सर्गोधा में रेल की पटरी पर अपनी ज़िंदगी का सिलसिला ख़त्म कर लिया। कहा जाता है, वो किसी गहरी मायूसी से गुज़र रहे थे, शायद वो दर्द जो अब शब्दों में भी नहीं ढल पा रहा था। उनकी मौत ने अदबी दुनिया को हिला दिया।

हर शायर, हर अदबी हलक़ा उनकी तन्हाई और हिम्मत दोनों को याद करता रहा। आज भी शक़ेब जलाली का नाम उर्दू शायरी की उस पीढ़ी में लिया जाता है जिसने दर्द को ख़ूबसूरती में बदला। उनकी मशहूर किताबें “रोशनी आए रोशनी” और “कुल्लियात-ए-शक़ेब जलाली” आज भी पढ़ी और महसूस की जाती हैं।

उनकी शायरी में दर्द है, लेकिन वो दर्द रोशनी बनकर दिलों को छूता है।

भिगी हुई इक शाम की दहलीज़ पे बैठे,
हम दिल के सुलगने का सबब सोच रहे हैं।

शकेब जलाली

हर साल नवंबर में उनके चाहने वाले उनकी याद में मुशायरे करते हैं, उनकी ग़ज़लें पढ़ते हैं क्योंकि शक़ेब सिर्फ़ एक शायर नहीं, एक एहसास थे।

ये भी पढ़ें: मजाज़ की आवाज़ बनी अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की पहचान

आप हमें FacebookInstagramTwitter पर फ़ॉलो कर सकते हैं और हमारा YouTube चैनल भी सबस्क्राइब कर सकते हैं।



















RELATED ARTICLES
ALSO READ

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular