सिराज बाज़ार, दरिया-ए-झेलम (River Jhelum)के किनारे, कश्मीर। यहां की हवाएं सदियों से मौसिकी की रूहानी तान कारीगरी की दास्तां बयां करती हैं। यहीं रहते हैं गुलाम मोहम्मद ज़ाज़ (Ghulam Muhammad Zaz)- एक नाम, जो ख़ुद एक दस्तूर है। पद्मश्री से सम्मानित गुलाम मोहम्मद ज़ाज़ सिर्फ़ एक कारीगर नहीं, बल्कि कश्मीरी म्यूज़िक के वाद्ययंत्रों की सात पीढ़ियों से चली आ रही ज़िंदा विरासत के अमीन हैं। उनकी वर्कशॉप सिर्फ़ संतूर (Santoor) ही नहीं, बल्कि कश्मीरी सितार, साज़, दिलरुबा, ताऊस और सुरबहार जैसे वाद्ययंत्रों का जन्मस्थान है, जो दुनिया भर में अपनी अनूठी आवाज़ के लिए मशहूर हैं।
जाज़ परिवार की सोने की पिटारी: एक लाफ़ानी विरासत
गुलाम मोहम्मद ज़ाज़ (Ghulam Muhammad Zaz) के अल्फ़ाज़ में, “हमारे अब्बा-बाप सिर्फ़ संतूर (Santoor) ही नहीं, बल्कि हर तार वाला साज़ बनाने में माहिर थे।” उनके बुजुर्गों की महारत का ही नतीजा था कि देश के बड़े-बड़े नवाब और राजघराने उनके बनाए वाद्ययंत्रों को ख़रीदते थे और उन्हें तबरुकन (नज़राने के तौर पर) संजोकर रखते थे। आज भी दुनिया के कई म्यूज़ियम्स में उनके बनाए साज़ मौजूद हैं। “इसमें कोई दो राय नहीं, ये हमारी पोजीशन थी,” वह गर्व से कहते हैं।
संतूर की कहानी: सूफ़ियाना कलाम से बॉलीवुड तक
संतूर (Santoor) की दास्तां भी बेहद दिलचस्प है। गुलाम साहब बताते हैं कि पहले संतूर कश्मीरी सूफ़ियाना महफ़िलों में बजाया जाता था, जहां अक्सर इलाही कलाम पढ़े जाते थे। धीरे-धीरे इस साज़ ने एक नया रूप लिया। इसकी दुनिया भर में मकबूलियत का श्रेय वो दो नामों को देते हैं: पंडित शिवकुमार शर्मा और भजन सोपोरी। ‘शिवजी ने इसे बॉम्बे की फ़िल्म इंडस्ट्री में पहुंचाया और गवर्नमेंट का सहारा मिला, तो ये साज़ विदेशों तक जा पहुंचा’। उधर भजन लाल साहब ने भी इसे खूब शोहरत दिलाई।
पद्मश्री: नसीब या पुरखों की दुआ?
गुलाम मोहम्मद ज़ाज़ के लिए पद्मश्री सम्मान कोई शख़्सी उपलब्धि नहीं, बल्कि उनके पूर्वजों की मेहनत और दुआ का सिला है। वो कहते हैं, ये इनाम तो मेरे अब्बा या दादा को मिलना चाहिए था। मैं तो बस उन्हीं का एक शागिर्द हूं। ये उन बुजुर्ग सूफ़ी-मुनियों की दुआ का असर है, जो हमारे यहां आते थे। इसमें हमारा क्या कोई नहीं बस से तो ऊपर वाले की मेहरबानी है।
मुश्किलात का सफ़र और आठवीं पीढ़ी का सवाल
इस राह में कोई आसानी नहीं थी। साज़ (Santoor) बनाने का प्रोसेस लंबा और पेचीदा है। सही लकड़ी का चुनाव, उसे सीज़न करना, फिर बारीकी से गढ़ना, ये सब महीनों का सफ़र है। 80 साल की उम्र में भी गुलाम साहब का जुनून कम नहीं हुआ। वो कहते हैं ‘जब तक दम में दम है, काम करता रहूंगा’ लेकिन एक सवाल उन्हें परेशान करता है कि क्या ये विरासत आठवीं पीढ़ी तक ज़िदा रहेगी? इसके बाद कौन आएगा, ये तो वक़्त ही बताएगा, उनकी आवाज़ में एक गहरी उदासी छिपी है।
गुलाम मोहम्मद ज़ाज़ सिर्फ़ एक शिल्पकार नहीं, बल्कि जीते-जागते इतिहास हैं। वो एक ऐसी दुनिया में जी रहे हैं, जहां वक्त थम-सा गया है, जहां हर साज़ में सात पीढ़ियों की आवाज़ें गूंजती हैं। उनकी ज़िंदगी इस बात का सबूत है कि जब हुनर और मोहब्बत एक हो जाएं, तो विरासत कभी मरती नहीं, बस अपना रूप बदलती है। कश्मीर की इस सांगीतिक धरोहर का फ्यूचर अभी ग़ैर-यक़ीनी है, लेकिन गुलाम साहब की दुआएं और उनकी कोशिश इस उम्मीद को ज़िदा रखे हुए है कि आने वाली नस्लें भी इस नग़मे को आगे बढ़ाएंगी।
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